कुछ वक्त गुमनामी ही सही, भूल जा ज़माना ,औऱ खुद की तलाश कर।
भटकता रहा जो दर-बदर शोरगुल के पीछे, थोड़ा रुक और खुद की खामोशी से बात कर।
नज़रो ने देखे हैं तेरी , हैवानियत के किस्से,आंखों से धूल हटा, और इंसानियत का आगाज़ कर।
चंद लम्हे जुटा ले खुशियों के तू,भीड़ का खिलौना ना बन, मुस्कुराहट की बौछार कर।
इल्म बहुत है ना , तुझे तेरे वजूद का,अंधेरो को उनका रास्ता दिखा, रौशनी को ना नाराज़ कर।
कितना जिएगा अब औऱ, झूठी शान में,ये ज़मी तेरी अपनी है, इसे और तो ना ख़ाक कर।
बाहों में भर ले इंसानियत को, बेड़ियाँ लगा दे हैवानियत पर,दोज़ख़ बनी ज़मी, अब तो ज़न्नत कर।
सरहदे ज़रूर बनाई है हमने, फिर भी मोहब्बत फैला दुनिया मे,हिफाज़त का ताबीज़ बन कर।
Poetess::
Roma KashyapE-mail: romapathak01@gmail.com
Published on August 10, 2018 01:46