Atul Kumar Rai's Blog

August 29, 2025

सोसायटी का लोकतंत्र और कुत्ता राजनीति : एक हास्य कथा

सोसायटी अध्यक्ष एक रिटायर्ड अफ़सर थे और जीवन के खाली दिनों में लेखक बन चुके थे। उन्होंने सोसायटी कमेटी ग्रुप में एक डिजिटल सूचना लिखी थी, जिसका मजमून कुछ यूं था,

“आप सभी मेम्बरान को सूचित किया जा रहा है कि आपकी सोसायटी कुत्तों को घुमाने के निश्चित समय तय करने पर विचार कर रही है। ताकि पिछले कुछ दिनों के भीतर बच्चे औऱ बुजुर्गों के साथ हुई तमाम दुर्घटनाओं से बचा जा सके।

जैसा कि आप जानते हैं कि हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है। चुनाव हमारी परंपरा है। बात-बात पर चुनाव न हो तो लोक और तंत्र दोनों का पाचन तंत्र खराब हो जाता है, जिसको ठीक करने की एक ही चूर्ण है, चुनाव। इसलिए हमने इस कुत्ता घुमक्कड़ी प्रस्ताव पर चुनाव कराने का फैसला किया है। रविवार, दिन ग्यारह बजे सोसायटी हॉल में आपकी मौजूदगी ज़रूरी है। बुजुर्ग मेम्बरान से निवेदन है कि ताश खेलने, सोशल मीडिया पर सरकार गिराने और अपने बहू-बेटों की एक दूसरे से शिकायत करने में रोज की तरह वक्त जाया न करें। वोटर लिस्ट में अपना नाम चेक करके वोटिंग में मौजूद रहे।”

आपका अध्यक्ष फलाना

इस सूचना के ग्रुप में आते ही हड़कंप मच गया। बुज़ुर्ग काफ़ी अपमानित महसूस कर रहे थे। सोसायटी के माई गेट एप के अनुसार सोसायटी में तीन सौ से ज्यादा कुत्ते थे और कुत्ते प्रेमियों की जनगणना करने के लिए अभी एप विकसित नहीं हो सका था..लेकिन सूत्रों के अनुसार कई दर्जन नवयुवक और उनकी नवयुवतियों के तन-बदन में भी आग लग चुकी थी। 

फलस्वरूप रविवार के दिन देखते ही देखते सोसायटी ऑफिस के सामने कुत्ते और कुत्ते प्रेमियों का एक सैलाब उतर आया। वोटिंग के बीच ही अध्यक्ष के खिलाफ नारेबाजी होने लगी।  किसी ने बताया कि अध्यक्ष एक फेमिनिस्ट है, बिल्ली पालता है, जैसे बिल्लियां मतलबी होती हैं, वैसे ही अध्यक्ष भी मतलबी है, इसको बच्चों और बुजुर्गों की कोई चिंता नहीं, इसे बस बात-बात पर वोटिंग करवानी है और अंत में अध्यक्षीय भाषण देकर अपनी वो कविता ठूसनी है, जिस पर कोई कुत्ता भी लाइक-कमेंट नहीं करता।

देखते ही देखते सोसायटी का गेट जंतर-मंतर बन गया।  दो-चार मेम्बरान, जो किताबों की गलत संगत औऱ सोशल मीडिया की सोहबत में आकर बुद्धिजीवी बन चुके थे..उनके नथुने फड़फड़ा रहे थे..आंखें आग फेंक रही थी। 

तभी हाथों में कुत्ते का पट्टा और चढ़ती सांस के साथ वरिष्ठ मेंबर लल्लू सिंह जी ने वोटिंग की लाइन में प्रवेश किया। लल्लू जी का देसी कुत्ता देखकर सभी उच्च नस्ल वाले कुत्ते सर्वसम्मति से भौंकने लगे…सोसायटी के एक मेंबर जीतन प्रसाद जी ने कहा, पीछे हटिये, आपका देशी कुत्ता देखकर सोसायटी के सारे कुत्ते भड़क रहे हैं। लल्लू जी इस बेइज्जती पर ख़फ़ा होते उससे पहले ही उनका देशी कुत्ता ख़फ़ा हो बैठा और लगा भौंकने..

कुत्तों के बीच सवाल-जबाब का एक पूरा कार्यक्रम शुरू हो गया। देशी कुत्ता सैकड़ों कुत्तों की खबर लेने लगा। वोटिंग हॉल में हड़कम्प मच गया। कुछ मीडिया के लोग वोट देने आए लोगों से इंटरव्यू लेने लगे।

एक पत्रकार जो अपने चैनल पर व्यूज न मिलने से परेशान होकर इस वोटिंग को कवर करने आया था, उसने पूछा, लल्लू जी आप इस कुकुरहांव में कैसा महसूस कर रहे है ?  फैसले के पक्ष में वोट देने जा रहे हैं या विपक्ष में ? 

लल्लू जी कुछ कहते इससे पहले ही जीतन जी का कुत्ता पत्रकार की तरफ झपट पड़ा…पत्रकार ने जान हथेली पर रखी और माइक सर पर…जीतन जी हंसे और कहे, “डरो मत, इसकी मम्मी तुम्हारे चैनल हेड के घर पैदा हुई थी। तुम इसके ननिहाल साइड के हो…इसके मामा लगोगे। मेरा इंटरव्यू नही ले रहे हो, इसलिए नाराज हो गया है। इतना सुनते ही पत्रकार की हिम्मत न हुई, वो दुम दबाकर गायब हो गया।

इधर वोटिंग चलती रही। तब तक तमतमाते हुए जीतन जी बाहर आए, “आखिर मेरा नाम वोटर लिस्ट से क्यों काटा गया है, किसकी हिम्मत हुई ?  कमेटी की सालाना बैठक में पीने का प्रबंध मैं करता हूँ। हर मेंबर और उसके कुत्ते का जन्मदिन मैं मनाता हूँ। स्टेटस तक लगाता हूँ और मेरा ही नाम नहीं। ये लल्लन जी की राजनीति है जी है या अध्य्क्ष जी की ?”

राजनीति शब्द सुनते ही अध्यक्ष जी बाहर लौट आए…चेहरे पर उनकी मृदु मुस्कान थी। उन्होंने कहा, प्राप्त जानकारी के अनुसार आपका कुत्ता भले विदेशी है लेकिन है एक नम्बर का आवारा… हम चाहते हैं कि अगले हफ्ते फिर वोटिंग हो, जिसमें ये तय किया जाए कि किसका कुत्ता ज़्यादा आवारा है। हम आवारा किस्म के लोगो पर पहले शिंकजा कसना चाहतें हैं, इतना सुनते ही सारे कुत्ते भौंकने लगे, अध्यक्ष जी ने अपनी नई कविता पढ़ने के लिए पर्ची निकाल दी औ समस्त कुत्तों ने अपनी जीभ।

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Published on August 29, 2025 01:36

August 18, 2025

डोपामाइन डिटॉक्स – डिजिटल जंगल की आयुर्वेदिक जड़ी !

जिन चीज़ों को करने से हमारी खुशियों के व्याकरण की परिभाषा तय होती हो, एक वक़्त के बाद वही चीजें ज़िंदगी की स्लेट पर धुंधली पड़ने लगती हैं और फिर मन उचट सा जाता है।

अफ़सोस कि मन का उचट जाना आज तक दुर्घटना की किसी भी श्रेणी में नहीं आ सका है।

लेकिन चेतना के तल पर जाकर देखें तो ये अवसाद में जाने का प्रस्थान बिंदु है।

लोग इस दुर्घटना का गम भुलाने के लिए गीत-संगीत से मनोरंजन कर लेते हैं। किताब और सिनेमा की तरफ़ चले जातें हैं लेकिन कभी आपने सोचा कि तब क्या होगा, जब मनोरंजन की इन चीजों से भी आदमी का मन उचट जाए ?

आप लाइब्रेरी से अपनी प्रिय किताब और पत्रिकाएं लाएं और हाथ में लेकर पढ़ न पाएँ। ओटीटी और यूट्यूब का समूचा संसार आपके सामने मनोंरजन की सारी खिड़किया खोलकर बैठा हो और आप तय न कर पाएं कि आपको क्या देखना है।

दुनिया भर का गीत-संगीत चंद क्लिक पर हो लेकिन आपसे कुछ सुना न जाए।

आपका मस्तिष्क विचारों के धागों में ऐसा उलझा हो, जिसका कोई सिरा दूर-दूर तक नज़र न आए। समझ न आए कि क्या देखें या क्या छोड़ें…?

आजकल ऐसा होना कोई बड़ी दुर्लभ सी घटना नही है। दिन भर हाथ में मोबाइल और शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन शैली ने इसे आम बना दिया है।

आज इस दुर्घटना का दुःख कम करने के लिए दिन भर नोटिफिकेशन चेक हो रहे हैं..मेल देखा जा रहा है। रील पर रील और शॉर्ट्स पर शॉर्ट्स देखे जा रहे हैं कि कुछ तो नया मिले।

कहीं कोई क्रिएटर अच्छी पकवान बनाना सीखा रहा है। कोई घर को सजाने के हजार तरकीबें लिए बैठा है।

राजनीति, क्रिकेट और सिनेमा की चिल्ल-पों के अलावा सुंदर दिखने, धन कमाने,नाम कमाने, ज्ञानी बनने, धार्मिक बनने और लोकप्रिय होने के सारे सूत्र आपके सामने लेकर अलग-अलग किस्म के लोग दिन-रात नाँच रहे हैं।

मानों ये कोई सतरँगी बूफे चल रहा हो लेकिन खाने वाले का मन उचट सा गया हो। उसकी उंगलियां लगातार स्क्रॉलिंग करती जा रही हों और वक्त के साथ उसकी बैचेनी बढ़ती जा रही हो।

मुझे कई बार लगता है कि इस स्टेज तक आ जाने पर दो बातें हो सकती हैं। या तो आप अनजाने में अवसाद में जा सकते हैं या इस रोग के कारणों की पहचान करके आत्मसुधार कर सकते हैं।

मुझे लगता है, दूसरे कदम की तरफ कदम बढ़ाना ही असली समझदारी है।

क्योंकि दूसरी तरफ जाकर आप कारणों के तह में जाते हैं और देखते हैं कि दिन पर दिन बढ़ता स्क्रीन टाइम ही इस समस्या की असली जड़ है। रिल्स देखते समय हमारा ब्रेन जिस डोपामाइन को रिलीज करता है और हमें आनंद की अनुभूति होती है…उस रसायन का उत्पादन अब हद से ज्यादा हो चुका है।

आप लगातार घण्टो रील नहीं देख रहे बल्कि डिजिटल ड्रग्स ले रहे हैं।

और हमारा ब्रेन डोपामाइन क्रिएट करते-करते थक चुका है।

लेकिन सवाल है कि ये थकान कैसे मिटेगी ?

वैसे ही, जैसे दिन-रात लगातार कई साल मोबाइल चलाने के बाद उसे फार्मेट करने की जरूरत पड़ती है, मस्तिष्क को भी फार्मेट करने की जरुरत आन पड़ी है।

जैसे आप व्रत रहकर शरीर को आराम देते हैं, वैसे एक दिन मोबाइल से दूर रहकर मस्तिष्क को आराम दे दीजिए।

संयोग देखिये कि इन दिनों बॉडी डिटॉक्स के बाद बाज़ार में जिस शब्द की सबसे ज्यादा चर्चा सुनी जा रही है, वो है डोपामाइन डिटॉक्स।

किताबों की दुनिया में डोपमाइन पर केंद्रित दो किताबों का जिक्र खूब हो रहा है…द मालिक्यूल ऑफ़ मोर औऱ डोपामाइन डीटॉक्स..

डेनियल जेलडीन की किताब मालिक्यूल ऑफ मोर जहां बता रही है कि डोपामाइन हमारे अंदर होने वाली इच्छा में किस तरह की भूमिका निभाता है।

वहीं डोपामाइन डिटॉक्स का कहना है कि इस डोपामाइन की जमा पूंजी को व्यर्थ ख़र्च न करके ही हम अपने जीवन स्तर को सुधार सकतें हैं।

यहाँ किताब कौन पढ़ता है और पढ़ेगा ये तो पता नहीं। लेकिन ऐसे जरूरी विषय पर हिंदी में किताब तो छोड़ दीजिए… ढंग का एक लेख भी नहीं मिलता।

इधर सरकार बनाने-बिगाड़ने में व्यस्त लेखकों को भी क्या पता कि बॉडी डिटॉक्स करते करते आदमी पांच साल के अंदर डोपामाइन डीटॉक्स करने लगेगा।

लेकिन लोगों के हालात और अधीरता को देखते हुए ऐसा ही लगता है कि हमारा ब्रेन इस डिजिटल संसार की नीली दुनिया में किसी आपदा की भेंट चढ़ चुका है।

हम नहीं जानते कि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं…जी रहे हैं, खा रहे हैं, पी रहे हैं..उससे कहीं ज्यादा बड़ी दुनिया हर आदमी के भीतर चल रही है।

एक वादी स्वर है…जो अन्तस् में बज रहा है। वो जब अंदर बजता है तब बाहर की दुनिया सुंदर दिखाई देने लगती है। आप सुबह उठते हैं…देखते हैं, कहीं फूल खिले हैं..आसमान कहीं पहले से ज्यादा नीला है। कहीं पक्षी उड़े जा रहे हैं..एक नए आसमान की तलाश में..

कहीं बच्चे जा रहे हैं, पीठ पर भविष्य का बोझा लेकर..

गौरैया बोलती है..पड़ोसी हंसता है। गार्ड आपको देखकर मुस्कराता है। चाय वाला आपका नाम लेकर आपको चाय देता है..लीजिये अतुल जी चाय पीजिए।।

लेकिन उस पर जब डिजिटल कूड़ा जमा हो जाए तो फिर कुछ भी दिखाई नहीं देता..न ही सुनाई देता है। सिर्फ मोबाइल की स्क्रीन दिखाई देती है।

जानता हूँ….रिल्स हमारे समय का सत्य है। स्क्रॉलिंग दूसरा सत्य है। इंस्टाग्राम तो अब ऑटोस्क्रॉल का फीचर बीटा टेस्टिंग में डाल चुका है। अब आपको रील देखने के लिए उंगलियों को घिसने की भी जरूरत नही है।

उधर मनोरंजन की दुनिया एक-एक घण्टे की बड़ी-बड़ी वेबसीरीज के बदले माइक्रोड्रामा पर शिफ्ट होने वाली है।

तीस मिनट का नहीं तीन मिनट का एक एपिसोड देखिये। स्क्रॉल करते जाइये और देखते जाइये। चीन और कोरिया में ये फार्मेट धूम मचा रहा है..भारत में बस धमकने ही वाला है।

लब्बोलुआब ये है कि आपके डोपामाइन को अभी औऱ कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा। इससे पहले कि परीक्षा हो… सप्ताह में एक दिन का व्रत शुरू कर देना ठीक रहेगा।

अगर आप आज भी दो-चार दस घण्टे बिना मोबाइल के रह जाते हैं, तो आप मानसिक रूप से स्वस्थ हैं। अगर नहीं तो फिर व्रत की बहुत ज़रूरत है।

अतुल

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Published on August 18, 2025 06:42

January 19, 2025

एक गुमनाम आईआईटीयन

वो सुबह की ठंडी हवा की तरह यूँ ही टकरा जाते। कभी तुलसी घाट पर स्न्नान करते तो कभी विश्वनाथ गली के भेडियाधसान में पान खाते।

किसी सुबह हम देखते कि वो संकटमोचन में बंदरो को चना गुड़ खिला रहें हैं तो शाम को भदैनी की एक म्यूजिकल शॉप के अंदर बांसुरी बजा रहें हैं।

ललाट पर चंदन का एक छोटा सा टीका, बदन पर साधारण सा कुर्ता-पायजामा, कंधे पर झोला, पैरों में हवाई चप्पल और हाथों में किताबें।

उनको देखते ही लगता कि सत्यजीत रे की फिल्मों का कोई नायक है, जो कलकत्ता की गलियों से निकलकर बनारस की गलियों में उन अबूझ रहस्यों की तलाश कर रहा है, जो शायद उसे कभी नहीं मिलेंगी।

मुझे याद है..पहली बार वो कब टकराए थे।

शायद दो हजार ग्यारह का अप्रैल जा रहा था। घाट के पत्थर आग उगलने को बेताब बैठे थे। तब ऐसा लगता था कि ये छात्र जीवन भी बनारस के पत्थरों जैसा हो चुका है।

तब मैं उस ताप को कम करने के लिए दशाश्वमेध घाट की गंगा आरती में तबला बजाया करता था। रोज देखता कि एक शख़्स मेरे पास आकर धीरे से बैठ जाता है और पूरी आरती के दौरान किसी तपस्वी की भांति आंखें बंद किये न जाने किसका ध्यान करता रहता है।

एक बार इसी दौरान उन्होंने मेरा नाम पूछा था। फिर उसके बाद शुरू हो गई थी हाथ उठाकर महादेव कहने की वही प्राचीन बनारसी परम्परा।

बाद के कई सालों में वो मुझसे जब भी मिलते, जहां भी मिलते, अभिवादन के नाम पर उधर से वो हाथ उठा देते, इधर से मैं। कहीं धीरे से मुंह से निकल जाता, महादेव।

कभी-कभी ये अभिवादन दिन में कई बार हो जाता। जिस दिन ज्यादा हो जाता, उस दिन इधर से मैं भी हंस देता, उधर से वो भी हंस देते।

इससे ज़्यादा न मैनें उनसे बात करने में कभी रुचि दिखाई, न ही कभी उन्होंने।

मेरा इस दर्शन पर गहरा विश्वास था कि प्रेम की भाषा मौन है। इससे ज्यादा बोलने की ज़रूरत भी क्या है।

लेकिन उनके हाथों में क़िताबों की विविधता देखकर उनको जानने की तीव्र इच्छा होती कि आख़िर ये आदमी करता क्या है ?

लेकिन तब अपने जीवन की किताब के पन्ने इस कदर वक्त को कैद कर चुके थे कि दूसरे किसी को जानने का वक्त न मिल सका।

ये सिलसिला करीब सात-आठ साल चला।

एक सुबह की बात है। मैनें देखा वही व्यक्ति अस्सी घाट की एक चाय की दुकान पर हाथों में कलम लेकर एक चेक को बार-बार उलट-पलट रहा है। इधर से उधर…कभी किसी को फोन लगा रहा है, कभी आसमान की तरफ़ देख रहा है।

उनके शांत व्यक्तित्व में एक अजीब किस्म की बेचैनी सी दिख रही है। दाढ़ी बड़ी हो चली है। ऐसा लगता है कि उनकी तबियत ठीक नही है। अचानक से वो कुछ ज्यादा ही बूढ़े लगने लगें हैं।

मैंने उनकी तरफ हाथ उठाकर अभिवादन किया, वो मुस्कराए। और फिर चाय वाले के पास चला गया। देख रहा वहीं मेरे एक मित्र शास्त्री जी खड़े हैं..जो एक संस्कृत विद्यालय में कर्मकांड पढ़ते भी थे और छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाते भी थे।

किसी जमाने में गर्मी की छुट्टियों में हॉस्टल बन्द हो जाने के बाद एक महीने के लिए मैं उनका रूम पार्टनर रहा था। मुझे देखते ही पूछा, “भैया, आप इनको कैसे जानते हैं ?”

मैंने कहा, “नही जानता…कौन हैं। “

वो हँसने लगे.. “का मजाक कर रहें हैं?”

मैंने कहा, “भाई कसम से, नहीं जानता कौन हैं, बस आते-जाते महादेव हो जाता है।”

उन्होंने बताया…ये आईआईटीयन हैं। देश के बड़े-बड़े साइंस प्रॉजेक्ट को लीड किया है। रिटायर्ड हो गए हैं..”

मैंने पूछा, “तब काहें यहाँ भटक रहे हैं, दिन भर ..?”

उन्होंने बताया बनारस में जितने संस्कृत विद्यालय और भोजनालय चलते हैं, सबमें गुप्त दान करते हैं। आपके हॉस्टल के पीछे जो विद्यालय चल रहा है न, उन बच्चों के लिए आज दान कर रहे हैं, अभी उसी के प्राचार्य का इंतज़ार कर रहें हैं।”

मैंने आश्चर्य भरे लहजे में कहा, ये दान करते हैं, इनको तो खुद दान की जरूरत है ?

उन्होंने कहा,”जी, इनकी ट्रेन है हरिद्वार की। चाहते हैं, दान दे दें तब जाएं।”

मैंने गौर से देखा, वो मेरी तरफ देखकर मुस्करा रहे थे। उनके हाथ कांप रहे थे। वो सच में बूढ़े हो चले थे।

आखिरकार धीरे-धीरे पता चल ही गया कि वो आदमी अपने जीवन की सारी कमाई बनारस के संस्कृत विद्यालयों और भोजनालयों में दान कर चुका है।

इतना जानकर उनके बारे में एक अगाध श्रद्धा उतपन्न हुई। मुख से सहसा निकल गया था, साधु-साधु।

बाद के दिनों में उनसे कई बार बात भी की लेकिन उन्होंने न ही अपने आईआईटीयन होने का ढोल पीटा, न ही बहुत धनवान होने का। अगर मैं कुछ पूछता तो वो बात बदल देते और मेरे ही बारे में पूछने लगते।

लेकिन पुण्य के कार्य उस फूल के सुगंध की तरह होते हैं, जिनको फैलने से कोई रोक नही सकता।

दो हजार अठारह के दौरान मैनें एक बार प्रयास किया कि उनके बारे में लिखूं..लेकिन उन्होंने कहा, नही राव साहब, इन सब चीजों की कोई इच्छा नहीं।”

मै जब भी उनसे सवाल करता वो उठकर चल देते, “चलते हैं राव साहब।”

मैं करेक्ट करता, राव नही सर, राय…

वो हंसते और फिर बनारस की भीड़ में विलीन हो जाते।

आज जब कुंभ मेला में एक आईआईटीयन बाबा के पीछे पूरे देश की मीडिया लगी है। धार्मिक रूप से निरक्षर पत्रकारों ने आईआईटी के नाम पर उनका उठना-बैठना, खाना-पीना मुहाल कर रखा है।

तब मुझे पंद्रह साल पहले मिले उस दानवीर गुमनाम आईआईटियन की याद आ रही है, जो हर साल संस्कृत की शिक्षा के लिए, तीर्थयात्रियों और विद्यार्थियों के भोजन के लिए गुप्त दान देता और देखते ही देखते बनारस की गलियों में विलीन हो जाता।

आज से कुछ साल पहले पैदा हुए यूट्यूबरों, जियो आने के बाद बुद्धिजीवी बने मूर्ख पत्रकारों और एक्स पर उपस्थित कीपैड क्रांतिकारियों को पता होना चाहिए कि जितने साधु और महापुरुष भगवा चोला ओढ़कर कुम्भ में धूनी रमा रहे हैं।

उससे ज्यादा साधु सड़को पर चुपचाप धर्म और मनुष्यता के लिए अपना सर्वस्व दानकर बनारस की किन्ही गलियों में विलीन हो चुके हैं।

इनको न अपने जीवन में मठ और महामंडलेश्वर होने की अभीप्सा है और न ही अपने आप को लोकप्रिय बनाने की लालसा।

ये साधु कुम्भ में दिख भी गए, तो न कोई पत्रकार खोज पाएगा न ही यूट्यूबर।

आज धर्म की जय हो कि समूची धूरी जितना कुंभ के साधुओं पर टिकी है, उससे कहीं ज्यादा इन गुमनाम धुरंधरों पर टिकी है।

अतुल

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Published on January 19, 2025 07:20

January 11, 2025

पॉडकास्ट कथा

2007-8 के दौरान जब आइपॉड और ब्रॉडकास्ट से मिलकर पॉडकास्ट जैसा नया-नवेला शब्द दुनिया में पैदा हो रहा था, तब किसी को अंदाजा नहीं था कि पॉडकास्ट की लोकप्रियता उस समय एकाएक बढ़ जाएगी, जब पूरी दुनिया अटेंशन स्पैन की कमी से जूझ रही होगी।

ये भी अजीबोगरीब विरोधाभास है कि जहाँ एक तरफ़ डिजिटल दुनिया पन्द्रह सेकेंड में अपना डोपामाइन बढ़ाने के लिए दिन-रात स्क्रीन को घसीट रही है। ठीक उसी समय दो-दो घण्टे के पॉडकास्ट भी खूब चाव से देखे जा रहे हैं।

हालात ऐसी है कि जिसे देखिये वही दो माइक और थोड़ी सी सिनैमैटिक लाइटिंग के साथ पॉडकास्ट करना शुरू कर चुका है।

ऐसा करने वालों में आज हर फिल्ड के बड़े सेलिब्रेटी भी शामिल हैं तो नेता और अभिनेता भी हैं। गांव-कस्बों की झोपड़ पट्टी में रहने वाले लोग हैं, तो प्रीमियम घरों में रहने वाली प्रिविलेज्ड जमात भी शामिल है।

इस भरपूर साम्यवादी माहौल में आज फिल्मों का प्रमोशन हो या गानों का प्रचार। चुनाव लड़ना हो या ब्रांड का प्रमोशन करना हो। पॉडकास्ट में जाना मंदिर और दरगाह जाने से कहीं ज्यादा ज़रूरी हो चुका है।

मुझे याद आता है 2018 का वो समय।

जब स्टायलिश कैसे दिखें, आसानी से लड़की कैसे पटाएं। रैंडम लड़की से कैसे चैट करें और बॉडी बनाकर भौजाइयों को इम्प्रेस करें टाइप अद्भुत विषयों पर ज्ञान झाड़ने वाले यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया ने अचानक ये ज्ञान देना बंद करके फूलटाइम पॉडकास्ट करना शुरू कर दिया था।

तब यूट्यूबरों की दुनिया में ये हड़कम्प मच गया था कि यूट्यूब एड रेवेन्यू, ब्रांड प्रमोशन, एफलिएट मार्केटिंग से लाखों छापने वाले रणवीर ने अचानक अपना गेयर क्यों शिफ़्ट कर दिया ? आखिर कौन देखेगा इतना लंबा इंटरव्यू ?

लेकिन असली क्रिएटर वही है, जो आने वाले समय की नब्ज़ पकड़ ले। तब डिजिटल कंटेट क्रिएशन की दुनिया करवट ले रही थी। रणवीर,समदीश और राज शमानी जैसे कई क्रियेटर्स ने उस समय वक्त की चाल को ठीक से पहचान लिया था।

परिणाम ये हुआ है कि आज पांच-सात साल में पूरी दुनिया पॉडकास्टमय हो चुकी है। रिक्शा चलाने वाले से लेकर हवाई जहाज चलाने वालों तक के पॉडकास्ट हैं। पोर्न बनाने वालों और मिठाई बनाने वालों तक के मिलियन व्यूज वाले पॉडकास्ट हैं।

पॉडकास्ट में जहां आपको खुले में सुसु करना पसंद है ? जैसे प्रश्न के साहित्यिक उत्तर दिए जा रहे हैं तो रणबीर इलाहाबादिया ने भी आपको मरने से डर लगता है जैसे प्रश्नों से ऊपर उठकर अक्षय कुमार से पूछ दिया है कि आपने किसी को पेला है ?

लब्बोलुआब ये है कि पॉडकास्ट एक घण्टे में उग जाने वाला वो वट वृक्ष बन चुका है, जिसकी हर डाल से क्रियेटर्स के ऊपर पैसा बरस रहा है।

आज एक पॉडकास्ट पर यूट्यूब न सिर्फ साधारण वीडियोज से ज्यादा आरपीएम देता है। बल्कि एक पॉडकास्ट से इंस्टाग्राम के सैकड़ों रिल्स बन जाते हैं, दर्जन भर वायरल वीडियो निकल आते हैं।

वही पॉडकास्ट न सिर्फ यूटयूब प देखा सुना जाता है बल्कि स्पॉटीफाई, एप्पल म्यूजिक, अमेजन म्यूजिक, सावन, गाना, जैसे तमाम ऑडियो स्ट्रीमिंग एप्स पर भी सुनाई देता है और वहां से भी पैसे कमाता है।

आज इमेज बिल्डिंग के लिए कुछ पीआर कम्पनियां सेलिब्रिटीज और ब्रांड्स से पैसे देकर पॉडकास्ट करवा रहीं हैं।

तो वहीं बीते दिनों तमाम यूट्यूबरों ने ये आरोप लगाया कि आदिवासी तेल बनाने वालों ने रणवीर इलाहाबादिया को एक पॉडकास्ट के साठ से सत्तर लाख रुपये दिए हैं। बाल उगाने की दवा बनाने वाले ट्राया से रणवीर ने करोड़ों लिया है और लोगों को ठगा है।

परसो ये कहा गया कि दिल्ली विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही केजरीवाल जी ने राज शमानी को पचपन लाख देकर पॉडकास्ट किया है, जिसका थंबनेल है…आई एम नॉट करप्ट

लेकिन इन सब बौद्धिक बकलोलियों को हटा दिया जाए तो कल का दिन पॉडकास्ट की दुनिया का क्रांतिकारी दिन था।

कल कोई कंटेंट क्रिएटर नहीं बल्कि देश के युवा अरबपति निखिल कामत पीएम मोदी का पॉडकास्ट करने वाले थे।

अब शेयर बाज़ार में रुचि रखने वाला शायद ही कोई आदमी होगा जो जिरोधा और उसके फाउंडर निखिल कामत को नही जानता होगा।

जैसे-जैसे भारत का शेयर बाज़ार मारवाड़ी और गुजराती समुदाय से छिटकर भारत के गाँव-गिराव तक चला गया है…वैसे-वैसे निखिल कामत एक सफल उद्यमी बनते गए हैं।

फ़ोर्ब्स ने उनको सबसे युवा अरबपतियों की लिस्ट में शामिल किया है। एंटरप्रेन्योरशिप के बाद निखिल अपना एक पॉडकास्ट चैनल भी चलाते हैं..जिस पर अब तक बिल गेट्स, कुमार बिरला, नंदन नीलकेणी और रणवीर कपूर जैसे दिग्गज आ चुके हैं।

उसी कड़ी में कल पीएम मोदी उस पर आने वाले थे। जनता को इंतज़ार था कि पॉडकास्ट की सबसे बड़ी usp यानी गेस्ट और होस्ट का आज भेद मिट जाएगा। यहां कुछ मौलिक बातें होंगी, जो इससे पहले न कभी बताई गई हैं, न ही कहीं सुनाई गई हैं।

लेकिन परिणाम, वही दो घण्टे में चले ढ़ाई कोस और ढाक के तीन पात से ज्यादा कुछ न रहा।

“मैं भगवान नहीं हूं…मुझे आज कोई तू कहने वाला नहीं रहा। दोस्तों को मैं दोस्त नही प्रधानमंत्री नज़र आता हूँ। और इटली की पीएम मेलोनी वाली मीम तो सब देखता हूँ जी। जैसी तीन-चार मौलिक बातों को छोड़कर कुछ नया नही था।”

अक्षय कुमार द्वारा पूछित आप आम चूसकर खाते हैं, जैसे मौलिक प्रश्न भी नहीं थे। निखिल बार-बार चाय पीते हुए अपनी लिमिट्स को याद करते रहे।

और एंटरप्रेन्योर-एंटरप्रेन्योरशिप का जाप करते हुए उस गोल को अचीव करने में कामयाब रहे, जिसके लिए उन्होंने अरबपति बनने के बाद पॉडकास्ट करना शुरू किया है।

आखिरकार दो घण्टे बाद ये समझ आया कि पीएम मोदी को अपने तीसरे कार्यकाल में निखिल कामत की ज़रूरत नहीं बल्कि अब एक ऐसे पॉडकास्ट की ज़रूरत हैं,जहां वो अपनी सफलता की गाथा के साथ ये बताएं कि स्मार्ट सिटी और स्मार्ट विलेज जैसी उनकी दर्जनों योजनाएं कैसे फ्लॉप हुई ? बुलेट ट्रेन में इतनी देर क्यों हुई ?

दस साल बाद भी रेलवे में आमूलचूल परिवर्तन क्यों नहीं आया ? शिक्षा संस्थान बदहाल क्यों रह गए ? भारत की हर प्रतियोगी परीक्षा में बवाल क्यों हो रहा है ? मिडिल क्लॉस पर टैक्स की बारिश क्यों हो रही है ?

देखते ही देखते भारत का हर शहर गैस चेम्बर में कैसे तब्दील हो गया है ?

और आखिरी सवाल कि अपने मेहनत औऱ समर्पण के बल पर एक साधारण कार्यकर्ता से पीएम तक का सफर करने वाले पीएम मोदी को दिलीप सी मंडल जैसे अवसरवादी बुद्धिजीवियों की ज़रुरत क्यों आन पड़ी है ?

अतुल

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Published on January 11, 2025 03:45

December 2, 2024

लिट् फेस्ट से आहत कवि

कवि चिंगारी की खिड़की पर कविताओं का मौसम उतर आया था। पिछले एक हफ्ते में उन्होंने बयालीस कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं को भेजी थी। भेजने को तो वो पचास कविताएं और भेज सकते थे लेकिन फूल,पत्ती, गमला आलू,प्याज और मूली जैसी मामूली कविताएँ लिखकर उनका मन उकता चुका था।

अफ़सोस एक कवि का कविता से उकता जाना हमारे यहाँ अभी विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाया है। इसलिए चिंगारी जी सामने लॉन में लगे गमलों में ऊग आए कुछ फूलों को निहार रहे थे। तभी उनकी नजर एक पोस्टर पर चली गई। एक बिजली के खम्भे पर लगा पोस्टर शहर में होने वाले आगामी राष्ट्रीय साहित्यिक समारोह की सूचना दे रहा था।

चिंगारी जी की देह में साहित्यिक करेंट दौड़ गया। उन्होंने देखा उनके ही शहर में तमाम साहित्यिक दिग्गज आ रहे हैं। कुछ कवि तो ऐसे हैं, जो उनके अनुसार कभी उनके शिष्य हुआ करते थे…

लेकिन कुछ का नाम तो उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास में आज तक कभी नहीं पढ़ा है। चिंगारी जी ने चश्मा थोड़ा उपर किया। अचानक पोस्टर पर एक छायावादी कवियत्री के दर्शन हुए.. जिसने इन दिनों कविता में कपड़ो के साथ लगातार प्रयोग करके साहित्यिक जगत में हलचल मचाई हुई है।

चिंगारी जी एकटक उस पोस्टर को निहारते रहे। उनका चेहरा रुआसां हो गया…एक झटके में उठे, दीवाल पर लगे अपने तमाम साहित्यिक पुरस्कारों और मानद अलंकरणों को देखा…ऐसा लगा मानों वो सब रो रहें हों…वो गुलजारी देवी न्यास द्वारा मिला कविता भूषण सम्मान हो या बनवारी लाल न्यास द्वारा मिला कवि कुलभूषण सम्मान सब लानतें भेज रहे हो…तुम कैसे कवि हो कि अपने ही शहर में बिसरा दिये गए…क्या आयोजक नहीं जानते कि एक राष्ट्रीय कवि उनके ही शहर में रहता है।

दुःखी चिंगारी जी ने अपने सम्मान पत्रों से नजरें हटा ली। और अपने वार्डरोब की तरफ़ निहारने लगे। 

सामने कुर्ता-पायजामा और वो खादी की सिलवाई नई सदरी नया झोला, सब मिलकर चीख उठे हे कवि महोदय ये मौसम खिड़की पर बैठकर फूलों को देखते हुए छायावादी चिंतन करने का नही है..ये तो साहित्यिक आयोजनों का समय है… सारे साहित्यकार निमंत्रित हैं। हर शहर का अपना एक लिट् फेस्ट हो रहा है। प्रभु आप कब तक चलेंगे ? कब यहाँ से निकलेंगे…

उन्होंने देखा आलमारी में टँगा वो सफेद गमछा जो उन्हें बिससेर प्रसाद साहित्यिक सम्मान के साथ मिला था, वो भी पूछने लगा, हे कवि तुम्हरी कविताओं की धार में कौन सी कमी है जो किसी साहित्यिक सम्मलेन की धारा में फीट नही बैठ रही है।

चिंगारी जी को चिंता सताने लगी, सांस तेज होने लगी। अगले कुछ मिनटों में वो अपनी कलम से अपने माथे को खुरेचा और सोचने लगे कि बात तो सही है..राष्ट्रीय स्तर के चार पुरस्कार लेने के बाद भी उनकी कविताऍं किसी साहित्य उत्सव का हिस्सा क्यों नहीं बन पाई हैं ? क्या ये हिंदी के छात्रों के लिए शोध का विषय नही है ?

पति की हालत देख श्रीमती चिंगारी जी से रहा न गया। उन्होंने किचन में आलू छिलते हुए कहा, सिर्फ हमसे मुंह चलाएंगे, हमसे कहेंगे कि तुम का जानती हो कि हम कितने के बड़े कवि हैं, अब जाइये आयोजकों से बताइये कि हम कितने बड़े कवि हैं। इतने बड़े कवि हैं कि अपने ही शहर में बुलाए नहीं गए।

पत्नी को वीरगाथा काल की कविता प्रस्तुत करता देख चिंगारी जी रहा न गया..वो घर से बाहर निकल आए..

घर की सामने वाली गली पर एक चाय वाला चाय बेच रहा था और कुछ पढ़ रहा था…दो-चार लड़के उसे रिकॉर्ड कर रहे थे। कवि चिंगारी ने एक चाय और एक सिगरेट मांगा और उस चायवादी कवि को देखने लगे, उनकी समझ में नहीं आया ये कवि अजीबोगरीब तरीके से मुंह बनाकर चाय पर कविता क्यों पढ़ रहा है ?

एक कैमरामैन ने चिंगारी जी को पहचान लिया और बोला, कवि महोदय, यही ट्रेंड में है आजकल। मुझे पता है आप क्यों नहीं बुलाए गए। इसमें आपका दोष नहीं है। दोष आपकी कविताओं का है। आजकल कवि वही है, जिस पर रील बने..या जिसकी कविता पर रील बने। आजकल कवि को कविता करने से पहले इंफ्लुएंसर बनना पड़ता है, तब जाकर उसे किसी साहित्यिक समारोह का हिस्सा बनने का मौका मिलता है। 

आपसे तो मैं आज तक इंफ्लुएंस नहीं हो पाया, साहित्यिक दुनिया क्या खाक होगी ? अरे कवि नहीं इम्फ्लुएंसर बनिये।

एक ओपन माइक में पढ़ी जाए ऐसी कविता शूट करवाइए मात्रा पांच हज़ार में। ऑफर कल तक का है। इतने जागरूक कैमरामैन को देखते ही चिंगारी जी से रहा न गया। झट से कहा, “ठीक है, मेरी भी चार-पांच रील बना दो,लेकिन थोड़ा फील के साथ..!”

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Published on December 02, 2024 01:05

November 23, 2024

नायिका का मन बदलने वाली सड़क

दोपहर की तल्ख धूप है और हवा तेज। नायिका के चेहरे से गिरता पसीना सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली सारी कम्पनियों को मुंह चिढ़ा रहा है।

फलस्वरूप नायिका की जान लेबनान में परिवर्तित होने ही वाली होती है कि नायक उसका हाथ थामकर धीरे से कहता है, “बस, थोड़ी दूर और.. उसके बाद सड़क एकदम ठीक हो जाएगी।”

हम देख रहें हैं…जिधर तक नजर जाती है..समूची सड़क टूटकर उबड़खाबड़ हो चुकी है। हर एक मीटर पर बड़े-बड़े गड्ढे सिस्टम की लापरवाही का रोना रो रहें हैं।

ऐसा लगता है कि इस सड़क को बनाने लायक नही समझा गया है। या फिर विधायक जी से कमीशन को लेकर आज ही ठेकेदार का झगड़ा हो गया है।

या पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर ने अपने हिस्से के अभाव में बजट पास नही किया है। या फिर कोलतार का उत्पादन ठप्प है ,सारे मजदूर हड़ताल पर हैं या फिर किसी यू टयूब के क्रांतिकारी पत्रकार से ये सड़क अछूती रह गई है।

जो भी हो..नायिका इस दुर्गम, दुरूह,दुष्कर सड़क पर दुपट्टे से पसीने को पोछती, हाथ में भक्तिकालीन साहित्य की किताबें लेकर बड़े ही निरपेक्ष भाव से चलती जा रही है औऱ नायक को देखती जा रही है।

नायक इस दुर्गम रस्ते पर अपनी पंचर मोटरसाइकिल घसीटता जा रहा है…घसीटने के चक्कर में उसकी पूरी शर्ट भीग चुकी है। मोटरसाइकिल ज्यों ही थोड़ा आगे बढ़ती है, लोक निर्माण विभाग का पत्थर उसका रस्ता रोक देता है और पूछ देता है, ऐसे कैसे आगे चले जावोगे बेटा ?

ये दृश्य देखकर नायिका का ह्र्दय द्रवित हो उठता है…तुरंत अपनी किताबों को हाथों में समेटे मोटरसाइकिल को पीछे से धक्का लगाकर सच्चे प्रेमी होने का फर्ज अदा करती है..लेकिन फिर एक पत्थर आ जाता है और मोटरसाइकिल के रिंग में फंस जाता है..नायक झल्लाकर कहता है, “तुम रहने दो…तुमसे न होगा, तुम बस झगड़ा ही कर सकती हो।”

इतना सुनते ही नायिका का मुंह लाल हो जाता है। वहीं रुक जाती है। नायक नायिका की तरफ घूरते हुए मोटरसाइकिल को पत्थरों के बीच से निकालता है औऱ मनुहार करता है, अब चलोगी भी ? 

सच कहूं तो रहीमदास होते तो इस दृश्य को देखकर चार डिजिटल आंसू बहा देते और अपना व्हाट्सएप स्टेटस अपडेट करते हुए लिखते..

’प्रेम पंथ ऐसो कठिन सब कोऊ निबहत नाहीं,

रहिमन मैन-तुरंग चढ़ी,चलिबो पावक माहीं’ 

लेकिन रहीमदास जी को भी क्या ही पता कि आज इस आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के जमाने में मोम के घोड़े पर चढ़कर आग में चलना आसान हो चुका है लेकिन विधायक,मंत्री और ठीकेदारों की कृपा से कुछ ऐसी कटीली,पथरीली राहें आज भी हर शहर में जिंदा हैं, जिन पर चलना आग पर चलने से भी ज़्यादा मुश्किल काम है।

इधर नायक का संघर्ष देखकर नायिका का ह्रदय द्रवित होकर कोलतार हो चुका है। अचानक प्रेम पर पढ़ी सारी सारी कविताएं एक-एक करके हवाओं में बहनें लगीं हैं।

मन प्रेम की सपनीली पुकार सुनने को व्याकुल हो रहा है..सोचती है, कितना मेहनती और धैर्यवान प्रेमी पाया है उसने..जी में आता है, इसे कहीं छिपाकर रख दे।

वो इस दुर्गम रस्ते को धन्यवाद देती है। नेशनल हाइवे पर तो हर प्रेमी चल सकता है…असली प्रेमी वो है जो इस पथरीली राह पर चलकर दिखा दे..नायिका दो-चार सेल्फियां लेती है..एक रील भी बनाती है।

ऐसा लगता है अचानक उसे बुद्धत्व की प्राप्ति हो चुकी हो। नायक भी मन ही मन मुस्कराता है…मुश्किल से सौ मीटर ही बचे हैं…आगे सड़क ठीक मालूम पड़ती है…नायिका अपनी सांसों को रोककर तुरंत पूछती है..”विधायक जी तुमको टेंडर दे रहे है न ? 

विधायक जी का नाम सुनते ही मोटरसाइकिल और पत्थरों के द्वंद्व में जूझता नायक किसी दलबदलू प्रत्याशी जैसा जोश में आ जाता है,”बीए से लेकर एमए तक पूरे पांच साल उनके स्कार्पियो में पीछे बैठकर घूमे हैं, हमको ठेका नही देंगे तो किसको देंगे ?”

नायिका नायक के इस आत्मविश्वास को देखकर मन ही मन मुग्ध होती है। “ठेका हो जाएगा तब तुम पापा से बात करोगे मेरे लिए..?” नायक मुस्कराता है..बिल्कुल करूँगा।

नायिका समझ नही पा रही आगे क्या कहे…थोड़ी देर बाद कहती है…”ठेका मिल जाएगा तो सड़क अच्छी बनाना..थोड़ा कम करप्शन करोगे तो भी मैं तुम्हारे साथ राजी-खुशी रह लूंगी.. “नायक मुस्कराता है, “तुम बेवकूफ हो..आधा से अधिक पैसा तो कमीशन में चला जाता है। आधे पैसे में अच्छी सड़क बनाऊंगा तो पैसे कैसे कमाऊंगा…अभी शादी बाद तुमको बाली भी तो घुमाना है।”

नायिका सोच में पड़ जाती है…मोबाइल का नोटिफिकेशन देखती है. देखते ही देखते बाली की हसीं वादियां उसकी इंस्टाग्राम फीड में नांचने लगती हैं। तब तक टूटी सड़क की सीमा समाप्त हो जाती है, दोनों एक आरसीसी रोड पर आ जाते हैं..नायिका का मन बदलता है.. धीरे से हाथ पकड़कर बोलती ठीक है बाबू ..पहले तुम पैसे कमाओ,पैसा बहुत ज़रूरी है।।

( दैनिक जागरण में प्रकाशित व्यंग्य )

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Published on November 23, 2024 22:31

November 20, 2024

आखिर शक्तिमान ने मान ली हमारी बात…!

पहले शाकालाका बूम-बूम की पेंसिल से टीवी बनाने की लाख कोशिश कर चुके थे। शक्तिमान से भी कहा था कि क्या वो एक टीवी नही दे सकता। और चूंकि उस उम्र में गांव के लोकल देवताओं पर ज्यादा भरोसा नहीं था लेकिन उनसे भी तमाम मनौतियाँ की गई थीं कि हे मशान बाबा, एक टीवी का आशीर्वाद देने से आप छोटे नहीं हो जाएंगे। मोहल्ले में सबके घर तो है, बस हमारे घर टीवी न होने के कारण हमें बहुत कष्ट झेलना पड़ रहा है।

आखिरकार मसान बाबा ने सुन लिया और घर वालों ने एक सुबह घोषणा कर दिया कि चाहें हिमालय में आग लगे या बंगाल की खाड़ी में पत्थर परे। आज तो टीवी आकर रहेगी।

देखते-देखते ही ये ब्रेकिंग न्यूज पूरे गाँव भर में फैल गई। हमारे चेहरे पर रंगोली और चित्रहार दोनों एक साथ उभर आए..घर वालों ने कहा, आज स्कूल मत जावो। पापा के साथ एक आदमी एक्स्ट्रा तो चाहिए न।

उस दिन सुबह नहा धोकर हम तैयार थे। इतना उत्साह और उमंग तो हमें सिर्फ मेला देखने के नाम पर ही आता था।

अंततः टीवी की दुकान आ गई…एक घण्टे की माथापच्ची के बाद ब्रांड और साइज दोनों डिसाइड हो गया। दुकानदार ने गारंटी कार्ड बढ़ाया। और अंततः हमें एक छोटे से कॉटन बॉक्स के दर्शन हुए.. पता चला कि इसको रिक्शे से घर तक ले जाने की सारी जिम्मेदारी मेरी है।

रिक्शे पर टीवी जी को रखा गया। हम एंटीना और तार लेकर इस अंदाज में बैठे मानों सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से कोई मिसाइल लांच करने जा रहे हों..रस्ते में जो दिखता, उसके पूछने से पहले ही बता देते, टीवी है जी…!

आख़िरकार रिक्शा ने गांव में प्रवेश किया। घर की दहलीज आ गई। मोहल्ले के सारे लोग अपने-अपने दरवाजे पर.. उस दिन रिक्शे से उतरकर लगा कि हम टीवी लेकर नहीं बहुत सारी इज्जत औऱ प्रतिष्ठा लेकर लौटे हैं। और दुनिया से हम कह सकते हैं कि देखो, हम बराबर हैं, बिल्कुल बराबर।

अब हमारे पास इतनी ताकत है कि हम कृषि दर्शन को भी रंगोली समझकर देख सकते हैं। हमारे लिए खेतों में गोबर का छिड़काव और मोरा जियरा डरने लगा,धक धक करने लगा जैसे गाने में कोई अंतर नही है। क्योंकि आज से इस टीवी का स्विच हमारे हाथों में है।

अंततः टीवी जी को एक मेज पर रखा गया। शुभ काम से पहले अगरबती दिखाओ जी। फिर तो मेज पर पड़ी धूल को अपनी स्कूल ड्रेस से साफ किया और बिना नहाए-धोए अगरबत्ती जलाकर तैतीस कोटि के देवताओं का स्मरण किया कि हे प्रभु अब आप ही इस टीवी की रक्षा करना।

लेकिन तब शायद शुभ मुहूर्त नही था। दादी ने कहा भी था कि टीवी पर सबसे पहले जय हनुमान चलेगा…सिनेमा नही चलेगा। शुभ काम भगवान से शुरू होना चाहिए।

हमने कहा, नही, आज तो शुक्रवार है, आज तो फ़िल्म आएगी, आज ही टीवी चलेगा। इतना सुनते ही अचानक बिजली चली गई। मन का आंगन अंधेरे से भर गया। सारा चित्रहार झिलमिला उठा। दादी ने कहा, देखो, हम कहे थे न कि मत चलाओ आज..अब लो।

दिल के कोने में दबी सारी चीखें बाहर आने को हो आई। हाय रे बिजली तूने ये क्या किया।

बगल के एक चाचाजी से देखा न गया…उन्होंने कहा,”कोई बात नहीं..हम बैटरी लाते हैं..टीवी तो आज ही चलेगा।

आखिरकार बैट्री आ गई। टीवी के झिलमिलाने और खसखसाने का एक मधुर नाद वातावरण में गुंजायमान हो उठा। सबके मुरझाए चेहरे पर रात रानी के फूलों सी रौंनक उतर आई..

और एंटीना हिलाते-हिलाते ये पता चला कि टीवी पर तो बाज़ीगर आ रही है। जो हारके जीत जाए, उसे बाजीगर कहतें हैं। उस रात हम भी तो हारके जीते थे। रात भर टीवी के सामने हम बाजीगर बनकर बैठे ही रह गए।

सुबह उनीदी आंखों से उठे। माताजी ने कहा आज तो स्कूल है, स्कूल जावो। दादी ने कहा, जाने दो, इसे नींद आ रही। सो जावो, मंडे को जाना।

हमारे तो मजे ही हो गए। शनिवार से लेकर पूरे रविवार के हर प्रोग्राम हमने तब तक देखा, जब तक बाबा ने आकर ये न कह दिया कि टीवी को थोड़ा आराम कर दो, देखो तो एकदम हीटर के माफ़िक गर्म हो गया। जल भी सकता है।

हमने टीवी बन्द कर दिया। और सोमवार को सीना चौड़ाकर स्कूल पहुँच गए।

अब स्कूल में हम भी उन चंद छात्रों में से एक थे, जो रात को आने वाले टीवी सीरियल्स और फिल्मों की कहानियों के बारे में विशेषज्ञ होने का दावा करते थे। हमने भी सबको बाज़ीगर की कहानी बताई। बताया कि शनिवार को बेताब में क्या हुआ। रविवार शाम चार बजे से आने वाली फ़िल्म मासूम कितना मासूम था।

आमतौर पर टेलीविजन चर्चा में सबसे पीछे रहने वाले मुझ बालक को देखकर उस फील्ड के जानकारों में हड़कम्प मच गई। भाई आखिर ये मार्केट में टीवी का नया-नया एक्सपर्ट कबसे पैदा हो गया ? हमने शान से बताया, अब हमारे घर भी टीवी आ गया।

कुछ ही देर में असेंबली का समय आया। प्रिंसिपल ने कहा, क्लॉस फाइव वाले जो लोग शनिबार को स्कूल नही आए थे, खड़े हो जाएं। क्लॉस टीचर ने अपना एंटीना हमारी तरफ घूमा दिया। हमने खड़े होकर उस समय स्कूल न आने के सारे बहाने गिना दिए, जैसे भैस की तबियत खराब थी..बुआ मर गई हैं..मौसा हॉस्पिटल में हैं।

लेकिन चूंकि पिछ्ले हफ्ते बुआ को हम एक बार मार चुके थे, इसलिए इस बार फूफा को मारकर काम चलाना पड़ा तब तक एक लड़के ने उठकर कहा, नही सर, ये झूठ बोल रहा है, इसके घर टीवी आया है न ?

इसके बाद तो हमारी इतनी पिटाई हुई कि हम खुद दूरदर्शन बन गए और सारा स्कूल दर्शक।

आज स्मार्टफोन के दौर में पैदा होने वाली पीढ़ी भले न इसका महत्व न समझ सके। लेकिन इंस्टाग्राम की रिल्स स्क्रॉल करते हुए पच्चीस साल पहले एक टीवी के चक्कर में पीटे जाने का सुख याद करके मन रोमांचित सा हो जाता है।

हम जीवन के सबसे उबासी भरे समय में बार-बार उसी टेलीविजन के सामने जाकर बैठे, ये जानते हुए भी कि इसके सामने बैठकर हम वक्त से पहले बड़े हो जाएंगे।

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Published on November 20, 2024 21:52

July 1, 2024

नवकी बहुरिया का सिनेमा

आम के दिनों में सरेआम मार खाने का सुख याद करने बैठूं या आम के बगीचे में झूला झूलते हुए टहनी के टूट जाने का दुःख ? गिल्ली-डंडा के लिए मैदान खोजने की जद्दोहद याद करूँ या या बिना बिजली के शक्तिमान देखने के लिए प्रयोग में लाई गई अवैध शक्ति को याद करूँ ?

आंखों के सामने सतरंगी यादों का एक ऐसा सुंदर लैंडस्केप बनके उभरता है, जहां उजले आंसू भी मोती जान पड़तें हैं..जहां रोना भी संगीतमय लगता है। जहां खेलना भी ध्यान बन जाता है..जहां हंसना भी एक आध्यात्मिक अनुभव लगता है।

बात बस उन्हीं बचपन के दिनों से शुरू होती है। कक्षा पांचवीं पास करके हम छठवीं में जाने की तैयारी कर रहे थे। स्कूल खुलने में मुश्किल से दस-बारह दिन ही बचे थे। गर्मी इतनी थी कि छांव भी छाँव मांग रही थी। और पानी को भी प्यास लग रही थी। जानवर से लेकर आदमी और चिरई-चुरूंग तक सबकी हलक सुख रही थी। सुबह होते ही दोपहर हो रहा था और शाम होते ही ट्यूशन वाले सर आ जाते थे।

इधर बाग-बगीचे-फुलवारी में बड़े-बुजुर्गों का कब्जा हो चुका था……हम गलती से अगर बगीचे में चले जाते तो लोग ग्लोबल वार्मिंग को नहीं, हम बच्चों को गर्मी बढ़ने का सबसे बड़ा कारण माना जाता। फुलवारी से निकलकर अगर हम जवानों के पास जाते तो उनका लगता कि उनके प्रेम प्रसंग की खबर पूरे गांव में लीक करने के पीछे हमीं लोगों का हाथ है। वो भी हमें भगा देते।

इस दुर्दिन में हम कही के नही रहे थे। हमें ये एहसास हो चुका था कि धोबी के गधे भी हमसे मजे में जी रहे हैं। कम से कम वो घाट जाकर पानी में नहा तो सकते हैं..हम तो बिना आज्ञा के टयूबेल पर भी नही जा सकते हैं।

इस अति रंजित हालत में ले-देकर हमारे पास दूरदर्शन का ही सहारा था। वही हमारे लिए दवा था और वही हमारे लिए रोग भी। सुबह उठकर आम खाने के बाद टीवी के सामने बैठकर बिजली आने के लिए पूजा-पाठ शुरू करना पड़ता। एक आदमी की ड्यूटी एंटीना ठीक करने और उसे आंधी से बचाने के लिए लगाई जाती। उसे बताया जाता कि भाई एंटीना अगर हिल गया तो रंगोली को कृषि दर्शन बदलने में एक सेकेंड का भी देर नहीं होगा।

एक दिन पूरे गांव भर की बिजली हाफ हो चुकी थी। छत पर लटका पंखा मंद गति से खटर-पटर करता हुआ बता रहा था कि बच्चों अब क्या, अब तो एक हफ्ते में स्कूल खुलने वाला है। फटाफट तैयारी करो…

तब तक अचानक लो वोल्टेज की समस्या ठीक हो गई..हम टीवी की तरफ भगे…और टीवी खोलते ही हमारे सबसे प्यारे साथी दूरदर्शन ने एक धमाकेदार सूचना दी..बच्चों, इस रविवार को हम दिखाने जा रहें हैं..!

हम सबकी आंखें चौड़ी हो गई…क्या आ रहा है भाई ? हमने देखा, साक्षात शाहरूख खान टीवी स्क्रीन पर नांच रहें हैं…तनिक और ध्यान से देखा तो पता चला शाहरुख खान नहीं बाजीगर है। जो जीत के हार जाए उसे बाजीगर कहतें हैं।

क्या संडे को बाज़ीगर आ रही ? मझली भाभी जो अभी नईहर से दहेज में टीवी लेकर आईं थी, उन्होंने झट से पूछ दिया.

हमने कहा, हं यही तो दुःख की बात है भाभी कि बाजीगर आ रही है वरना हम सब तो सनी देओल की फ़िल्म का इंतज़ार कर रहे थे।

भाभी ने कहा, अरे तो हम न इंतज़ार कर रहे थे शाहरूख की फ़िल्म का। भगवान ने हमारी सुन ली है। अब आएगा मजा।

“आएं मजा आएगा ? “ अरे मजा तो आपको आएगा भाभी जी, हमें तो कक्तई नहीं आएगा।

“काहें, काहें नहीं आएगा मज़ा, एक नम्बर की फ़िल्म है, डीडीएलजी हमने चार बार देखा है। बाजीगर देखिये तो कैसे नहीं आता है मजा ?”

हमने भाभी से कहा, “ऐसा है भाभी जी, हम हैं बच्चे लोग। हमें ‘हे सिमरन’ कहने वाला शाहरूख उतना नहीं भाता, जितना ये ढाई किलो का हाथ वाला सनी देओल भाता है। आपको देखना है तो देखिये हम लोग अब जा रहें है।”

भाभी ने कहा, जल्दी निकलिए.. कमरा खाली करिये.. 

हम सब कमरे से बाइज्जत निकल तो आए लेकिन शाहरुख खान का दिल टूटने से पहले हमारा दिल टूट जाने की ये पहली घटना थी।

हाय रे! हमारे सनी देओल आपकी की ऐसी बेइज्जती..

हम चारों में से सबसे छोटे चंडाल बबलू नें खालिस नास्तिक होते हुए कहा..इसलिए हम भगवान-वगवान पर भरोसा नही करते। आज एक हफ्ते से मनौती कर रहे हैं कि हे प्रभु जिद्दी या घायल डीडी वन पर आ जाए.. लेकिन ये क्या आ गया…बाजीगर ? अब लो देखो..सारी औरतें घेरकर बैठ जाएंगी।

हम तीन आस्तिकों का मुंह श्रद्धा से नीचे गिर गया.. चलो तब, सांप-सीढ़ी खेल लेते हैं। का करेंगे। ये सन्डे भी बर्बाद चला गया।

बबलू ने कहा, है कोई जगह खेलने की ? चार बज रहा है। अब तो मान लो कि भगवान नही होते। इतना कहते ही आसमान में जोर की हवा उठी और गर्जना के साथ आसमान में खूब बड़ा प्रकाश फैल गया।

चंडाल चौकड़ी के चंदन ने कहा, लगता है, भगवान बुरा मान गए भाई..इसलिए कहता हूँ.. भगवान को उल्टा सीधा मत कहो..सुन लिए तुम्हारी बात, नाराज़ हो गए…आ गई आंधी और बारिश अब भुगतो…

देखते ही देखते बिजली कड़कने लगी..मूसलाधार बारिश…थोड़ी देर में पता चला कि गर्मी से राहत तो मिल गई है लेकिन गाँव का ट्रांसफार्मर फूंक गया..पन्द्रह दिन बिजली नहीं आएगी।

अब बड़ी समस्या है कि मन कैसे लगेगा जी ? अपनी तो किस्मत ही खराब है ? हमनें तो कैरम खेल लिया, कॉमिक्स पढ़ लिया। छत पर सांप-सीढ़ी खेलते खेलते सीढ़ी से गिरक़र पैर में चोट भी लगवा लिया… सन्डे को बाजीगर भी झेल ही लेते लेकिन ये ट्रासंफार्मर?

दोस्तों, ट्रांसफार्मर का फूंकना हमारे ऊपर हुआ सीजन का पहला वज्रपात था। चंडाल चौकड़ी के वरिष्ठ चंडाल अनुज बाबू उर्फ लोटन ने सकारात्मकता का संदेश देते हुए कहा, भाई, ट्रांसफॉर्मर फूक गया तो क्या…छुट्टी बेकार नहीं जाने दिया जाएगा…गुल्लक फोड़कर वीसीआर मंगाते हैं औऱ मनपंसद फ़िल्म देखते हैं। 

नई-नवेली भाभी जी ने हमारे इस प्रस्ताव का समर्थन किया और कहा कि अगर वीसीआर पर सबसे पहले बाज़ीगर चलेगी तो मैं आप लोगों को पचास रुपया दे सकती हूं।

“अच्छा, और देखेंगे कहाँ ? कहीं जगह बचा है जो देखेंगे..?”

भाभी ने कहा, यहीं, रात को आंगन में सारे लोग इकठा होकर देख लेंगे। बाबा-दादी भी आ जाएंगे।

प्रस्ताव तो सुंदर था। बड़ी सी रंगीन टीवी, ढ़ेर सारे फिल्मों के कैसेट्स.. वीसीआर..न बिजली जाने का झंझट और न ही दूरदर्शन पर प्रचार देखने की मजबूरी.. भाई वीसीआर मंगाते हैं, मजा ही आ जाएगा..

कहते हैं, हर राग में कुछ विकृत स्वर होते हैं…पिंटू जी ने भाभी के प्रस्ताव का असमर्थन करते हुए सरकार गिरा दिया और कहा…अगर वीसीआर आया तो सबसे पहले दिलवाले  घायल, बार्डर जीत और बेताब चलेगा वरना कुछ नहीं चलेगा।

भाभी ने अपनी जिद और बेताबी बढाते हुए कहा, तब वीसीआर नहीं आएगा, तुम लोग, जहां मन करे देखना है देखो..यहां पहले चलेगा तो सिर्फ बाज़ीगर…वरना बाबा से कहकर जय संतोषी मां लगवा दूँगी।

इस धमकी के बाद हम सबका दिल घायल हो गया। ऐसा लगा कि अब जिद छोड़ देने में ही भलाई है। हमारे बालसखा मनुज ने कहा, हटाओ यार, हटाओ, संडे को भाड़े पर बैटरी मंगाते हैं औऱ डीडी पर बाजीगर ही देख लेते हैं..भले सनी देवल वाला मजा नहीं है लेकिन कोई इतनी भी खराब फ़िल्म नहीं है।

वो क्या है कि टीवी वाले हमेशा मार-पीट तो नही दिखा सकते, सरकार कहती है समाज बिगड़ता है। इसलिए बीच-बीच में मारपीट रोककर थोड़ा प्यार,मोहब्ब्त भी देखते रहना ज़रूरी है।

मनुज की बात ने हम पर असर किया..इच्छाओं के अनंत पहाड़ पर चढ़कर गर्मी से हार चुका मन रविवार को बाजीगर देखने के लिए बेचैन होने लगा। उंगली पर गिनकर देखा कुल पांच दिन थे। इन दिनों इंजीनियर बन चुके रवि ने सवाल किया…ये बताओ, सन्डे को बैटरी मिल जाएगी न ?

बिलकुल मिलेगी,  तुम दस रुपया दो, हम अभी बुक करके आतें हैं।

बहरहाल गिनते-गिनते रविवार आ गया..शाम को तीन बजे से ही टीवी घेरकर हम सब बैठ गए…फ़टाफ़ट बैटरी लाई गई..बैटरी आने से जो सबसे ज्यादा खुश हूई वो हमारी भाभी जी थी…उन्होंने कहा, अबकी बार लुधियाना से भइया आएँगे तो चूड़ी,बिंदी, टिकुली, सेनूर नहीं बल्कि सबसे पहले एक बैटरी और चार्जर ही मंगाएँगी…

पिंटू ने कहा,रमन की भाभी तो गुल्लक तोड़कर बैटरी खरीदी हैं। आप भी काहें नहीं खरीद लेती हैं ?

भाभी ने कहा, उ हमसे चार साल पहले ब्याहकर आई थी…ठीक है ? जल्दी से बैट्री लगाकर बाजीगर दिखाओ, बवाल न बतियाओ..

बैटरी लगी..लेकिन हम देख रहे हैं, बाज़ीगर तो नहीं आ रहा, विज्ञापन आ रहा है.. और विज्ञापन आते-आते अचानक टीवी की स्क्रीन छोटी होने लगी और टीवी से एक अजीबोगरीब आवाज आने लगी ,जिसका मतलब ये था कि भैया अब बैटरी को निकालो..क्योंकि ये खुद चार्ज नही है।

टीवी के सामने बैठे घर के बड़े बुजर्ग और बच्चों का सारा करेंट उड़ गया..ये बैटरी वाला लल्लन तो ठग दिया रे..ये तो बड़ा बेईमान आदमी है…इसकी दुकान पर अब बैटरी लेने कभी नहीं जाना है।।

सबके चेहरे लटक गये..एक ठंडा सन्नाटा पसर गया…ट्रांसफर तो फूंक ही गया था…बैट्री भी डिस्चार्ज हो गई..

चलो अब गुल्ली डंडा ही खेलते हैं..हम सब मुंह लटकाकर बाहर निकल गए..तभी हमारी नई-नवेली भाभी ने हमें देखा और प्यार से बुलाकर पांच सौ का नोट देते हुए कहा, जाइए वीसीआर लाइये..आज फ़िल्म चलेगा..

हाय, इस एक शब्द को सुनकर ऐसा लगा जैसे उजड़े चमन में बहार आ गई हो..तपते रेगिस्तान में बारिश हो रही हो।

गांव के पश्चिम टोले में हम चार लोग उसी समय वीसीआर वाले के पास दौड़कर भागे…भागने की स्पीड अगर उसैन बोल्ट देख लेते तो शरमा जाते। हमने वीसीआर वाले के पास जाकर कहा.. जिद्दी, घायल, बेताब,ग़दर, जानवर..

चंडाल चौकड़ी के पिंटू ने कहा, ये मत भूलो…पैसे नई वाली भाभी ने दिया है, बाजीगर भी लेना पड़ेगा। हं तो बाजीगर ले लो।

वीसीआर वाले भैया ने बाजीगर ले ली…देखते ही देखते पूरे टोले में ये खबर फैल गई कि ट्रांसफर फूंक जाने के गम में आज शक्ति बो भौजी के सौजन्य से सिनेमा चलेगा..

आस-पड़ोस की हर औरतों ने जल्दी-जल्दी भोजन बना लिया..चाचा-पापा टाइप के लोगों के लिए अलग से कुर्सी मंगाकर बैठने के लिए ऐसा सिटिंग अरेंजमेंट करना पड़ा ताकि गांव की औरतें सिनेमा देखते समय असहज न हो जाएं…

बहरहाल वो घड़ी आ गई..जिसका हमें बेसब्री से इंतज़ार था। वीसीआर वाले भैया ने कहा, अगरबती जलाइए…और बताइये, कौन सिनेमा पहले चलेगा ?

दादी ने कहा, पहले तो रामायण चलेगा.. बाबा भी इस बात से सहमत थे। बड़की मम्मी ने कहा, नदिया के पार लगा दो। एक बुद्धिजीवी किस्म के चाचा ने कहा, गाइड लगा दो, वही ठीक रहेगा…

देखते ही देखते सारे लोग अपनी अपनी पसन्द थोपने लगे। मामला घूम फिरकर फिर नई वाली भाभी के पास गया…

अरे नवकी बहुरिया का मन है न जी सिनेमा का..वो जो कहेगी वही सिनेमा चलेगा.

अब गेंद उनके पाले में थी। हम सब बच्चे ये जानते हुए कि बाज़ीगर ही पहले चलेगा.उनकी तरफ देखने लगे.पांच मिनट का सन्नाटा रहा…फिर.भाभी ने बड़ी देर तक सोचकर कहा…कोई सनी देओल की फ़िल्म लगा दो भइया..

हाय.. इतना बड़ा त्याग…हम बच्चे भाभी के चरण में गिर पड़े।।टीवी पर शुरू हुई फ़िल्म घायल..और आसमान में बारिश।

उस बारिश में ट्रांसफ़र फूंक जाने और बैटरी के डिस्चार्ज हो जाने से घायल पड़े मन को घायल देखकर जो मन को आराम मिला..आज उसके लिए शब्द नहीं है।

आज बीस साल पीछे की ये सब बातें किसी दूसरे जमाने की लगती हैं..

आज चंडाल चौकड़ी मुम्बई,पुणे बैंगलोर में शिफ्ट हो चुकी है। भाभी भी इंस्टाग्राम पर रिल्स बनाती हैं..हमारे गाँव के लड़के न अब सिनेमा देखने के लिए बैट्री मंगाते हैं और न ही वीसीआर..अब उनका जीवन ही रिल्स में सिमटकर एकाकी बन चुका है।

इस भागते हुए एकाकी हालात में उस ठहरे हुए दौर को बेमतलब का याद करते रहना क्यों जरूरी है, ये बहस का विषय है।

लेकिन आज भी उस गर्मी की याद, आज आत्मा के किसी कोने में जल रहे वक्त को ठंडा करती है..औऱ दिल कहता है..अभावों से भरा बचपन का वो सतरंगी संसार सच में कितना सुंदर था। 

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Published on July 01, 2024 04:40

June 13, 2024

कौन जात हैं मास्टर साहब ?

पिछले दिनों बनारस के आसमान में एक अनजानी सी खुशी फैल गई। देखते ही देखते सामने घाट से लेकर गोदौलिया तक की गलियों के वो सारे कमरे खाली होने लगे, जिनमें कभी तानपुरा की आवाज़ गूंजती थी तो कभी झपताल के रेले बजते थे।

अपने दो सौ साल पुराने घर को गेस्ट हाऊस बनाने का सपना देख चुके उन खूसट मकान मालिकों की आंखें भी चौड़ी हो गईं, जो हर महीने कसम खाते थे कि अब इन गाने-बजाने वालों को घर नहीं देना है।

चाय-पान, कचौड़ी, जलेबी और ठंडई से लेकर भांग का गोला बेचने वाले तक पूछने लगे कि ई गायकवा बुजरो वाले एतना काहें उछलत हौवन गुरु ?

कहतें हैं बनारस की हवा में उछलते इन सवालों का ठीक- ठीक जवाब न किसी मकान मालिक के पास था, न ही किसी दुकानदार के पास।

एक सुबह संकटमोचन मंदिर की बात है।

सात साल से फूल-माला बेचने वाले फूल कुमार ने बीएचयू से एम म्यूज करके पीएचडी कर चुके गायक संदीप सिंह को जीवन में पहली बार मोतीचूर का लड्डू खरीदते देखा और पूछ दिया…

“आज कुछ जादा ही खुश लग रहे हैं गुरु, का बात है ?”

संदीप सिंह ने आधी झड़ चुकी जुल्फों को लहराकर कहा…

“नहीं जानते हैं ?”

“बताएंगे तब तो जानेंगे..!”

“मास्टर बन गए हम !”

“कहंवा गुरु….?”

“बिहार में….म्यूजिक टीचर !”

“मने सरकारी नोकरी न ?”

“एकदम सरकारी..बस तनखाह तनी कम है…”

‘कम बेसी का होता है जी, सरकारी है न..जल्दी से जाके परसादी चढ़ावा गुरु..न त सब बार झड़ जाइत..नोकरी नाई मिलित।

फूल कुमार की बात सुनकर संदीप बाबू ने हाथ जोड़ लिया..

“हं, भइया…हम ग्रेजुएशन किये, पोस्ट ग्रेजुएशन किये, एम.फिल किये, जेआरफ हुआ, नवोदय, केंद्रिय से लेकर असिस्टेंट प्रोफेसर तक, सबका परीक्षा दे-देकर थक गए..और मान लिए कि अब कहीं कुछ नहीं होगा…पर धन्य है बाबा, आज कृपा हो गई। एक पाव लड्डू बढ़ा देंगे का ?”

ये सुनते ही फूल कुमार ने लड्डू क्या फूल-माला तुलसी अगरबत्ती से लेकर कपूर तक सब बढ़ा दिया और बढ़ाते ही एक ऐसा प्रश्न पूछा जो आज तक किसी भी प्रतियोगिता में नहीं पूछा गया था।

“ए सन्दीप बाबू ?

“हं जी”

“तब तो बनारस छूट जाएगा न ?”

ये एक ऐसा लघुउत्तरीय प्रश्न था, जिसका उत्तर बनारस को विदा करने वाले हर विद्यार्थी ने किसी भी किताब में नहीं पढ़ा था।

संदीप बाबू की आंखों की कोर गीली होकर जबाब देने लगीं। मन द्वंद्व के भंवर में फंसने लगा। भावनाओं का ज्वार माँ गंगा के आंचल और बाबा विश्वनाथ की जटा में उतर आया।

याद आने लगा वो दिन..

जब संदीप बाबू बारह साल पहले झोला लेकर कैंट स्टेशन उतरे थे। वो दिन जब उनका बीएचयू में एडमिशन हुआ था। वो दिन जब वो पहली बार हॉस्टल में पहुँचे थे। पहली बार गंगा नहाया था, पहली बार उस गली में किसी का हाथ पकड़ा था..बड़े ही भारी मन से कहा..

“आदमी बनारस छोड़ देता है, बस बनारस आदमी को नहीं छोड़ पाता। घबराइए नहीं, यही सिवान जिला में स्कूल मिला है…हर शनिचर को आएँगे..!”

फूल कुमार ने भारी मन से कहा, “संदीप बाबू, जो बनारस से चला जाता है, ऊ बनारसी बन के नही, टूरिस्ट बनके आता है गुरु.. हम भी यहीं हैं, देखेंगे, आपको महादेव की कसम, बस हमको भूल मत जाइएगा।”

कहते हैं संदीप बाबू संकटमोचन मंदिर से लड्डू चढ़ाकर लौट आए। अगली सुबह ज्वाइनिंग करने की तैयारी थी। रात को ट्रेन पकड़ना था। मन में रवानगी थी..दिल में उत्साह।

कमरे पर आए तो मकान मालिक ने संकटमोचन के लड्डू के साथ तीन हजार रुपये देखकर उनको तीन बार ऊपर-नीचे देखा और अचंभित होते हुए पूछा।

“बड़ा जल्दी किराया दे दिए बाबू ?”

संदीप बाबू ने कहा, “कमरा खाली कर रहें हैं अंकल..अब कोई आधी रात को रियाज करके आपकी नींद खराब नही करेगा…”

इतना सुनते ही हर महीने कमरा खाली करने की धमकी देने वाले अंकल न जाने क्यों दुःखी हो उठे।

“ए संदीप बाबू…गाने-बजाने वाले तनिक हल्ला तो करते हैं लेकिन किसी से बत्तमीजी नही करते। जाइये बबुआ याद आएँगे आप…”

संदीप बाबू ने अंकल को नमस्ते किया.. सारा सामान और दस साल की सारी स्मृतियों को दो-चार बोरी और बैग में समेटकर बाबा विश्वनाथ को शीश नवाया और अगली सुबह आ गए..जिला सिवान..

सुदूर एक गाँव…आते ही देखा..

सड़क यहां टूटने के लिए बनी है। बिजली यहां जाने के लिए आती है..लोग यहां मरने के लिए जीते हैं..स्कूल यहाँ बच्चों को पढ़ाई से दूर करने के लिए खोले गए हैं।

स्कूल की हालत देखते ही बीएचयू से ली हुई पीएचडी की डिग्री हंसने लगी। दस साल तक बड़ा ख्याल, ध्रुपद, धमार, और ठुमरी का किया गया रियाज अट्टाहास करने लगा।

संगीतशास्त्र के वो गूढ़तम सूत्र रोकर पूछने लगे…

“ए संदीप बाबू…बे महराज…इतना पढ़-लिखकर इहाँ पढ़ाएंगे ? न जहां कायदे का एक कमरा है, न बैठने की जगह ? इहां पर ?’

संदीप बाबू अभी रजिस्टर पर हस्ताक्षर करके सोच ही रहे थे तब तक उस गाँव के मुखिया जी आ गए।

प्रिंसिपल साहब ने परिचय कराया। मुखिया जी ने संदीप बाबू का गहन निरीक्षण किया और पूछा..

“अच्छा तो मतलब अब यहां नांच-गाना का भी पढ़ाई होगा..है न ?”

प्रिंसिपल साहब ने सफाई देते ही कहा..”अरे सर, हमारे विद्यालय में संगीत था, बस अध्यापक नहीं था,अब नीतीश कुमार, तेजस्वी जी ने भेजा है तो ललकार के संगीत का पढ़ाई होगा। अपने स्कूल से भी कोई खेसारी और कोई निरहुआ निकलेगा, का जी सर ?”

संदीप बाबू ने सर पीट लिया और पूछा, “सर, इसमें संगीत का कमरा कहाँ है ?”

प्रिंसिपल ने कहा, “पूरा स्कूल आपका है सर.. जहाँ मन करे कमरा बना लीजिये..जाइये।”

संदीप बाबू ने देखा स्कूल में बस तीन ही कमरा है…इसी में पूरा स्कूल है…कुछ देर सोचकर पूछा..”सर कुछ साज-बाज है, बच्चों को कैसे पढ़ाएंगे…? “

प्रिंसिपल साहब ने कहा, “अभी त बजट के बिना खुद ही हम झुनझुना बजा रहें हैं। तब तक गाना-वाना गवाकर, नचवाइये-कुदवाईये, उ कौन सा गाना आजकल रील में चला है..महरून कलर सडीया… हम भी एक रील बनाए हैं उस पर…बाकी…साज-बाज का हम देखते हैं।”

इधर सामने बैठे मुखिया जी की समस्या न स्कूल की इमारत थी, न ही साज-बाज का बजट, न ही महरून कलर सड़िया..उनकी समस्या कुछ और थी.. उन्होंने संदीप जी से पूछा..

” ए संदीप जी, संदीप सिंह मतलब ?”

संदीप जी फट से बोले…

“जी, संदीप मतलब मशाल…जलता हुआ मशाल..!”

मुखिया जी ने कहा, “उ थोड़े पूछ रहे हैं, कास्ट कौन है आपका ?

संदीप बाबू सकपका गए..ये एक ऐसा सवाल था जिसके लिए वो तैयार न थे। बड़े ही शालीन अंदाज में कहा…

“टीचर से जाति नहीं पूछा जाता है। ऊपर से हम कलाकार…संगीतकार का कोई जाति नही होता।”

मुखिया जी नहीं माने….”मतलब कुछ तो होगा ही…बताइये न…?’

संदीप बाबू ने उस दिन टाल दिया और क्लॉस लेने चले गए।

ठीक अगले दिन गाँव के एक बड़े ही सम्मानित व्यक्ति शर्मा जी को लेकर गांव के मुखिया जी कार्यालय में उपस्थित हुए। मुखिया जी ने शर्मा जी से कहा, “इनसे मिलिए संदीप बाबू हैं, संगीत के नए अध्यापक..बलिया जिला घर है जी…”

शर्मा जी ने संदीप बाबू को गौर से देखा और पूछा..

“ए संदीप बाबू..आपके पिताजी का पूरा नाम का है ?”

संदीप बाबू ने कहा,”जी उनका नाम शिवजी सिंह है।”

“और बलिया में आपका गाँव कौन सा है ?”

“जी बलरामपुर…”

“बाबू साहब लोगों का गाँव है का ?”

संदीप बाबू ने कहा, “ऐसा तो नहीं, हर जाति के लोग मेरे गांव में हैं।”

शर्मा जी मन मसोसकर बोले.. “आप लोग का शादी बियाह तो बाबू साहब लोगो में ही होता होगा न ?”

संदीप बाबू के दिमाग और क्लास दोनों की घण्टी लग गई। उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में चुप रहने का फैसला किया..और उठकर चले गए..शर्मा जी लजा गए..और धीरे से बोले..

“नही,मतलब, सिंह तो बाबू साहब भी लिखता है, कुर्मी भी औऱ भूमिहार भी..तनिक क्लियर करना चाहते थे।”

संदीप बाबू ने एक गहरी सांस लेकर कुर्सी से उठे औऱ सीधे क्लॉस जाकर ही रुके।

इधर मुखिया जी ने आंख तरेरकर कहा, “ई संदीपवा त बड़ा बदमाश मास्टर है ए प्रेन्सपल साहब..ससुरा के पास तमीज नही है…”

प्रिंसिपल ने कहा, ” ए मुखिया जी…हमको तो बाबू साहब लग रहा आपको कवन जात लगता है ?

मुखिया जी ने कहा, “न न, बाबू साहब नही, पक्क़ा भूमिहार है..शकल से चालू लगता है साला।”

शर्मा जी बोले..”न..न..लिख लीजिये कुर्मी है। उ बगल वाला कुर्मी है, न जो बैंगन बोता है, उसी से हंस-हंसकर बतिया रहा था। अरे ! एक दिन सारा कागज पत्तर मांगिये न, किलियरे हो जाएगा।”

छह महीने से अधिक हो गए…कहते हैं…बीएचयू से गायन में पीएचडी करने वाले संदीप बाबू की जाति पर पीएचडी आज तक चल ही रही है।

आज भी पूरे गाँव को इस बात कि चिंता नही है कि संदीप बाबू को संगीत का ज्ञान कितना है ? कितना पढ़ा है संगीत रत्नाकर, कितना जानते हैं नाट्यशास्त्र को ?

कौन-कौन सी सुविधा दी जाए तो संदीप बाबू हमारे बच्चों को बेहतर संगीत सीखा पाएंगे..

चिंता इस बात की है कि संदीप बाबू बाबू साहब है, भूमिहार हैं कि कुर्मी हैं ?

ताजा समाचार तक संदीप बाबू दुःखी थे। अपने मुम्बई बैठे एक लेखक दोस्त से ये कहते हुए लगभग रोने लगे…

ए अतुल, तुम ठीक किये फारम नही भरे बे…हमरा मन कर रहा छोड़ दें हम..बनारसे ठीक था..कभी-कभी तो मन ही नहीं लगता है हमारा..ऐसा लगता है, साला कहाँ आ गए.?”

यहां राग और ताल की जाती जानने से ज्यादा इस समाज को टीचर की जाति जानने में रुचि है।

लेखक ने संदीप बाबू को दिलासा देकर लिखा है…

ई दोगला समाज है संदीप बाबू..ये सोशल मीडिया पर मनुष्यता, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, पढ़ाई, रोजगार की बड़ी-बड़ी बात करता है लेकिन वोट देने जाता है तो अपनी जाति के नेता को देकर आ जाता है और पाँच साल रोता है

इस समाज के लोग अब एक अध्यापक को उसके ज्ञान से ज्यादा उसकी जाति का ज्ञान रखने में रूचि न लेंगे तो कौन लेगा ?

और ये समस्या बस गाँव की नही है भाई.. दिल्ली से लेकर गांव तक सब जगह कुंए में जातिवादी भांग पड़ी है। समानता का झंडा ढोने वाले तमाम प्रोफ़ेसरों का कोई रिसर्च स्कॉलर आज तक कोई दलित नही बना है।

वो तमाम प्रगतिशील पत्रकार बिहार जाकर सबसे पहले यही पूछते हैं कि कौन जात हो ? इसके आगे वो बढ़ नही पाए हैं।

ये तो फिर भी गाँव के लोग हैं..इनका का दोष है ?

इसलिए हे संदीप….तुम जाति जनवाने और जानने की कभी चिंता न करना।

तुम चिंता करना उन मासूम आंखों की, जो कॉन्वेंट न जा पाने के अभाव में तुम्हारे आगे रोज बैठती हैं। औऱ भारी उत्साह से देखती हैं तुम्हारी तरफ.. किसी उम्मीद में।

उन उम्मीदों को धूमिल मत होने देना।

उनमें वो लयात्मक संस्कार भरना ताकि आगे से वो किसी अध्यापक से उसका ज्ञान जानने की कोशिश करें….उसकी जाति नहीं।

ये लोकसभा-विधानसभा के चुनाव होंगे, नेता-मुखिया आएंगे-जाएंगे..जाति जानने की सरकारी ड्यूटी क़ल तुम्हारे कंधे भी आएगी… लेकिन एक विद्यार्थी भी ऐसा निकल गया जिसको अध्यापक की जाति जानने में रुचि नही है उसका ज्ञान जानने में रुचि है तो जागरूकता की मशाल जल जाएगी संदीप।

इस समाज को बेहतर तुम्हारे जैसा अध्यापक ही बनाएगा, न कि कोई नेता और न ही कोई पत्रकार।

तुम्हारा
अतुल
मुंबई से…

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Published on June 13, 2024 21:44

December 26, 2023

राशन कार्ड में डाटा…

आजकल शरीर मल्टी विटामिन और मिनरल्स की कमी से जूझने के बाद भी उतना कमजोर नहीं दिखता, जितना दो जीबी डॉटा खत्म हो जाने के बाद दिखता है।

बड़े से बड़े बब्बर शेर के मुँह से अगर 2GB डॉटा छीन लिया जाए तो उसे सियार बन जाने में दो मिनट की देर नहीं लगती है।

कल की बात है। मुम्बई का जाम सदा की तरह धैर्य का इम्तेहान ले रहा था। ज़िंदगी अंधेरी में विरार जैसा फील कर रही थी। तभी धीरे से आकर एक चौदह साल के लड़के ने कहा, “भइया दीजिये न..!

मैनें कहा, “छुट्टे नही हैं।

उसने खिसियाकर कहा, “भीख नहीं मांग रहा, हॉटस्पॉट ऑन कर दीजिये, इनको जीपे करना है।”

मैं चौंक गया। मोबाइल डॉटा हैकर्स पर पढ़े हुए तमाम आर्टिकल याद आने लगे। मैंने कहा, “सॉरी भाई, नहीं दे सकता।”

लड़का याचना की मुद्रा में आ गया, उसने कहा, “आप मुझे पहचानते नही ? मैं ठाकुर सैलून…! जहां आप बाल कटवाते हैं, मेरे ही भइया हैं, जो आपसे ‘भोजपुरी गानों में ढोढ़ी का आर्थिक योगदान’ जैसे बिषय पर चर्चा करते हैं, उन्हीं का छोटा भाई हूँ…!

मेरे मुंह से निकला..”ए मरदे पहिले न बतावेला।”

मैनें तत्काल प्रभाव से हॉटस्पॉट ऑन कर दिया। फिर तो मेरी नज़र उन भाई साहब पर अटक गई, जिनको पेमेंट किया जाना था।

एक झटके में वो लूटे हुए रईस लग रहे थे। दूसरे झटके में बेरोजगार इंजीनियर। आँखे और बाल मिलकर बता रहे थे कि वो अप्रकाशित लेखक हैं।

लेकिन पैंट-शर्ट की सिकुड़न में एक अंतहीन उदासी थी, जो बता रही थी कि वो किसी कारपोरेट खिड़की से उड़ाए गए कबूतर हैं,जिसका पर काट दिया गया है।

तब तक अचानक मेरी नज़र उनके जूते पर अटक गई और मेरे तोते उड़ गया।

इससे पहले कि वो ये कहें कि अपनी अगली फिल्म में एक रोल मेरा भी रखिएगा राइटर साहब…मैनें जान-पहचान का प्रोग्राम ही कैंसिल कर दिया और हॉटस्पॉट ऑफ करते हुए उस लड़के के कान में कहा, ” मार्केट में एक नया गाना आया है…भइया को बता देना।”

“कौन सा ?”

“ढोढ़ीये पर ले लs…लोन राजा जी…”

लड़का एक कातिल हँसी हंसा। का भइया,”आपो ग़जबे मजाक करते हैं..!”

मैंने कहा गाना बढ़िया है औऱ तुम्हारे भैया चाहें तो लोन लेकर बगल में एक और सैलून खोल सकते हैं।”

लड़का मुस्कराया और चला गया…

लेकिन दोस्तों, इससे भी ज्यादा बड़ी दुर्घटना मैंने अभी-अभी दैनिक जागरण के एकदम कोने में पढ़ी है।

ख़बर कुछ ऐसी है कि एक बहू तंग आकर थाने पहुँच गई है।

उसने थानेदार से जाकर कहा है कि दरोगा जी,मेरी सास मंगधोवनी,मुझे जीने नही देगी… एफआईआर लिखिए ।”

दरोगा जी ने पूछा है, “सास तुमसे झगड़ा करती है ?”

“नहीं दरोगा जी..”

“मारती है ?”

“न न..”

“तो क्या खाना-पीना नहीं देती ?”

“नही, वो बात भी नही है ?”

“तब क्या दहेज मांग रही है ?”

“नही दरोगा जी..!”

“तो फिर क्या बात है बताओ…!”

“मैं किचन में काम करती रह जाती हूँ…”

” तो क्या ज़बरदस्ती काम करवाती है ?”

“नहीं, दरोगा जी, मेरा दो जीबी डॉटा खत्म कर देती है…तंग आई गई हूं इस सास से। “

दरोगा जी ने अपना हॉटस्पॉट ऑन करके कहा है….

“लो,बहन, कम्बख़्त बीबी ने बस 100mb ही छोड़ा हैं…तुम दो चार रिल्स-विल्स देखो, पानी-वानी पियो.. मैं अभी आता हूँ..”

आगे की खबर अख़बार वाले जालिमों ने नहीं दी है। शायद पत्रकार का डॉटा खत्म हो चुका होगा।

लेकिन दोस्तों..मैं आज अपनी न जाने कब होने वाली सास की कसम खाकर कहता हूँ, ये खबर पढ़कर मेरी सांस अटक गई है।

दोनों हाथ प्रार्थना में जुड़ गए है..”हे ईश्वर ! अब कल्कि अवतार लो..तुम बहू को ऐसी सास न दो..पति को ऐसी पत्नी न दो, किसी भाई को ऐसा भाई न दो… किसी मंटूआ को ऐसी पिंकिया न दो, जो अपना दो जीबी खत्म करने के बाद दूसरों के दो जीबी का कत्ल कर दे।”

ये हमारे समय का सबसे बड़ा अत्याचार है।

अगर सरकार सुन रही हो तो मेरी उससे दरख्वास्त है कि इंडिया बहुत आगे जा चुका है। दो जून की रोटी के लिए आटा की लड़ाई, अब दो जीबी डॉटा की लड़ाई बन चुका है।

अब राशन कार्ड में गेंहू,चावल और चीनी मुफ्त करने से काम नही चलेगा.. उसके साथ हर महीने 60GB डॉटा भी मुफ्त करें….वरना लोग भूखों मर जाएंगे। 😉

सादर
अतुल..

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Published on December 26, 2023 04:59