डोपामाइन डिटॉक्स – डिजिटल जंगल की आयुर्वेदिक जड़ी !
जिन चीज़ों को करने से हमारी खुशियों के व्याकरण की परिभाषा तय होती हो, एक वक़्त के बाद वही चीजें ज़िंदगी की स्लेट पर धुंधली पड़ने लगती हैं और फिर मन उचट सा जाता है।
अफ़सोस कि मन का उचट जाना आज तक दुर्घटना की किसी भी श्रेणी में नहीं आ सका है।
लेकिन चेतना के तल पर जाकर देखें तो ये अवसाद में जाने का प्रस्थान बिंदु है।
लोग इस दुर्घटना का गम भुलाने के लिए गीत-संगीत से मनोरंजन कर लेते हैं। किताब और सिनेमा की तरफ़ चले जातें हैं लेकिन कभी आपने सोचा कि तब क्या होगा, जब मनोरंजन की इन चीजों से भी आदमी का मन उचट जाए ?
आप लाइब्रेरी से अपनी प्रिय किताब और पत्रिकाएं लाएं और हाथ में लेकर पढ़ न पाएँ। ओटीटी और यूट्यूब का समूचा संसार आपके सामने मनोंरजन की सारी खिड़किया खोलकर बैठा हो और आप तय न कर पाएं कि आपको क्या देखना है।
दुनिया भर का गीत-संगीत चंद क्लिक पर हो लेकिन आपसे कुछ सुना न जाए।
आपका मस्तिष्क विचारों के धागों में ऐसा उलझा हो, जिसका कोई सिरा दूर-दूर तक नज़र न आए। समझ न आए कि क्या देखें या क्या छोड़ें…?
आजकल ऐसा होना कोई बड़ी दुर्लभ सी घटना नही है। दिन भर हाथ में मोबाइल और शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन शैली ने इसे आम बना दिया है।
आज इस दुर्घटना का दुःख कम करने के लिए दिन भर नोटिफिकेशन चेक हो रहे हैं..मेल देखा जा रहा है। रील पर रील और शॉर्ट्स पर शॉर्ट्स देखे जा रहे हैं कि कुछ तो नया मिले।
कहीं कोई क्रिएटर अच्छी पकवान बनाना सीखा रहा है। कोई घर को सजाने के हजार तरकीबें लिए बैठा है।
राजनीति, क्रिकेट और सिनेमा की चिल्ल-पों के अलावा सुंदर दिखने, धन कमाने,नाम कमाने, ज्ञानी बनने, धार्मिक बनने और लोकप्रिय होने के सारे सूत्र आपके सामने लेकर अलग-अलग किस्म के लोग दिन-रात नाँच रहे हैं।
मानों ये कोई सतरँगी बूफे चल रहा हो लेकिन खाने वाले का मन उचट सा गया हो। उसकी उंगलियां लगातार स्क्रॉलिंग करती जा रही हों और वक्त के साथ उसकी बैचेनी बढ़ती जा रही हो।
मुझे कई बार लगता है कि इस स्टेज तक आ जाने पर दो बातें हो सकती हैं। या तो आप अनजाने में अवसाद में जा सकते हैं या इस रोग के कारणों की पहचान करके आत्मसुधार कर सकते हैं।
मुझे लगता है, दूसरे कदम की तरफ कदम बढ़ाना ही असली समझदारी है।
क्योंकि दूसरी तरफ जाकर आप कारणों के तह में जाते हैं और देखते हैं कि दिन पर दिन बढ़ता स्क्रीन टाइम ही इस समस्या की असली जड़ है। रिल्स देखते समय हमारा ब्रेन जिस डोपामाइन को रिलीज करता है और हमें आनंद की अनुभूति होती है…उस रसायन का उत्पादन अब हद से ज्यादा हो चुका है।
आप लगातार घण्टो रील नहीं देख रहे बल्कि डिजिटल ड्रग्स ले रहे हैं।
और हमारा ब्रेन डोपामाइन क्रिएट करते-करते थक चुका है।
लेकिन सवाल है कि ये थकान कैसे मिटेगी ?
वैसे ही, जैसे दिन-रात लगातार कई साल मोबाइल चलाने के बाद उसे फार्मेट करने की जरूरत पड़ती है, मस्तिष्क को भी फार्मेट करने की जरुरत आन पड़ी है।
जैसे आप व्रत रहकर शरीर को आराम देते हैं, वैसे एक दिन मोबाइल से दूर रहकर मस्तिष्क को आराम दे दीजिए।
संयोग देखिये कि इन दिनों बॉडी डिटॉक्स के बाद बाज़ार में जिस शब्द की सबसे ज्यादा चर्चा सुनी जा रही है, वो है डोपामाइन डिटॉक्स।
किताबों की दुनिया में डोपमाइन पर केंद्रित दो किताबों का जिक्र खूब हो रहा है…द मालिक्यूल ऑफ़ मोर औऱ डोपामाइन डीटॉक्स..
डेनियल जेलडीन की किताब मालिक्यूल ऑफ मोर जहां बता रही है कि डोपामाइन हमारे अंदर होने वाली इच्छा में किस तरह की भूमिका निभाता है।
वहीं डोपामाइन डिटॉक्स का कहना है कि इस डोपामाइन की जमा पूंजी को व्यर्थ ख़र्च न करके ही हम अपने जीवन स्तर को सुधार सकतें हैं।
यहाँ किताब कौन पढ़ता है और पढ़ेगा ये तो पता नहीं। लेकिन ऐसे जरूरी विषय पर हिंदी में किताब तो छोड़ दीजिए… ढंग का एक लेख भी नहीं मिलता।
इधर सरकार बनाने-बिगाड़ने में व्यस्त लेखकों को भी क्या पता कि बॉडी डिटॉक्स करते करते आदमी पांच साल के अंदर डोपामाइन डीटॉक्स करने लगेगा।
लेकिन लोगों के हालात और अधीरता को देखते हुए ऐसा ही लगता है कि हमारा ब्रेन इस डिजिटल संसार की नीली दुनिया में किसी आपदा की भेंट चढ़ चुका है।
हम नहीं जानते कि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं…जी रहे हैं, खा रहे हैं, पी रहे हैं..उससे कहीं ज्यादा बड़ी दुनिया हर आदमी के भीतर चल रही है।
एक वादी स्वर है…जो अन्तस् में बज रहा है। वो जब अंदर बजता है तब बाहर की दुनिया सुंदर दिखाई देने लगती है। आप सुबह उठते हैं…देखते हैं, कहीं फूल खिले हैं..आसमान कहीं पहले से ज्यादा नीला है। कहीं पक्षी उड़े जा रहे हैं..एक नए आसमान की तलाश में..
कहीं बच्चे जा रहे हैं, पीठ पर भविष्य का बोझा लेकर..
गौरैया बोलती है..पड़ोसी हंसता है। गार्ड आपको देखकर मुस्कराता है। चाय वाला आपका नाम लेकर आपको चाय देता है..लीजिये अतुल जी चाय पीजिए।।
लेकिन उस पर जब डिजिटल कूड़ा जमा हो जाए तो फिर कुछ भी दिखाई नहीं देता..न ही सुनाई देता है। सिर्फ मोबाइल की स्क्रीन दिखाई देती है।
जानता हूँ….रिल्स हमारे समय का सत्य है। स्क्रॉलिंग दूसरा सत्य है। इंस्टाग्राम तो अब ऑटोस्क्रॉल का फीचर बीटा टेस्टिंग में डाल चुका है। अब आपको रील देखने के लिए उंगलियों को घिसने की भी जरूरत नही है।
उधर मनोरंजन की दुनिया एक-एक घण्टे की बड़ी-बड़ी वेबसीरीज के बदले माइक्रोड्रामा पर शिफ्ट होने वाली है।
तीस मिनट का नहीं तीन मिनट का एक एपिसोड देखिये। स्क्रॉल करते जाइये और देखते जाइये। चीन और कोरिया में ये फार्मेट धूम मचा रहा है..भारत में बस धमकने ही वाला है।
लब्बोलुआब ये है कि आपके डोपामाइन को अभी औऱ कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा। इससे पहले कि परीक्षा हो… सप्ताह में एक दिन का व्रत शुरू कर देना ठीक रहेगा।
अगर आप आज भी दो-चार दस घण्टे बिना मोबाइल के रह जाते हैं, तो आप मानसिक रूप से स्वस्थ हैं। अगर नहीं तो फिर व्रत की बहुत ज़रूरत है।
अतुल