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इरॉटिक साहित्य टैबू क्यों है?
इरॉटिक पर जब भी कुछ लिखना चाहता हूँ ब्रिटिश लेखिका शर्ली कॉनरैन का उपन्यास ‘लेस’ बरबस याद आ जाता है. लेस को मैंने कई बार पढ़ा है. यह एक ट्रेंड सेटर उपन्यास रहा है. शर्ली कॉनरैन ने लेस को किशोर छात्राओं के लिए एक सेक्स इंस्ट्रक्शन मैन्युअल के रूप में लिखना शुरू किया था मगर अंत में उसने एक उपन्यास की शक्ल ले ली. लेस ब्रिटेन के उस दौर की कहानी कहता है जब ब्रिटेन में सेक्स भारत की तरह ही एक टैबू विषय था. लोग सेक्स पर बात करने और लिखने से कतराते थे. किशोर किशोरियाँ में सेक्स का ज्ञान बहुत कम था या लगभग नहीं ही था. अज्ञान ब्लिस या आनंद नहीं होता. अज्ञान हमारी बेड़ी होता है और अज्ञान से बनी बेड़ियाँ पीड़ादायक होती हैं. लेस उन किशोरियों की कहानी कहता है जो सेक्स के अज्ञान से पैदा हुई मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं से गुज़रती हैं.
इन दिनों ई.एल.जेम्स का इरॉटिक उपन्यास फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे, लेस से भी कहीं अधिक सफल और चर्चित है. साहित्यिक तौर पर फिफ्टी शेड्स एक बेहद साधारण सा उपन्यास है. मगर वह किंक या बीडीएसएम जैसे विषय पर कहानी कहता है जो आज पश्चिमी समाज में भी टैबू ही है. भारत में तो बीडीएसएम की जानकारी बहुत ही सीमित है. शायद जो थोड़ी बहुत जानकारी है वह फिफ्टी शेड्स से ही आई है. वैसे भारतीयों में किंकी प्रवित्तियाँ पश्चिमी लोगों की अपेक्षा कम ही होती हैं. इसके कई सामाजिक और सांस्कृतिक कारण हैं जिनपर मैं पहले भी लिख चुका हूँ. मगर अज्ञान बुरा ही होता है. वर्ष 2000 में जब मैं ब्रिटेन आया तो मुझे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि ब्रिटेन में पैदा हुए और पले बढ़े भारतीय युवाओं को भी इरॉटिक, किंक और सेक्सुअल फेटिश की जानकारी बहुत कम थी.
भारत में तो इरॉटिक के अज्ञान की जो सीमा है उसका एक उदाहरण मुझे याद आता है. 1996 में पूर्वी यूरोप में एक राज्य बनाया गया था, ‘अदर वर्ल्ड किंगडम’, जिसे एक बीडीएसएम रिसॉर्ट के रूप में डेवेलप किया गया था. अमेरिका में ऐसे कई रिसॉर्ट होते हैं, मगर एक पूरे राज्य या राष्ट्र को बीडीएसएम रिसॉर्ट बनाने की यह पहली घटना थी. यह एक फीमेल डोमिनेटेड रिसॉर्ट था जहाँ महिलाएँ शासन करती थीं और पुरुष उनके सेक्स स्लेव होते थे. अमेरिका और यूरोप के हज़ारों पुरुषों ने स्वेच्छा से इस राष्ट्र की नागरिकता ली थी और अपने सारे मानवधिकार खोते हुए महिलाओं का सेक्स स्लेव बनना स्वीकार किया था. वैसे तो इस राष्ट्र को कोई अन्तराष्ट्रीय मान्यता नहीं थी मगर फिर भी इसका अपना झंडा, पासपोर्ट, करेंसी वगैरह सब कुछ था. खैर अब तो यह राष्ट्र बिखर चुका है. भारत में अख़बारों और टीवी चैनलों में इस राष्ट्र के बारे में कई ख़बरें आई थीं कि कैसे इस राष्ट्र में महिलाएँ पुरुषों पर शासन करती थीं, किस तरह उन्हें यातनाएँ देती थीं, और उनसे पशुओं जैसा व्यव्हार करती थीं और कैसे उन पुरुषों को इन महिलाओं के अत्याचार से बचाने की ज़रूरत थी. मगर किसी भी खबर में इस बात कोई ज़िक्र नहीं था कि दरअसल वह राष्ट्र एक बीडीएसएम रिसॉर्ट था और वहाँ महिलाओं के अत्याचार सह रहे पुरुष अपनी इच्छा से उन यातनाओं में यौन आनन्द लेने के लिए गए हुए थे. खैर ज़िक्र होता भी तब इन अखबारों और न्यूज़ चैनल के पत्रकारों या संपादकों को बीडीएसएम की कोई जानकारी होती.
इस बात पर प्रश्न उठ सकते हैं कि आखिर इस तरह के वाहियात विषय की जानकारी होना ज़रूरी क्यों है? जानकारी होना ज़रूरी इसलिए है जिस तरह की यौन हिंसाएँ हम अपने समाज में देखते हैं वे सभी इन किंकी प्रवित्तियों से पैदा होने वाली हिंसाएँ ही हैं. निर्भया जैसी बलात्कार और यौन हिंसा की शिकार लडकियाँ इन्हीं किंकी प्रवित्तियों की शिकार हैं. किंक एक सेक्स प्ले के रूप में तो ठीक है मगर जब वह जीवन शैली बन जाता है तो खतरनाक हिंसक और अपराधिक प्रवित्तियों को जन्म देता है. और जब हिंसा करने और हिंसा सहने वाले दोनों ही इन यौन हिंसाओं में आनंद लेने लगें तो समस्या और भी गम्भीर हो जाती है. आश्चर्य है कि हम ऐसी गंभीर समस्याओं को जन्म देने वाली प्रवित्तियों को टैबू मान कर उनपर बात करने से भी कतराते हैं.
इन दिनों ई.एल.जेम्स का इरॉटिक उपन्यास फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे, लेस से भी कहीं अधिक सफल और चर्चित है. साहित्यिक तौर पर फिफ्टी शेड्स एक बेहद साधारण सा उपन्यास है. मगर वह किंक या बीडीएसएम जैसे विषय पर कहानी कहता है जो आज पश्चिमी समाज में भी टैबू ही है. भारत में तो बीडीएसएम की जानकारी बहुत ही सीमित है. शायद जो थोड़ी बहुत जानकारी है वह फिफ्टी शेड्स से ही आई है. वैसे भारतीयों में किंकी प्रवित्तियाँ पश्चिमी लोगों की अपेक्षा कम ही होती हैं. इसके कई सामाजिक और सांस्कृतिक कारण हैं जिनपर मैं पहले भी लिख चुका हूँ. मगर अज्ञान बुरा ही होता है. वर्ष 2000 में जब मैं ब्रिटेन आया तो मुझे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि ब्रिटेन में पैदा हुए और पले बढ़े भारतीय युवाओं को भी इरॉटिक, किंक और सेक्सुअल फेटिश की जानकारी बहुत कम थी.
भारत में तो इरॉटिक के अज्ञान की जो सीमा है उसका एक उदाहरण मुझे याद आता है. 1996 में पूर्वी यूरोप में एक राज्य बनाया गया था, ‘अदर वर्ल्ड किंगडम’, जिसे एक बीडीएसएम रिसॉर्ट के रूप में डेवेलप किया गया था. अमेरिका में ऐसे कई रिसॉर्ट होते हैं, मगर एक पूरे राज्य या राष्ट्र को बीडीएसएम रिसॉर्ट बनाने की यह पहली घटना थी. यह एक फीमेल डोमिनेटेड रिसॉर्ट था जहाँ महिलाएँ शासन करती थीं और पुरुष उनके सेक्स स्लेव होते थे. अमेरिका और यूरोप के हज़ारों पुरुषों ने स्वेच्छा से इस राष्ट्र की नागरिकता ली थी और अपने सारे मानवधिकार खोते हुए महिलाओं का सेक्स स्लेव बनना स्वीकार किया था. वैसे तो इस राष्ट्र को कोई अन्तराष्ट्रीय मान्यता नहीं थी मगर फिर भी इसका अपना झंडा, पासपोर्ट, करेंसी वगैरह सब कुछ था. खैर अब तो यह राष्ट्र बिखर चुका है. भारत में अख़बारों और टीवी चैनलों में इस राष्ट्र के बारे में कई ख़बरें आई थीं कि कैसे इस राष्ट्र में महिलाएँ पुरुषों पर शासन करती थीं, किस तरह उन्हें यातनाएँ देती थीं, और उनसे पशुओं जैसा व्यव्हार करती थीं और कैसे उन पुरुषों को इन महिलाओं के अत्याचार से बचाने की ज़रूरत थी. मगर किसी भी खबर में इस बात कोई ज़िक्र नहीं था कि दरअसल वह राष्ट्र एक बीडीएसएम रिसॉर्ट था और वहाँ महिलाओं के अत्याचार सह रहे पुरुष अपनी इच्छा से उन यातनाओं में यौन आनन्द लेने के लिए गए हुए थे. खैर ज़िक्र होता भी तब इन अखबारों और न्यूज़ चैनल के पत्रकारों या संपादकों को बीडीएसएम की कोई जानकारी होती.
इस बात पर प्रश्न उठ सकते हैं कि आखिर इस तरह के वाहियात विषय की जानकारी होना ज़रूरी क्यों है? जानकारी होना ज़रूरी इसलिए है जिस तरह की यौन हिंसाएँ हम अपने समाज में देखते हैं वे सभी इन किंकी प्रवित्तियों से पैदा होने वाली हिंसाएँ ही हैं. निर्भया जैसी बलात्कार और यौन हिंसा की शिकार लडकियाँ इन्हीं किंकी प्रवित्तियों की शिकार हैं. किंक एक सेक्स प्ले के रूप में तो ठीक है मगर जब वह जीवन शैली बन जाता है तो खतरनाक हिंसक और अपराधिक प्रवित्तियों को जन्म देता है. और जब हिंसा करने और हिंसा सहने वाले दोनों ही इन यौन हिंसाओं में आनंद लेने लगें तो समस्या और भी गम्भीर हो जाती है. आश्चर्य है कि हम ऐसी गंभीर समस्याओं को जन्म देने वाली प्रवित्तियों को टैबू मान कर उनपर बात करने से भी कतराते हैं.

मैंने इरॉटिक रोमांस क्यों लिखा?

डार्क नाइट लिखते समय मन में कई संशय और भय थे. पहली बात तो यह कि इरॉटिक विधा की मेरी स्वयं की जानकारी सीमित थी और दूसरी बात यह कि इसे पोर्न कहकर नकारा या दुत्कारा न जाए. मगर फिर भी मन में इस विधा पर लिखने की एक बलवती इच्छा थी. उसका सबसे बड़ा कारण मेरा अपना यह मत है कि साधारण मनुष्य के जीवन के नैराश्य और कुंठाओं के मूल में बहुत हद तक उसकी इरॉटिक इच्छाओं की अपूर्ति या अतृप्ति ही है. हालाँकि मेरा यह मानना भी है कि जीवन का वास्तविक आनंद ऐन्द्रिक सुख के परे ही है और उस अतीन्द्रीय सौन्दर्य, प्रेम और आनंद की प्राप्ति को ही मैंने जीवन का मूल उद्देश्य बताया है, मगर किसी साधारण मनुष्य के लिए उस अतीन्द्रीय आनंद की स्थाई अनुभूति साधारण काम नहीं है. उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया जटिलताओं से परिपूर्ण है. इसका भी पूरा ज़िक्र उपन्यास में है.
अब वापस आते हैं इरॉटिका पर. एक व्यापक भ्रम जो हम भारतीयों में है कि पश्चिमी समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध काफी इरॉटिक होते हैं और इरोटिक संबंधों में लिप्तता ही पश्चिमी समाज की सबसे बड़ी समस्या है. जबकि वास्तविकता इससे बहुत अलग है. हालाँकि यौन संबंधों के मामले में पश्चिमी समाज भारतीय समाज से बहुत अधिक खुला हुआ है मगर यहाँ भी अधिकांश स्त्री-पुरुष एक दूसरे की यौन इच्छाओं को समझने में असमर्थ ही हैं और इनसे उपजी कुंठा यहाँ के समाज की भी बहुत बड़ी समस्या है. पुरुषों के लिए तो फिर भी अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए साधन और सुविधाएँ सदियों से रही हैं और आज भी हैं. पश्चिमी समाज में जिस तरह जगह-जगह सेक्स पार्लर, स्ट्रिप क्लब और खासकर इन दिनों बीडीएसएम रिसॉर्ट दिखते हैं वे प्रमाण हैं कि यहाँ का पुरुष अपने संबंधों में किस हद तक अतृप्त है. नारी की एक बड़ी समस्या यह है कि न तो उसके लिए इस तरह की अधिक सुविधाएँ हैं और न ही उसकी इन सुविधाओं में बहुत अधिक रुचि. हालाँकि नारी मन को समझने में अपनी असमर्थता स्टीफन हाकिंग भी जता गए हैं, मगर जितना मैंने नारी मन को समझा है उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि अधिकांश नारियाँ अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति अपने प्रेम सम्बन्ध के दायरे में ही चाहती हैं. बड़ी समस्या है उसके प्रेमी का उसकी इच्छाओं को न समझना या फिर उनके प्रति उदासीनता. डार्क नाइट के आरम्भ में ही मैं लिखा है, ‘अब कामदेव अनंग हैं और रति अतृप्त’. नारी की इस अतृप्ति का सबसे बड़ा उदाहरण है ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ जैसे उपन्यास की अपार सफलता. एक ऐसा उपन्यास जिसकी न तो ढंग की भाषा-शैली है और न ही कोई कसा हुआ प्लाट, मगर वह सफलता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर रहा है तो सिर्फ इस कारण कि वह नारियों की यौन कुंठाओं को तृप्त करता है.
नारी-पुरुष सम्बन्ध की एक बड़ी समस्या यह भी है कि हर सम्बन्ध की तरह यह सम्बन्ध भी बहुआयामी होता है. सेक्स और रोमांस उस सम्बन्ध का मात्र एक आयाम हैं, और दूसरे आयामों से उनका द्वंद्व भी होता रहता है. नारी जो खूबियाँ अपने प्रेमी में देखती है वही बातें पति में कमियाँ बनकर दिखने लगती हैं. पुरुष अपनी प्रेमिका की जिन अदाओं पर लट्टू होता है, पत्नी की उन्हीं अदाओं को वह घर के बाहर देखना पसंद नहीं करता. स्त्री और पुरुष जब तक इन आयामों और उनके पारस्परिक द्वंद्व को अच्छी तरह न समझें उनके सम्बन्ध भी इन आयामों के टकराव से आहत होते रहेंगे.
मगर इन सबमें इरॉटिका की क्या भूमिका है? इन दिनों किये गए कई वैज्ञानिक अध्यनों से यह बात सामने आ रही है कि इरोटिका को लिखते और पढ़ते दोनों ही समय लेखक और पाठक अपनी और अपने साथी की यौन इच्छाओं के प्रति अधिक जागरूक होते हैं. इरॉटिका, पोर्न से इस मामले में बहुत अलग है कि पोर्न का उद्देश्य मात्र यौन उत्तेजना पैदा करना होता है और उसका प्रभाव भी क्षणिक ही होता है जबकि इरॉटिका में यौन उत्तेजना के साथ ही भावनाओं और संवेदनाओं का एक लम्बा सफ़र होता है और उसका प्रभाव भी दूरगामी होता है. इरॉटिका भी किसी अन्य फैंटसी की ही तरह मनुष्य के लिए न सिर्फ जीवन की कठोर सच्चाइयों से राहत का एक इन्द्रधनुषी व्योम रचता है बल्कि आशाओं और संभावनाओं का एक नया आकाश भी तानता है. इरॉटिका को पोर्न कहकर नकारना उन आशाओं और संभावनाओं के आकाश को नकारना है.
Published on June 27, 2018 12:55
•
Tags:
dark-night, erotic, erotic-romance, erotica
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