Sandeep Nayyar's Blog
December 19, 2018
क्रिएटिविटी क्या है?
क्रिएटिविटी क्या है? मौलिकता क्या है? सृजनात्मकता क्या है? किसे आप क्रिएटिव, मौलिक या सृजनात्मक कहेंगे? आमतौर पर हम किसी भी रचनात्मक कार्य को क्रिएटिव कह देते हैं. यदि क्रिएटिव का सिर्फ शाब्दिक अर्थ देखें तो यह ठीक भी है. कुछ क्रिएट किया, कुछ नया रचा तो क्रिएटिव हो गया. मगर आमतौर पर वह कोई नई रचना होती ही नहीं. वह सिर्फ रीअरेन्ज्मन्ट होता है, पुनर्व्यवस्था होती है, पुनर्विन्यास होता है. जो आपने पढ़ा, सुना, देखा, सीखा, अनुभव किया, विचार किया, उसी को एक नए तरीके से कह दिया. कुछ इधर से लिया, कुछ उधर से लिया, जोड़ा-जाड़ा और एक नई रचना बना दी. इसमें नया क्या हुआ? इससे अधिक क्रिएटिव तो लेगो ब्लॉक्स से खिलौने बनाने वाला बच्चा कर लेता है. उसकी कल्पनाशीलता अधिक होती है. उसकी कल्पना की उड़ान कहीं ऊँची होती है.
तो फिर क्रिएटिव क्या होता है? कब होता है? क्रिएटिव तब होता है जब आप अपनी व्यक्तिगत रचनात्मकता की सीमा से आगे निकलते हैं. जब आप कुछ ऐसा रचते हैं जो आपने न पढ़ा, न सुना, न देखा और न ही अनुभव किया. जो न आपकी जानकारी में है, न आपके ज्ञान में है और न ही आपकी अनुभूति में. बिल्कुल नया. और आमतौर पर वह बिल्कुल नया रचना की प्रक्रिया में ही निकल आता है. रचते-रचते आप कहीं थकते हैं, कहीं अटकते हैं, कहीं ठहरते हैं, कहीं विश्राम लेते हैं और फिर अचानक यूरेका. कुछ बिल्कुल नया स्फुटित होता है. वह नया ज़रूरी नहीं है कि किसी और के लिए भी बिल्कुल नया हो. क्रिएटिव का अर्थ यह नहीं है कि कुछ ऐसा रचा जाए जो आजतक किसी ने नहीं रचा. यदि आप सिर्फ विचारों को रीअरेन्ज कर लें, कहानियों को तोड़-मरोड़ लें, पहले के बने हुए बिल्डिंग-ब्लॉक्स को आगे-पीछे कर लें तो इतने पर्म्यूटैशन और कॉम्बिनेशन बन सकते हैं कि हर बार कोई नई कविता, कोई नई कहानी, कोई नया आलेख, कोई नया उपन्यास निकल आए. मगर उसमें कुछ नया नहीं होता. वही होता है जो आप पहले से जानते हैं. हाँ बहुतों के लिए वह नया हो सकता है. क्योंकि वे वो सब नहीं जानते, उन्होने वह पढ़ा नहीं होता, उन्होने वह अनुभव नहीं किया होता. उनके लिए वह महान सृजन होता है. उनके लिए आप महान रचनाकार होते हैं. मगर आप अपने स्वयं के लिए कुछ नए नहीं होते. कुछ विकसित हुए नहीं होते.
अपने स्वयं के लिए नए होने का अर्थ यह भी नहीं होता कि आप हर किसी के लिए नए हों. जो आपने रचा वह किसी और ने न रचा हो, किसी और ने सोचा न हो, कल्पना न की हो. जब जेम्स वाट ने भाप की शक्ति को पहचाना तब ऐसा ज़रूरी नहीं था कि उनसे पहले किसी और ने भाप की शक्ति को नहीं पहचाना था. बहुत संभव है कइयों ने पहचाना हो. कइयों ने अपने स्तर पर, अपने कुछ स्थानीय प्रयोग भी किए होंगे. वे भाप की शक्ति का सिद्धांत देने वाले पहले व्यक्ति नहीं बन पाए ये अलग बात है. जेम्स वाट बन गए क्योंकि वो अंग्रेज़ थे. उस ब्रिटेन के थे जो उस समय की वैचारिक और वैज्ञानिक क्रांति में विश्व में अग्रणी था. वैसे जेम्स वाट मेरे ही शहर बर्मिंघम के ही थे. यहीं उन्होने भाप का पहला इंजन भी बनाया था और यहीं उनकी कब्र और मक़बरा भी है.
तो खैर क्रिएटिव कैसे हों? क्रिएटिव होने की पहली शर्त होती है स्वयं से ऊपर उठना. अपने अहंकार या ईगो से ऊपर उठना. निज से वैश्विक होना. व्यक्ति से सार्वभौमिक होना. विचारों में डूबना नहीं बल्कि विचारातीत होना, मन में गोते लगाना नहीं बल्कि अमन होना. अपनी व्यक्तिगत चेतना से उपर उठकर वैश्विक चेतना से जुड़ना. अपनी समस्या, अपनी पीड़ा, अपने सुख-दुःख, अपनी अनुभूतियों, अपने सपनों के बजाय मनुष्य की समस्या, मनुष्य की पीड़ा, मनुष्य के सुख-दुःख, मनुष्य की अनुभूतियों, मनुष्य के सपनो की बात कहना. हर रचनाकार के लिए पूरी तरह मौलिक, सृजनात्मक या क्रिएटिव होने के लिए यह एक नितांत अनिवार्य शर्त है. वरना आप सिर्फ रीअरेन्ज करते रह जाएँगे.
यहाँ एक बात और ध्यान देने लायक है और वह है ‘मनुष्य’, ‘मानव’. मानव अर्थात वैश्विक मानव. सम्पूर्ण मानव प्रजाति. यदि आप विश्व के सारे क्लासिक्स उठाकर देख लें तो उनमें अधिकांश वैश्विक मानव की कहानी कहते हैं. वह भले किसी एक मानव पात्र के ज़रिए हो मगर वह कहानी पूरी मानव प्रजाति की मूल समस्याओं, मूल संघर्षों, आम पीडाओं और आम सपनों की कहानियाँ होती हैं. उन कहानियों के पात्र भले किसी एक जाति, किसी एक नस्ल, किसी एक जेंडर या किसी एक सम्प्रदाय के हों, मगर वे किसी एक जाति, किसी एक नस्ल, किसी एक जेंडर या किसी एक सम्प्रदाय की कहानियाँ नहीं होतीं. वह भले ग़ुलामी से लड़ते किसी काले अफ्रीकी या किसी भारतीय दलित की कहानी लगे मगर वह उस नस्ल या उस जाति की कहानी नहीं होती, वह हर दास, हर ग़ुलाम की पीड़ा और संघर्ष की कहानी होती है. वह भले किसी गोरे अंग्रेज़ या किसी हिन्दुस्तानी सामंत के दम्भ और दमन की कहानी लगे मगर वह हर उत्पीड़क, हर आततायी की कहानी होती है. और मानव जीवन की विडंबना यह भी है कि हर ग़ुलाम भी किसी न किसी स्तर पर उत्पीड़क होता है, और हर उत्पीड़क भी किसी न किसी स्तर पर दास होता है.
एक क्लासिक, एक महान रचना तभी बनती है जब वह यूनिवर्सल मैन की कहानी कहे, फिर चाहे वह यूनिवर्सल हीरो हो, यूनिवर्सल विलेन हो या दोनों ही रूप एक ही चरित्र में समाए बैठा हो. .
तो फिर क्रिएटिव क्या होता है? कब होता है? क्रिएटिव तब होता है जब आप अपनी व्यक्तिगत रचनात्मकता की सीमा से आगे निकलते हैं. जब आप कुछ ऐसा रचते हैं जो आपने न पढ़ा, न सुना, न देखा और न ही अनुभव किया. जो न आपकी जानकारी में है, न आपके ज्ञान में है और न ही आपकी अनुभूति में. बिल्कुल नया. और आमतौर पर वह बिल्कुल नया रचना की प्रक्रिया में ही निकल आता है. रचते-रचते आप कहीं थकते हैं, कहीं अटकते हैं, कहीं ठहरते हैं, कहीं विश्राम लेते हैं और फिर अचानक यूरेका. कुछ बिल्कुल नया स्फुटित होता है. वह नया ज़रूरी नहीं है कि किसी और के लिए भी बिल्कुल नया हो. क्रिएटिव का अर्थ यह नहीं है कि कुछ ऐसा रचा जाए जो आजतक किसी ने नहीं रचा. यदि आप सिर्फ विचारों को रीअरेन्ज कर लें, कहानियों को तोड़-मरोड़ लें, पहले के बने हुए बिल्डिंग-ब्लॉक्स को आगे-पीछे कर लें तो इतने पर्म्यूटैशन और कॉम्बिनेशन बन सकते हैं कि हर बार कोई नई कविता, कोई नई कहानी, कोई नया आलेख, कोई नया उपन्यास निकल आए. मगर उसमें कुछ नया नहीं होता. वही होता है जो आप पहले से जानते हैं. हाँ बहुतों के लिए वह नया हो सकता है. क्योंकि वे वो सब नहीं जानते, उन्होने वह पढ़ा नहीं होता, उन्होने वह अनुभव नहीं किया होता. उनके लिए वह महान सृजन होता है. उनके लिए आप महान रचनाकार होते हैं. मगर आप अपने स्वयं के लिए कुछ नए नहीं होते. कुछ विकसित हुए नहीं होते.
अपने स्वयं के लिए नए होने का अर्थ यह भी नहीं होता कि आप हर किसी के लिए नए हों. जो आपने रचा वह किसी और ने न रचा हो, किसी और ने सोचा न हो, कल्पना न की हो. जब जेम्स वाट ने भाप की शक्ति को पहचाना तब ऐसा ज़रूरी नहीं था कि उनसे पहले किसी और ने भाप की शक्ति को नहीं पहचाना था. बहुत संभव है कइयों ने पहचाना हो. कइयों ने अपने स्तर पर, अपने कुछ स्थानीय प्रयोग भी किए होंगे. वे भाप की शक्ति का सिद्धांत देने वाले पहले व्यक्ति नहीं बन पाए ये अलग बात है. जेम्स वाट बन गए क्योंकि वो अंग्रेज़ थे. उस ब्रिटेन के थे जो उस समय की वैचारिक और वैज्ञानिक क्रांति में विश्व में अग्रणी था. वैसे जेम्स वाट मेरे ही शहर बर्मिंघम के ही थे. यहीं उन्होने भाप का पहला इंजन भी बनाया था और यहीं उनकी कब्र और मक़बरा भी है.
तो खैर क्रिएटिव कैसे हों? क्रिएटिव होने की पहली शर्त होती है स्वयं से ऊपर उठना. अपने अहंकार या ईगो से ऊपर उठना. निज से वैश्विक होना. व्यक्ति से सार्वभौमिक होना. विचारों में डूबना नहीं बल्कि विचारातीत होना, मन में गोते लगाना नहीं बल्कि अमन होना. अपनी व्यक्तिगत चेतना से उपर उठकर वैश्विक चेतना से जुड़ना. अपनी समस्या, अपनी पीड़ा, अपने सुख-दुःख, अपनी अनुभूतियों, अपने सपनों के बजाय मनुष्य की समस्या, मनुष्य की पीड़ा, मनुष्य के सुख-दुःख, मनुष्य की अनुभूतियों, मनुष्य के सपनो की बात कहना. हर रचनाकार के लिए पूरी तरह मौलिक, सृजनात्मक या क्रिएटिव होने के लिए यह एक नितांत अनिवार्य शर्त है. वरना आप सिर्फ रीअरेन्ज करते रह जाएँगे.
यहाँ एक बात और ध्यान देने लायक है और वह है ‘मनुष्य’, ‘मानव’. मानव अर्थात वैश्विक मानव. सम्पूर्ण मानव प्रजाति. यदि आप विश्व के सारे क्लासिक्स उठाकर देख लें तो उनमें अधिकांश वैश्विक मानव की कहानी कहते हैं. वह भले किसी एक मानव पात्र के ज़रिए हो मगर वह कहानी पूरी मानव प्रजाति की मूल समस्याओं, मूल संघर्षों, आम पीडाओं और आम सपनों की कहानियाँ होती हैं. उन कहानियों के पात्र भले किसी एक जाति, किसी एक नस्ल, किसी एक जेंडर या किसी एक सम्प्रदाय के हों, मगर वे किसी एक जाति, किसी एक नस्ल, किसी एक जेंडर या किसी एक सम्प्रदाय की कहानियाँ नहीं होतीं. वह भले ग़ुलामी से लड़ते किसी काले अफ्रीकी या किसी भारतीय दलित की कहानी लगे मगर वह उस नस्ल या उस जाति की कहानी नहीं होती, वह हर दास, हर ग़ुलाम की पीड़ा और संघर्ष की कहानी होती है. वह भले किसी गोरे अंग्रेज़ या किसी हिन्दुस्तानी सामंत के दम्भ और दमन की कहानी लगे मगर वह हर उत्पीड़क, हर आततायी की कहानी होती है. और मानव जीवन की विडंबना यह भी है कि हर ग़ुलाम भी किसी न किसी स्तर पर उत्पीड़क होता है, और हर उत्पीड़क भी किसी न किसी स्तर पर दास होता है.
एक क्लासिक, एक महान रचना तभी बनती है जब वह यूनिवर्सल मैन की कहानी कहे, फिर चाहे वह यूनिवर्सल हीरो हो, यूनिवर्सल विलेन हो या दोनों ही रूप एक ही चरित्र में समाए बैठा हो. .
Published on December 19, 2018 03:08
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क-र-एट-व, क-र-एट-व-ट, क-ल-स-क, म-ल-कत
December 8, 2018
इरॉटिक रोमांस – साहित्य वही है जो पाठक के मन को छुए
इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस की हिंदी में लोगों को समझ काफी कम है. पाठकों को भी और लेखकों को भी. आमतौर पर हिंदी में इरॉटिका उसे कह दिया जाता है जिसमें सेक्स का चित्रण हो. लेकिन महज सेक्स के चित्रण से कोई भी रचना इरॉटिका या इरॉटिक रोमांस नहीं हो जाती.
इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस को समझने से पहले उनके बीच का अंतर समझ लें. इरॉटिका में सेक्स महत्वपूर्ण है. रोमांस ज़रूरी नहीं है. इरॉटिक रोमांस में सेक्स के साथ रोमांस भी ज़रूरी है. नायक और नायिका के बीच भावनात्मक सम्बन्ध होना ज़रूरी है. उनकी भावनाओं पर और उनके भावनात्मक सम्बन्ध पर उनके यौन सम्बन्ध और उनकी यौन इच्छाओं के असर का वर्णन ज़रूरी है.
अब देखते हैं कि इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस में सेक्स की क्या भूमिका होनी चाहिए. पहली बात तो यह कि उसमें सेक्स का कोरा चित्रण नहीं होना चाहिए. सेक्स का कोरा चित्रण पोर्न होता है. उसमें इरॉटिक कुछ नहीं होता है. इरॉटिक होने के लिए उसमें नायक या नायिका की यौन इच्छाओं और कल्पनाओं या फैंटेसियों का वर्णन बहुत ज़रूरी है. उन्हें कौन सी बातें या चीज़ें उत्तेजित करती हैं. चाहे वे विपरीत सेक्स के व्यक्ति के रंग-रूप, वेशभूषा या व्यवहार से सम्बन्धित हों या कुछ और जैसे कि किसी वस्तु का स्पर्श या कोई सुगंध. उनकी किस तरह की यौन कल्पनाएँ हैं, किस तरह के सेक्सुअल फेटिश हैं, और वे उनके सम्बन्ध पर क्या असर डालते हैं. इन बातों के बिना कोई भी रचना इरॉटिका या इरॉटिक रोमांस नहीं कहला सकती. एक बार फिर कहूँ, कोरा सेक्स पोर्न होता है, और पोर्न और इरॉटिका अलग-अलग चीज़ें हैं.
इसके अलावा इरॉटिका या इरॉटिक रोमांस लिखते समय दो और बातों का ध्यान रखना ज़रूरी होता है. इन दोनों बातों के मूल में एक ही बात है. हर किसी की यौन कल्पनाएँ अलग-अलग होती हैं. पुरुषों और स्त्रियों की अलग-अलग होती हैं. पुरुषों और स्त्रियों में अलग-अलग की अलग-अलग होती हैं. अधिकांश को वनीला सेक्स या जो नार्मल सेक्स होता है वही पसंद होता है, जबकि कई लोग BDSM पसंद करते हैं. उनमें भी कई लोग हार्डकोर BDSM पसंद करते हैं जिसमें कि नार्मल सेक्स या इंटरकोर्स होता ही नहीं है. फिर हर किसी को अलग-अलग चीज़ें उत्तेजित करती हैं. उनके सेक्सुअल फेटिश अलग-अलग होते हैं. BDSM में भी कोई डोमिनेंट होता है तो कोई सब्मिसिव.
तो जो दो बातें जिनका ध्यान रखना ज़रूरी है उनमें पहली बात तो यह कि नायक और नायिका का शारीरिक चित्रण करते समय बहुत अधिक डिटेल न दें. काफी कुछ पाठकों की कल्पनाओं के लिए छोड़ दें. यदि आपने पूरी तस्वीर खींच दी, पाठक की आँखों के सामने लाकर खड़ा कर दिया और यदि पाठक को उस तरह का पुरुष या स्त्री पसंद न हो तो वह इरॉटिक अंशों में आनंद नहीं ले पायेगा.
दूसरी बात यह कि इरॉटिक अंशों में जितनी विविधता हो उतना ही अच्छा है. नायक और नायिका की कल्पनाएँ अलग-अलग हों, उनके बीच कुछ टकराव भी हों, कुछ समझौते भी हों. ये बातें न सिर्फ पाठकों के बड़े वर्ग को उत्तेजित करती हैं, बल्कि उन्हें भावनात्मक रूप से बाँधे भी रखती हैं. साहित्य वही है जो पाठक के मन को छुए, उसे भावनात्मक रूप से बाँधे. सिर्फ कोरी उत्तेजना देने वाली रचना पोर्न होती है. आप उसे साहित्य कह लें, मैं नहीं कहूँगा.
इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस को समझने से पहले उनके बीच का अंतर समझ लें. इरॉटिका में सेक्स महत्वपूर्ण है. रोमांस ज़रूरी नहीं है. इरॉटिक रोमांस में सेक्स के साथ रोमांस भी ज़रूरी है. नायक और नायिका के बीच भावनात्मक सम्बन्ध होना ज़रूरी है. उनकी भावनाओं पर और उनके भावनात्मक सम्बन्ध पर उनके यौन सम्बन्ध और उनकी यौन इच्छाओं के असर का वर्णन ज़रूरी है.
अब देखते हैं कि इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस में सेक्स की क्या भूमिका होनी चाहिए. पहली बात तो यह कि उसमें सेक्स का कोरा चित्रण नहीं होना चाहिए. सेक्स का कोरा चित्रण पोर्न होता है. उसमें इरॉटिक कुछ नहीं होता है. इरॉटिक होने के लिए उसमें नायक या नायिका की यौन इच्छाओं और कल्पनाओं या फैंटेसियों का वर्णन बहुत ज़रूरी है. उन्हें कौन सी बातें या चीज़ें उत्तेजित करती हैं. चाहे वे विपरीत सेक्स के व्यक्ति के रंग-रूप, वेशभूषा या व्यवहार से सम्बन्धित हों या कुछ और जैसे कि किसी वस्तु का स्पर्श या कोई सुगंध. उनकी किस तरह की यौन कल्पनाएँ हैं, किस तरह के सेक्सुअल फेटिश हैं, और वे उनके सम्बन्ध पर क्या असर डालते हैं. इन बातों के बिना कोई भी रचना इरॉटिका या इरॉटिक रोमांस नहीं कहला सकती. एक बार फिर कहूँ, कोरा सेक्स पोर्न होता है, और पोर्न और इरॉटिका अलग-अलग चीज़ें हैं.
इसके अलावा इरॉटिका या इरॉटिक रोमांस लिखते समय दो और बातों का ध्यान रखना ज़रूरी होता है. इन दोनों बातों के मूल में एक ही बात है. हर किसी की यौन कल्पनाएँ अलग-अलग होती हैं. पुरुषों और स्त्रियों की अलग-अलग होती हैं. पुरुषों और स्त्रियों में अलग-अलग की अलग-अलग होती हैं. अधिकांश को वनीला सेक्स या जो नार्मल सेक्स होता है वही पसंद होता है, जबकि कई लोग BDSM पसंद करते हैं. उनमें भी कई लोग हार्डकोर BDSM पसंद करते हैं जिसमें कि नार्मल सेक्स या इंटरकोर्स होता ही नहीं है. फिर हर किसी को अलग-अलग चीज़ें उत्तेजित करती हैं. उनके सेक्सुअल फेटिश अलग-अलग होते हैं. BDSM में भी कोई डोमिनेंट होता है तो कोई सब्मिसिव.
तो जो दो बातें जिनका ध्यान रखना ज़रूरी है उनमें पहली बात तो यह कि नायक और नायिका का शारीरिक चित्रण करते समय बहुत अधिक डिटेल न दें. काफी कुछ पाठकों की कल्पनाओं के लिए छोड़ दें. यदि आपने पूरी तस्वीर खींच दी, पाठक की आँखों के सामने लाकर खड़ा कर दिया और यदि पाठक को उस तरह का पुरुष या स्त्री पसंद न हो तो वह इरॉटिक अंशों में आनंद नहीं ले पायेगा.
दूसरी बात यह कि इरॉटिक अंशों में जितनी विविधता हो उतना ही अच्छा है. नायक और नायिका की कल्पनाएँ अलग-अलग हों, उनके बीच कुछ टकराव भी हों, कुछ समझौते भी हों. ये बातें न सिर्फ पाठकों के बड़े वर्ग को उत्तेजित करती हैं, बल्कि उन्हें भावनात्मक रूप से बाँधे भी रखती हैं. साहित्य वही है जो पाठक के मन को छुए, उसे भावनात्मक रूप से बाँधे. सिर्फ कोरी उत्तेजना देने वाली रचना पोर्न होती है. आप उसे साहित्य कह लें, मैं नहीं कहूँगा.
Published on December 08, 2018 13:06
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bdsm, इर-ट-क, इर-ट-क-र-म-स
July 5, 2018
साहित्य में भाषा का महत्व
आम पाठकों की भाषा में लिखना अच्छा है। लेखन सरल और सुबोध हो तो अधिक पढ़ा भी जाता है और बेहतर समझा भी जाता है। मगर साहित्य मात्र संदेश नहीं होता कि सुबोध होना उसकी अनिवार्यता हो और न ही भाषा का एकमात्र उद्देश्य संवाद करना होता है। संदेश और संवाद तो पशुओं में भी किसी न किसी रूप में होते ही हैं मगर वे साहित्य नहीं रचते। और क्या पता रचते भी हों और उसी के ज़रिये उनकी चेतना का विकास होकर उनके एवोलुशन में सहयोग करता हो।
मगर जहाँ तक हमारे साहित्य का प्रश्न है उसका उद्द्देश्य मनोरंजन करने और संदेश देने के साथ ही मानव चेतना का विकास और परिमार्जन करना भी होता है और इस प्रक्रम में भाषा समृद्धि और परिष्कृत भी होती है। साहित्यकार न सिर्फ शब्दों के उनके प्रचलित अर्थों में उपयोग करते हैं बल्कि उन्हें नये अर्थ भी देते हैं और नये शब्द गढ़ते भी हैं। वे नये मुहावरे भी बनाते हैं और नई उपमाएँ और नये प्रतीक भी रचते हैं। कुल मिलाकर लेखक भाषा के सिर्फ उपयोगकर्ता ही नहीं बल्कि उसके शिल्पी भी होते हैं। और यदि मात्र उपयोगकर्ता भी हों तो भी शब्द सिर्फ शब्दकोश में पड़े रहने के लिये तो नहीं होते।
वैसे भाषा के लिए कोई तयशुदा नियम नहीं हैं। कोई ठीक ठाक गाइडलाइन भी नहीं है। मेरे विचार से भाषा विषय, पृष्ठभूमि और परिवेश पर निर्भर करती है। 'समरसिद्धा' की भाषा 'डार्क नाइट' की भाषा नहीं हो सकती। कबीर और टीना, गुंजन और शत्वरी की भाषा नहीं बोल सकते। बोलेंगे तो अटपटा सा लगेगा।
समरसिद्धा की भाषा की बात चली तो ध्यान आया कि सुरेंद्र मोहन पाठक जी ने उपन्यास पढ़कर टिप्पणी की कि प्राचीन भारत की पृष्ठभूमि में रचे उपन्यास में उर्दू के शब्द खटकते हैं। उनकी टिप्पणी पर ध्यान देते हुए पुस्तक के नए संस्करण में उर्दू के शब्दों को हिंदी के शब्दों से बदला गया। फिर मैंने कृष्ण चन्दर जी का उपन्यास 'एक वायलिन समुन्दर के किनारे' पढ़ा। इस उपन्यास में तो उन्होंने पौराणिक पात्रों से भी भारी-भरकम उर्दू बुलवा दी। शिव, पार्वती, सरस्वती सभी उर्दू बोल रहे हैं। थोड़ा अटपटा भी लगा मगर क्या करें। संदीप नैयर से कहा जा सकता है कि यहाँ यह ठीक नहीं लग रहा है। कृष्ण चन्दर से किसने कहा होगा?
फिर भी भाषा और उसके शिल्प का अपना महत्व है। हर जगह एक सी भाषा अच्छी नहीं लग सकती। उपयुक्त भाषा और शैली न हो तो लेखन अपना महत्व खो देता है। एक गीत है -
"इक चमेली के मंडवे तले,
मैक़दे से ज़रा दूर उस मोड़ पर,
दो बदन प्यार की आग में जल गए।"
इन पंक्तियों का सौंदर्य इसकी भाषा में ही है, भाव में नहीं। अब इसे ही आम बोलचाल की भाषा में लिख दें -
"पेड़ के नीचे छोरा-छोरी,
ठेके से बस दूरी थोरी,
लिपटा लिपटी होरी होरी।"
भाषा बदली और भाव बदल गए। मुग़ले आज़म का मवाली हो गया। और यदि एक ही पिक्चर हो, एक ही कहानी हो, एक ही पृष्ठभूमि हो तो भी दृश्य और किरदारों के साथ भाषा बदल जाएगी।
कोई गाएगा, 'आपकी महकी हुई ज़ुल्फ़ को कहते हैं घटा, आपकी मद भरी आँखों को कँवल कहते हैं।'
कोई गाएगा, 'जानेमन तुम कमाल करती हो'
और कोई और गाएगा, 'गापुची गापुची गम गम., किसिकी किसिकी कम कम....'
मगर जहाँ तक हमारे साहित्य का प्रश्न है उसका उद्द्देश्य मनोरंजन करने और संदेश देने के साथ ही मानव चेतना का विकास और परिमार्जन करना भी होता है और इस प्रक्रम में भाषा समृद्धि और परिष्कृत भी होती है। साहित्यकार न सिर्फ शब्दों के उनके प्रचलित अर्थों में उपयोग करते हैं बल्कि उन्हें नये अर्थ भी देते हैं और नये शब्द गढ़ते भी हैं। वे नये मुहावरे भी बनाते हैं और नई उपमाएँ और नये प्रतीक भी रचते हैं। कुल मिलाकर लेखक भाषा के सिर्फ उपयोगकर्ता ही नहीं बल्कि उसके शिल्पी भी होते हैं। और यदि मात्र उपयोगकर्ता भी हों तो भी शब्द सिर्फ शब्दकोश में पड़े रहने के लिये तो नहीं होते।
वैसे भाषा के लिए कोई तयशुदा नियम नहीं हैं। कोई ठीक ठाक गाइडलाइन भी नहीं है। मेरे विचार से भाषा विषय, पृष्ठभूमि और परिवेश पर निर्भर करती है। 'समरसिद्धा' की भाषा 'डार्क नाइट' की भाषा नहीं हो सकती। कबीर और टीना, गुंजन और शत्वरी की भाषा नहीं बोल सकते। बोलेंगे तो अटपटा सा लगेगा।
समरसिद्धा की भाषा की बात चली तो ध्यान आया कि सुरेंद्र मोहन पाठक जी ने उपन्यास पढ़कर टिप्पणी की कि प्राचीन भारत की पृष्ठभूमि में रचे उपन्यास में उर्दू के शब्द खटकते हैं। उनकी टिप्पणी पर ध्यान देते हुए पुस्तक के नए संस्करण में उर्दू के शब्दों को हिंदी के शब्दों से बदला गया। फिर मैंने कृष्ण चन्दर जी का उपन्यास 'एक वायलिन समुन्दर के किनारे' पढ़ा। इस उपन्यास में तो उन्होंने पौराणिक पात्रों से भी भारी-भरकम उर्दू बुलवा दी। शिव, पार्वती, सरस्वती सभी उर्दू बोल रहे हैं। थोड़ा अटपटा भी लगा मगर क्या करें। संदीप नैयर से कहा जा सकता है कि यहाँ यह ठीक नहीं लग रहा है। कृष्ण चन्दर से किसने कहा होगा?
फिर भी भाषा और उसके शिल्प का अपना महत्व है। हर जगह एक सी भाषा अच्छी नहीं लग सकती। उपयुक्त भाषा और शैली न हो तो लेखन अपना महत्व खो देता है। एक गीत है -
"इक चमेली के मंडवे तले,
मैक़दे से ज़रा दूर उस मोड़ पर,
दो बदन प्यार की आग में जल गए।"
इन पंक्तियों का सौंदर्य इसकी भाषा में ही है, भाव में नहीं। अब इसे ही आम बोलचाल की भाषा में लिख दें -
"पेड़ के नीचे छोरा-छोरी,
ठेके से बस दूरी थोरी,
लिपटा लिपटी होरी होरी।"
भाषा बदली और भाव बदल गए। मुग़ले आज़म का मवाली हो गया। और यदि एक ही पिक्चर हो, एक ही कहानी हो, एक ही पृष्ठभूमि हो तो भी दृश्य और किरदारों के साथ भाषा बदल जाएगी।
कोई गाएगा, 'आपकी महकी हुई ज़ुल्फ़ को कहते हैं घटा, आपकी मद भरी आँखों को कँवल कहते हैं।'
कोई गाएगा, 'जानेमन तुम कमाल करती हो'
और कोई और गाएगा, 'गापुची गापुची गम गम., किसिकी किसिकी कम कम....'
Published on July 05, 2018 14:04
July 1, 2018
डार्क नाइट - पुस्तक अंश 5

अगले दिन का प्लेटाइम कबीर के लिए एक सुखद आश्चर्य लेकर आया। हालाँकि प्लेटाइम उसके लिए कुछ ख़ास प्लेटाइम नहीं हुआ करता था। हिकमा वाली घटना के बाद वह हर उस चीज़ से बचने की कोशिश करता था जो उसे किसी परेशानी या दिक्कत में डाल सके, यानि लगभग हर चीज़ से। उस दिन भी वह अकेले ही बैठा था कि उसे हिकमा दिखाई दी, मुस्कुराकर उसकी ओर देखते हुए। कबीर को हिकमा की मुस्कुराहट का राज़ समझ नहीं आया। उसे तो कबीर से नाराज़ होना चाहिए था, और नाराज़गी में मुस्कान कैसी? मगर उसकी मुस्कुराहट के बावज़ूद कबीर के लिए उससे नज़रें मिलाना कठिन था। उसने तुरंत पलकें झुकाईं और आँखें दूसरी ओर फेर लीं। या यूँ कहें कि पलकें अपने आप झुकीं और आँखें फिर गईं। मगर ऐसा होने पर उसे थोड़ा बुरा भी लगा। सभ्यता का तकाज़ा था कि जब हिकमा मुस्कुराकर देख रही थी तो एक मुस्कान कबीर को भी लौटानी चाहिए थी। मगर एक तो उसकी हिम्मत हिकमा से आँखें मिलाने की नहीं हो रही थी, दूसरा हिकमा के थप्पड़ की वजह से थोड़ी सी नाराज़गी उसे भी थी और तीसरा कूल का ऐटिटूड दिखाने का सुझाव।
अभी कबीर यह तय भी नहीं कर पाया था कि हिकमा की मुस्कुराहट का जवाब किस तरह दे कि उसे एक मीठी सी आवाज़ सुनाई दी, ‘हाय कबीर!’
उसने नज़रें उठा कर देखा सामने हिकमा खड़ी थी। उसके होठों पर अपने आप एक मुस्कराहट आ गई और उस मुस्कराहट से निकल भी पड़ा, ‘हाय!’
कबीर ने उठकर एक नज़र हिकमा के चेहरे को देखा, फिर नज़र भर कर देखा, मगर उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे। थोड़ा संभलते हुए उसने कहा, ‘सॉरी हिकमा..’
इतना सुनते ही हिकमा हँस पड़ी, ‘इस बार तुमने मेरा नाम सही लिया है।’
हिकमा के हँसते ही कबीर के मन से थोड़ा बोझ उतर गया और साथ ही उतर गई उसकी बची-खुची नाराज़गी।
‘आई एम सॉरी..’ इस बार उसने हल्के मन से कहना चाहा।
‘डोंट से सॉरी, मुझे पता है कि ग़लती तुम्हारी नहीं थी।’ हिकमा ने अपनी मुस्कराहट बरकरार रखते हुए कहा।
हिकमा से यह सुनकर कबीर की ख़ुशी का ठिकाना न रहा।
‘तुम्हें कैसे पता चला?’ वह लगभग चहक उठा।
‘कबीर मेरे साथ इस तरह के मज़ाक होते रहते हैं। मेरा नाम ही कुछ ऐसा है। मगर जब मुझे पता चला कि तुम यहाँ नए हो मुझे लगा कि यह किसी और की शरारत रही होगी।’
‘थैंक यू’ ख़ुशी कबीर के चेहरे पर ठहर नहीं रही थी। हिकमा के लिए उसका प्यार और भी बढ़ गया।
‘कबीर आई एम सॉरी दैट...’
‘नो नो...प्लीज़ डोंट से सॉरी, इट्स आल राईट।’
वही हुआ जो कबीर ने सोचा था। वह हिकमा को ऐटिटूड दिखा नहीं सका। हिकमा ने उसे माफ़ कर दिया, उसने हिकमा को माफ़ कर दिया। अब बात आगे बढ़ानी थी। कबीर ने बेसब्री से हिकमा की ओर मुस्कुराकर देखा कि वह कुछ और कहे।
‘अच्छा बाय, क्लास का टाइम हो रहा है।’ उसने बस इतना ही कहा और पलट कर अपने क्लास रूम की ओर बढ़ गई।
हिकमा से कबीर ने जो कुछ सुना और उससे जो कुछ कहा उस पर उसे यकीन नहीं हो रहा था। कबीर के लिए हिकमा से इतना सुनना भी बहुत था कि वह उससे नाराज़ नहीं थी। मगर फिर भी वह उससे और भी बहुत कुछ सुनना चाहता था, उसे और भी बहुत कुछ कहना चाहता था।
अगले कुछ दिन प्ले-टाइम और डिनर ब्रेक में कबीर की नज़रें हिकमा से मिलती रहीं। हिकमा कबीर को देख कर मुस्कुराती और कबीर उसे देख कर मुस्कुराता। इससे अधिक कुछ और न हो पाता। प्ले-टाइम में हिकमा अपने साथियों के साथ होती। कबीर अक्सर अकेला ही होता। हालांकि कबीर ने कूल को माफ़ कर दिया था। हैरी से भी उसे कोई ख़ास नाराज़गी नहीं थी। फिर भी उसे अकेले रहना ही अच्छा लगता। डिनर ब्रेक में भी वे अलग-अलग ही बैठते। हिकमा डिनर थी, कबीर सैंडविच था।
एक दिन कबीर ने हिकमा को अकेले पाया। इससे बेहतर मौका नहीं हो सकता था उससे बात करने का। कुछ हिम्मत बटोर कर कबीर उसके पास गया।
‘हाय!’
‘हाय!’ हिकमा ने मुस्कुराकर कहा।
‘हाउ आर यू?’
‘आई एम फाइन, थैंक्स।’
हिकमा का थैंक्स कहना कबीर को थोड़ी औपचारिकता लगा। उसके आगे उसे समझ नहीं आया कि वह क्या कहे। कुछ देर के लिए उसका दिमाग बिल्कुल ब्लैंक रहा फिर अचानक उसके मुँह से निकला, ‘डू यू लाइक बटाटा वड़ा?’
‘बटाटा वड़ा?’ हिकमा ने आश्चर्य से पूछा।
‘हाँ बटाटा वड़ा।’
‘ये क्या होता है?’
‘आलू से बनता है, स्पाइसी, डीप फ्राई।’
‘यू मीन समोसा?’
‘नहीं नहीं, समोसे में मैदे की कोटिंग होती है, ये बेसन से बनता है।’
‘ओह आई नो व्हाट यू मीन।’
‘खाओगी?’
‘अभी?’ हिकमा के चेहरे पर हैरत में लिपटी मुस्कान थी।
‘नहीं फिर कभी।’ उस समय घड़ी में दोपहर के दो बजे थे मगर कबीर के चेहरे पर बारह बजे हुए थे। वह सोच कुछ और रहा था और कह कुछ और रहा था। उसकी हालत देखकर हिकमा की हँसी छूट गई। कबीर को और भी शर्म महसूस हुई।
‘अच्छा, बाय।’ कबीर ने घबराकर कहा और वहाँ से लौट आया।
हिकमा के चेहरे पर हँसी बनी रही।
पंद्रह साल की उम्र वह उम्र होती है जिसमें कोई लड़का कभी किसी हसीन दोशीजा की जुस्तजू में समर्पण कर देना चाहता है और कभी किसी इंकलाब की आरज़ू में बगावत का परचम उठा लेना चाहता है। मगर इन दोनों चाहों के मूल में एक ही चाह होती है, ख़ूबसूरती की चाह। कभी आइने में झलकते अपने ही अक्स से मुहब्बत हो जाना तो कभी अपनी कमियों और सीमाओं से विद्रोह पर उतर आना, सब कुछ अनंत के सौन्दर्य को ख़ुद से लपेट लेने और ख़ुद में समेट लेने की क़वायद सा होता है। यह कभी नीम-नीम और कभी शहद-शहद सी क़वायद इंसान को कहाँ ले जाती है वह काफ़ी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि जिस मिट्टी पर यह क़वायद हो रही है वह कितनी सख्त है या कितनी नर्म। कबीर के लिए उस वक्त लंदन और उसकी अन्जानी तहज़ीब की मिट्टी काफ़ी सख्त थी जिस पर पाँव जमाने में उसे कुछ वक्त लगना था।
‘सरकार अंकल साबूदाना है’ कबीर ने भारत सरकार की दुकान पर उनसे पूछा। कबीर की माँ का उपवास था और उन्होंने कबीर को साबूदाना लाने भेजा था।
‘एक मिनट वेट कोरो, बीशमील शे माँगाता है।’ सरकार ने कहा।
‘बीस मील से आने में तो बहुत समय लग जाएगा, एक मिनट में कैसे आएगा?’ कबीर ने भोलेपन से कहा।
‘हामारा नौकर है बीशमील। बीशमील पीछे शे शॉबूदाना लाना।’ सरकार ने आवाज़ लगाई।
कबीर को समझ आ गया कि सरकार बिस्मिल को बीशमील कह रहा था।
कबीर साबूदाना के आने का इंतज़ार कर रहा था कि उसे दुकान के भीतर हिकमा आती दिखाई दी। कबीर हिकमा को देखकर ख़ुशी से चहक उठा, ‘हाय हिकमा!’
‘हाय कबीर, हाउ आर यू?’
‘मैं अच्छा हूँ, तुम क्या लेने आई हो?’
‘बेसन, इन्टरनेट पर बटाटा वड़ा की रेसिपी पढ़ी है, आज बनाऊँगी।’
‘तुम बनाओगी, बटाटा वड़ा?’ कबीर ने आश्चर्य में डूबी ख़ुशी से पूछा। कबीर को ख़ुशी इस बात की थी कि हिकमा ने उसकी बात को गंभीरता से लिया था, वर्ना उसे तो यही लग रहा था कि उसने हिकमा के सामने अपना ख़ुद का मज़ाक उड़ाया था।
‘हाँ, तुम्हें यकीन नहीं है कि मैं कुक कर सकती हूँ?’
‘बना कर खिलाओगी तो यकीन हो जाएगा।’
‘ठीक है, कल स्कूल लंच में तुम मेरे हाथ का बना बटाटा वड़ा खाना।’
कबीर ने हिकमा को बटाटा वड़ा खिलाने के लिए तो कह दिया पर उसे फिर से स्कूल में अपना मज़ाक उड़ाए जाने का डर लगने लगा। इसी मज़ाक के डर से वह लंचबॉक्स में भारतीय खाना ले जाने की जगह सैंडविच ले जाने लगा था। लेकिन वह हिकमा के साथ बैठ कर उसके हाथ का बना बटाटा वड़ा खाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। उसने मुस्कुराकर कहा, ‘थैंक यू सो मच, और हाँ चाहे तो इसे टिप समझो या फिर रिक्वेस्ट मगर उसमें मीठी नीम ज़रूर डालना’
‘मीठी नीम?’ हिकमा ने शायद मीठी नीम का नाम नहीं सुना था।
‘करी लीव्स।’ कबीर ने स्पष्ट किया।
अगले दिन कबीर लंच में हिकमा के साथ बैठा था। वह अपने लंचबॉक्स में माँ के हाथ का बना आलू टिक्की सैंडविच लाया था। मगर उसकी सारी दिलचस्पी हिकमा के हाथ के बने बटाटा वड़ा में थी। हिकमा ने लंचबॉक्स खोला। लहसुन, अदरक और मीठी नीम की मिलीजुली खुशबू उसके डब्बे से उड़ी। कबीर को वह खुशबू भी ऐसी मादक लगी मानो हिकमा के शरीर से उड़ी किसी परफ्यूम की खुशबू हो। हिकमा ख़ुद डिनर थी। बटाटा वड़ा तो वह बस कबीर के लिए ही लाई थी।
‘वाह, अमेज़िंग! दिस इज़ रियली वेरी टेस्टी।’ कबीर ने बटाटा वड़ा का एक टुकड़ा खाते हुए कहा।
‘तुमने जो कुकिंग टिप दिया था ना, मीठी नीम डालने का, उससे और भी टेस्टी हो गया।’ हिकमा ने एक मीठी मुस्कान से कहा।
‘हे बटाटा वड़ा!’ अचानक दो टेबल दूर बैठे कूल की आवाज़ आई। कबीर ने उसे देखकर गन्दा सा मुँह बनाया और फिर किसी तरह अपनी भावभंगिमा ठीक करने की कोशिश करते हुए हिकमा की ओर देखा।
‘तुम कबीर को बटाटा वड़ा क्यों कहते हो?’ हिकमा ने कूल से पूछा। उसकी आवाज़ में हल्का सा गुस्सा था।
‘क्योंकि इसे बटाटा वड़ा पसंद है।’ कूल ने हँसते हुए कहा।
‘तब तो तुम्हारा नाम तंदूरी चिकन होना चाहिए।’ हिकमा ने एक ठहाका लगाया। हिकमा के साथ कबीर और कूल भी हँस पड़े।
‘और तुम्हें क्या कहना चाहिए?’ कूल ने आँखें मटकाते हुए पूछा।
‘मीठी नीम।’ हिकमा ने फिर वही मीठी मुस्कान बिखेरी। कबीर बहुत देर तक उस मीठी मुस्कान को देखता रहा।
‘इतनी अच्छी कुकिंग कहाँ से सीखी?’ कबीर ने हिकमा की मुस्कान पर नज़रें जमाए हुए ही पूछा.
‘मेरे डैड कश्मीरी हैं और मॉम इंग्लिश हैं। डैड को इंडियन खाना बहुत पसंद है और मॉम को इंडियन कुकिंग नहीं आती थी। इसलिए मॉम कुकिंग बुक्स और मैगज़ीन्स में रेसिपी पढ़ कर खाना बनाती थीं। घर पर हर वक्त ढेरों कुकिंग बुक्स और मैगज़ीन्स होती थीं। उन्हें पढ़ पढ़ कर मुझे भी कुकिंग का शौक हो गया।’
‘ओह नाइस।’ कबीर को अब जाकर हिकमा के गोरे गुलाबी गालों का राज़ समझ आया।
‘तुम भी कुकिंग करते हो?’ हिकमा ने पूछा।
‘मैं बस अंडे उबाल लेता हूँ।’ कबीर ने हँसते हुए कहा।
‘टिपिकल इंडियन बॉय।’ हिकमा भी हँस पड़ी।
कुछ दिनों बाद कबीर के मामा-मामी यानि समीर के माता-पिता कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर गए, समीर को घर पर अकेला छोड़ कर। समीर जब घर पर अकेला होता था तो घर घर नहीं रहता था बल्कि क्लब हाउस होते हुए मैड हाउस बन जाता था। उस बार भी वैसा ही हुआ। समीर ने अपने साथियों को हाउस पार्टी पर अपने घर बुलाया। कबीर तो खैर वहाँ मौजूद था ही। आपको यह जानने की उत्सुकता होगी कि ब्रिटेन की टीनऐज पार्टियों में क्या होता है। टीनऐज पार्टियाँ हर जगह एक जैसी ही होती हैं। जब सोलह सत्रह साल के लड़के-लडकियाँ मिलते हैं तो वे आपकी और मेरी तरह किस्से सुनते-सुनाते नहीं हैं बल्कि अपनी सरगर्म हरकतों से किस्से रचते हैं। उस रात भी उस पार्टी में एक ख़ास किस्सा रचा गया।
टीनएज पार्टियों में दो चीज़ें अनिवार्य होती हैं, एक तो संगीत और दूसरी शराब। संगीत वही होता है जिस पर थिरका जा सके। मगर वैसा संगीत न भी हो तो भी जवान लड़के-लडकियाँ ख़ुद ही अपनी ताल पैदा कर लेते हैं। और जब शराब भीतर जाए तो फिर वो किसी ताल के मोहताज़ भी नहीं रहते। कुछ ही देर में वे या तो जोड़ो में बँट जाते हैं, या जोड़े बनाने में मशगूल हो जाते हैं और पार्टी खत्म होते तक कुछ नए जोड़ो की ताल मिल जाती है और कुछ पुराने जोड़ों की ताल टूट जाती है।
समीर के घर संगीत का इंतज़ाम तो पहले से ही था, सोनी का होम थिएटर बोस के स्पीकर्स के साथ। शराब का इंतज़ाम भी उसने कर लिया था। हालांकि ब्रिटेन में अठारह उम्र से कम के बच्चों का शराब खरीदना और माता-पिता की मर्ज़ी के बिना शराब पीना गैर-कानूनी है मगर समीर ने बिस्मिल के ज़रिये भारत सरकार की दुकान से शराब मंगा ली थी। वैसे बिस्मिल मज़हबी कारणों से ख़ुद शराब नहीं पीता था, मगर ऊपर से पैसे लेकर गैरकानूनी तरह से शराब बेचने में उसे कोई दिक्कत नहीं थी।
लगभग सात बजे समीर के साथी आना शुरू हुए। सबसे पहले आई टीना। टीना समीर की गर्लफ्रेंड थी। लम्बी गोरी सिख्खनी, यानि पंजाबी सिख लड़की।
‘हाय कबीर!’ टीना ने कबीर को देख कर हाथ आगे बढ़ाया।
कबीर को टीना को देख कर बहुत कुछ होता था। उसकी धड़कनें तेज़ हो जाती थीं और आँखें चोरबाज़ारी करने लगती थीं। मगर वह टीना से हाथ मिलाने का कोई मौका हाथ से जाने न देता। इस बार भी उसने तपाक से हाथ बढ़ाया, या यूँ कहें कि हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद बढ़ गया। मगर टीना का हाथ छूते ही उसकी धडकनें कुछ इस तेज़ी से बढ़ीं कि उसे लगा कि अगर तुरंत हाथ न हटाया तो उसका दिल सीने से उछल कर टीना के पैरों में जा गिरेगा। सो हाथ जिस तेज़ी से बढ़ा था उसी तेज़ी से पीछे भी आ गया। वैसे उसे ब्रिटेन की लड़कियों में यह बात बहुत अच्छी लगती थी, लड़कों से हाथ मिलाने में कोई शर्म या संकोच न करना और थोड़ी निकटता बढ़ने पर गले मिलने में भी वही तत्परता दिखाना। उस रात की पार्टी से कबीर यही उम्मीद लगाए हुआ था कि समीर की सखियों से उसकी निकटता गले लगने तक बढ़े।
थोड़ी ही देर में समीर के दूसरे साथी भी आना शुरू हो गए। कुछ जोड़ों में थे और कुछ अकेले थे। जो जोड़ों में थे उनके हाथ एक दूसरे की बाँहों या कमर में लिपटे हुए थे और जो अकेले थे उनके हाथ बोतलों पर लिपटे हुए थे, कुछ शराब की और कुछ कोकाकोला या स्प्राइट की, जिनके भीतर भी शराब ही थी। जो लडकियाँ अपने बॉयफ्रेंड के साथ थीं उन्होंने बहुत छोटे और तंग कपड़े पहने हुए थे, जो लडकियाँ अकेली थीं उन्होंने उनसे भी छोटे और तंग कपड़े पहने हुए थे। कबीर ने इतनी सारी और इतनी खूबसूरत लड़कियों को इतने कम और तंग कपड़ों में अपने इतने करीब पहली बार देखा था। उसे बचपन के वो दिन याद आने लगे जब वह किसी केक या पेस्ट्री की शॉप में पहुँच कर वहाँ सजी ढेरों रंग-बिरंगी, क्रीमी, फ्रूटी, चॉकलेटी पेस्ट्रियों को देख कर दीवाना हो जाता था और मुँह में भरा पानी कभी कभी लार के रूप में छलक कर टपक भी पड़ता था। मगर फ़र्क यह होता था कि वहाँ उसे एक या दो पेस्ट्री खरीद दी जाती जो मुँह के पानी में घुल कर उसकी लालसा पूरी कर जाती। यहाँ उसे अपनी लालसा पूरी करने की ऐसी कोई गुंज़ाइश नहीं दिख रही थी।
पार्टी शुरू हुई और युवा ऊर्जा चारों ओर बिखरने लगी। म्यूज़िक लाउड था और उस पर थिरकते क़दम तेज़ थे। लड़के-लड़कियों के हाथ कभी एक दूसरे की कमर जकड़ते तो कभी बियर की बोतल या शराब के प्याले पकड़ने को लपकते। उनके होंठ शराब के कुछ घूँट भीतर उड़ेलने को खुलते और फिर जाकर अपने साथी के होंठों पर चिपक जाते। धीरे-धीरे शराब उनके कदमों की ताल बिगाड़ने लगी और कुछ देर बाद सिर चढ़ कर बोलने लगी।
अचानक ही एक लड़का लहराकर फर्श पर गिरा और लोटने लगा। उसे गिरता देख कबीर घबराकर चीख उठा, ‘इसे क्या हुआ?’
‘नथिंग, ही जस्ट वांट्स टू लुक अंडर गर्ल्स स्कर्ट्स।’ समीर ने हँसते हुए कहा।
‘व्हाट कलर आर हर पैंटीज़, टेल मी व्हाट कलर आर हर पैंटीज़, ब्लैक इज़ सेक्सी, सेक्सी, ब्लू इज़ क्रेज़ी, क्रेज़ी...’ नशे में धुत्त एक लड़के ने गाना शुरू किया।
‘गाएस स्टॉप दिस, आई नीड टॉयलेट।’ अचानक टीना की चीखती हुई आवाज़ आई।
‘ओए किसी को टॉयलेट आ रही हो तो इसे दे दो, शी नीड्स टॉयलेट।’ एक सिख लडके ने ठहाका लगाया।
‘शटअप, देयर इज़ समवन इन द टॉयलेट फॉर पास्ट ट्वेंटी मिनट्स।’ टीना फिर से चीखी।
‘आर यू होल्डिंग योर पी फॉर ट्वेंटी मिनट्स? गाएस लेट्स हैव ए होल्ड योर पी चैलेन्ज।’ सिख लड़के ने बाएँ हाथ से अपनी टाँगों के बीच इशारा किया।
‘टीना, पिस ऑन दिस गाए’ किसी ने फ़र्श पर लोट रहे लड़के की ओर इशारा किया, ‘ही हैस फेटिश फॉर गर्ल्स पिसिंग ऑन हिम।’
फ़र्श पर लोटता हुआ लड़का पीठ के बल सरकते हुए टीना के पैरों के पास पहुँचा और गाने लगा, ‘पिस ऑन माइ लिप्स एंड टेल मी इट्स रेनिंग, पिस ऑन माइ लिप्स एंड टेल मी इट्स रेनिंग...’
‘पिस ऑफ्फ़!’ टीना ने उसके बायें कंधे को ठोकर मारी और दौड़ती हुई किचन के रास्ते से बैकगार्डन की ओर भागी।
इसी बीच कबीर को भी ज़ोरों से पेशाब लगी। दो चार बार टॉयलेट का दरवाज़ा खटखटाने के बाद भी जब भीतर से दरवाज़ा न खुला तो वह भी बैकगार्डन की ओर भागा। गार्डन में अँधेरे में डूबी शांति थी। भीतर के शोर शराबे के विपरीत बाहर की शांति कबीर को काफ़ी अच्छी लगी। हल्की मस्ती से चलते हुए, बाएँ किनारे पर एक घनी झाड़ी के पास पहुँच कर उसने जींस की ज़िप खोली और अपने ब्लैडर का प्रेशर हल्का करने लगा।
‘हे हू इज़ दिस इडियट? व्हाट आर यू डूइंग?’ झाड़ी के पीछे से किसी लड़की की चीखती हुई आवाज़ आई।
कबीर ने झाड़ी के बगल से झाँक कर देखा, पीछे टीना बैठी हुई थी। उसकी स्कर्ट कमर पर उठी हुई थी और पैंटी घुटनों पर सरकी हुई थी। कबीर की नज़रें जा कर उसके क्रॉच पर जम गईं।
‘लुक व्हाट हैव यू डन इडियट।’ टीना ने अपने सीने की ओर इशारा किया। कबीर ने देखा कि टीना के टॉप के ऊपर के दो बटन खुले हुए थे और उसके स्तन भीगे हुए थे।
‘यू हैव वेट मी विद योर पिस, कम हियर।’ टीना ने गुस्से से कहा।
कबीर घबराता हुआ टीना की ओर बढ़ा। अचानक उसका पैर झाड़ी में अटका और वह लड़खड़ा कर टीना के ऊपर जा गिरा। इससे पहले कि कबीर संभल पाता टीना ने उसके गले में बाँहें डालते हुए उसके चेहरे को खींच कर अपने दोनों स्तन के बीच दबा लिया,
‘नाउ सक योर पिस ऑफ्फ़ माइ ब्रेस्ट्स।’ टीना के होठों से हँसी फूट पड़ी।
कबीर के होश तो पूरी तरह उड़ गए। यह एक ऐसा अनुभव था जिसकी तुलना किसी और अनुभव से करना मुमकिन नहीं था। एक पल को कबीर को ऐसा लगा मानो उसके चेहरे पर कोई मुलायम कबूतर फड़फड़ा रहा हो जिसके रेशमी पंख उसके गालों को सहलाते हुए उसे अपने साथ उड़ा ले जाना चाहते हों, या फिर उसने अपना चेहरा किसी सॉफ्ट-क्रीमी पाइनएप्पल केक में धंसा दिया हो जिसकी क्रीम से निकल कर पाइनएप्पल का मीठा जूस उसके होंठों को भिगा रहा हो। मगर कबीर उन तमाम तुलनाओं के ख़यालों को एक ओर सरकाकर उस वक्त के हर पल की अनुभूति में डूब जाना चाहता था। वैसा सुखद, वैसा खुबसूरत उससे पहले कुछ और नहीं हुआ था। अचानक टीना ने उसके प्राइवेट को जींस की खुली हुई ज़िप से बाहर खींचते हुए अपने हाथों में कस कर पकड़ लिया। कबीर घबरा उठा। उसे ठीक से समझ नहीं आया कि क्या हो रहा था। टीना के नर्म हाथ उसके कठोर हो चुके प्राइवेट को जकड़े हुए थे। उसके होंठ टीना के मुलायम सीने पर जमे हुए थे। सब कुछ बेहद सुखद था, मगर कबीर के पसीने छूट रहे थे। उस पल में आनंद तो था, मगर उससे भी कहीं अधिक अज्ञात का भय था। अज्ञात का भय आनंद के मार्ग की बहुत बड़ी रुकावट होता है, मगर उससे भी बड़ी रूकावट होता है मनुष्य का ख़ुद को उस आनंद के लायक न समझना। कबीर को यह विश्वास नहीं हो रहा था कि जो हो रहा था वह कोई सपना न होकर एक हक़ीक़त था, और वह उस हक़ीक़त का आनंद लेने के लायक था। उसे चुनना था कि वह उस आनंद के अज्ञात मार्ग पर आगे बढ़े या फिर उससे घबरा कर या संकोच कर भाग खड़ा होए। कबीर के भय और संकोच ने भागना चुना। टीना की पकड़ से ख़ुद को छुड़ाता हुआ वह भाग खड़ा हुआ।
Published on July 01, 2018 14:30
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डार्क नाइट - पुस्तक अंश 4

‘हा, हा...लिकमा बट्ट, लिक माइ बट्ट, लिक माइ बैकसाइड... बटाटा वरा, यू आर लकी टू हैव बीन स्पेयर्ड विद ओनली वन स्लैप’ हैरी की हँसी रुक नहीं रही थी।
‘इज़ दैट नॉट हर नेम?’ कबीर अभी भी अपना गाल सहला रहा था।
‘हर नेम इज़ हिकमा, नॉट लिकमा’ हैरी की हँसी अब भी नहीं रुकी थी।
‘वाय डिड यू डू दिस टू मी?’ कबीर को कूल पर बहुत गुस्सा आ रहा था।
‘कूल-डाउन बडी’ कूल के होंठों पर तैर रही बेशर्म मुस्कान कबीर को बहुत ही भद्दी लगी।
‘कूल-डाउन? क्यों?’ उस वक्त कबीर को इतना अपमान महसूस हो रहा था कि जैसे उसने सिर्फ़ एक लड़की से नहीं बल्कि पूरे आज़ाद कश्मीर से थप्पड़ खाया हो। हिंदुस्तान ने पाकिस्तान से थप्पड़ खाया हो।
‘सी बडी, इसी तरह प्यार की शुरुआत होती है। जब उसे पता चलेगा कि उसने तुझे तेरी ग़लती के बिना चाँटा मारा है तो उसे तुझसे सिम्पथी होगी। फिर वो तुझसे माफ़ी मांगेगी, फिर तू उसे ऐटिटूड दिखाना, फिर वो तुझे मनाएगी...’
प्यार? हिकमा जैसी खूबसूरत लड़की को कबीर से? कश्मीरी सेब को गुजराती फाफड़े से? कबीर अपनी फैंटसी की दुनिया में खो गया। कूल को तो उसने कब का माफ़ कर दिया। वह बस इस सोच में खो गया कि जब हिकमा उससे माफ़ी मांगेगी तो उसका जवाब क्या होगा। क्या वह उसे कोई ऐटिटूड दिखा पाएगा? कहीं हिकमा उसके ऐटिटूड से नाराज़ न हो जाए। एक मौका मिलेगा पास आने का, वो भी न चला जाए। कबीर ने सोच लिया कि वह उसे झट से माफ़ कर देगा। शी वाज़ सच ए स्वीट गर्ल! कबीर अपने गाल पर पड़ा थप्पड़ भूल गया था। उसका दर्द भी और उसका अपमान भी। कबीर यह सोचना भी भूल गया था कि हिकमा को यह कौन बताएगा कि ग़लती उसकी नहीं थी।
अगले कुछ दिन कबीर प्ले टाइम में हिकमा से नज़रें मिलाने से बचता रहा। मगर छुप-छुप कर कभी इस तो कभी उस आँख के कोने से उसे देख भी लेता। इस बात की बेसब्री से उम्मीद थी कि हिकमा को यह अहसास हो कि ग़लती उसकी नहीं थी, मगर वह अहसास किस तरह हो यह पता नहीं था। एक बार सोचा कि कूल की शिकायत की जाए, मगर उससे बात का निकल कर दूर तलक चले जाने का डर था। अच्छी बात यह थी कि हिकमा ने उसकी शिकायत किसी से नहीं की थी। इस बात पर कबीर को वह और भी अच्छी लगने लगी थी। अब बस किसी तरह उसकी ग़लतफ़हमी दूर कर नज़दीकियाँ बढ़ानी थीं।
‘कबीर, वॉन्ट टू वाच सम किंकी स्टफ़?’ समीर ने कबीर से धीमी आवाज़ में मगर थोड़ी बेसब्री से पूछा।
‘ये किंकी स्टफ़ क्या होता है?’ कबीर को कुछ समझ नहीं आया।
‘चल तुझे दिखाता हूँ, वो सेक्सी बिच लूसी है ना’ लूसी का नाम लेते हुए समीर की आँखें शरारत से मटकने लगीं।
‘वो जिसका मकान पीछे वाली सड़क पर है?’
‘हाँ उसका बॉयफ्रेंड है, चार्ली चरणदास।’
‘चार्ली चरणदास?’ ब्रिटेन आकर कबीर को एक से बढ़कर एक अजीबो-गरीब नाम सुनने मिल रहे थे। उसी देश में जहाँ विलियम शेक्सपियर ने लिखा था, व्हाट्स इन ए नेम? नाम में क्या रखा है? मगर कोई कबीर से पूछे कि नाम में क्या रखा है। वह आपका मनोरंजन करने से लेकर आपको थप्पड़ तक पड़वा सकता है।
‘चार्ली द फुटस्लेव’ समीर ने हँसते हुए कहा, ’उनका विडियो रिकॉर्ड किया है। शी इज़ स्पैकिंग हिम व्हाइल ही किसेस हर फुट।’
‘व्हाट द हेल इज़ दिस?’ पैर चूमना? थप्पड़ मारना? कबीर को कुछ समझ नहीं आया। मगर उसे विडियो देखने की उत्सुकता ज़रूर हुई।
‘शो मी!’ कबीर ने बेसब्री से कहा।
‘यहाँ नहीं, मेरे कमरे में चल।’
कबीर बेसब्री से समीर के पीछे उसके कमरे की ओर दौड़ा। अपने कमरे में पहुँच कर समीर ने स्टडी टेबल के ड्रॉर से अपना लैपटॉप निकाला।
‘लुक द फ़न स्टार्टस नाउ।’ लैपटॉप ऑन करके एक विडियो फाइल पर क्लिक करते हुए समीर की चौड़ी मुस्कान से उसकी बत्तीसी झलकने लगी।
विडियो चलना शुरू हुआ। लूसी बला की खूबसूरत थी। ब्लॉन्ड हेयर, ओवल चेहरा, नीली नशीली आँखें, लम्बा कद, स्लिम फिगर, गोरा रंग, सब कुछ बिल्कुल हॉलीवुड की हीरोइनों वाला। लूसी की उम्र लगभग सत्ताईस-अट्ठाईस साल थी मगर वह इक्कीस-बाईस से अधिक की नहीं लग रही थी। वह ब्राउन कलर के लेदर सोफ़े पर बैठी हुई थी, लाल रंग की जालीदार तंग ड्रेस पहने जिसमें उसके प्राइवेट पार्ट्स के अलावा सब कुछ नज़र आ रहा था। उसने बाएँ हाथ की उँगलियों के बीच एक सुलगती हुई सिगरेट पकड़ी हुई थी। उसके सामने नीचे फर्श पर घुटनों के बल पीठ के पीछे हाथ बांधे और गर्दन झुकाए एक नौजवान बैठा हुआ था, चार्ली चरणदास। उम्र लगभग पच्चीस, गोरा रंग, तगड़ा शरीर, कसी हुई मांसपेशियाँ, खूबसूरत चेहरा।
लूसी ने दायें हाथ से चार्ली के सिर के बाल पकड़ कर उसका चेहरा उपर उठाया,
‘चार्ली यू इडियट, लुक हियर!’ लूसी की आवाज़ बहुत मीठी थी। यकीन नहीं हो रहा था कि कोई किसी का इतनी मीठी आवाज़ में भी अपमान कर सकता है।
‘यस मैडम!’ ऐसा लगा मानों चार्ली ने बड़ी हिम्मत से सिर उठा कर लूसी से नज़रें मिलाई हों।
लूसी ने चार्ली के बायें गाल पर एक थप्पड़ मारा। समीर की बत्तीसी से हँसी छलक पड़ी। मगर कबीर को हिकमा का मारा हुआ थप्पड़ याद आ गया। हालांकि लूसी का थप्पड़ वैसा करारा नहीं था।
‘चार्ली बॉय, यू नो दैट यू डिन्ट इवन नो हाउ टू पुट योर पेंसिल डिक इनसाइड ए पुस्सी। आई हैड टू टीच यू इवन दैट।”
‘यस मैडम!’ चार्ली ने शर्म से आँखें झुकाईं।
‘सो नाउ यू थिंक यू कैन जर्क दैट टाइनी कॉक विदाउट माइ परमिशन?’ लूसी का लहज़ा कुछ सख्त हुआ।
‘आई एम सॉरी मैडम, इट वाज़ ए बिग मिस्टेक।’ चार्ली ने अपना सिर भी झुकाया।
‘आर यू अशेम्ड ऑफ़ व्हाट यू डिड?’ लूसी ने सिगरेट का एक लम्बा कश लिया।
‘यस!’ चार्ली का चेहरा शर्म से लाल हो रहा था। ठीक वैसे ही जैसा कि हिकमा से थप्पड़ खाने के बाद कबीर का चेहरा हुआ था।
‘यस व्हाट?’ लूसी की भौहें तनी।
‘यस मैडम!’
‘सो व्हाट शैल आई डू विद यू?’ लूसी ने आगे झुकते हुए सिगरेट का धुआँ चार्ली के मुँह पर छोड़ा और फिर पीछे सोफ़े पर पीठ टिका ली।
‘प्लीज़ फॉरगिव मी मैडम।’
‘ह्म्म्म...आर यू बेगिंग?’
‘यस मैडम, प्लीज़ फॉरगिव मी।’ चार्ली का सिर झुका हुआ था। हाथ पीछे बंधे हुए थे।
‘इज़ दिस द वे टू बेग? आई एम नॉट इम्प्रेस्ड एट आल’ लूसी ने सिगरेट का एक और कश लिया।
‘प्लीज़, प्लीज़ मैडम, प्लीज़ फॉरगिव मी। प्लीज़ गिव मी वन मोर चान्स। आई प्रॉमिस दिस विल नॉट हैपन अगेन।’ चार्ली लूसी के पैरों पर सिर रखकर गिड़गिड़ाया।
‘हूँ दिस इज़ बेटर।’ लूसी ने अपनी आँखों के सामने गिर आई बालों की एक लट पीछे की ओर झटकी और सिगरेट की राख चार्ली के सिर पर, ‘ओके गेट अप एंड मेक मी ए ग्लास ऑफ़ वाइन।’
चार्ली के होठों पर एक राहत की मुस्कान आई। वह उठ कर अपनी बाईं ओर दीवार में बने शोकेस की ओर बढ़ने लगा।
‘गेट ऑन योर नीज़ चार्ली, आई हैवंट आस्क्ड यू टू वॉक ऑन योर फीट यट, हैव आई?’ लूसी ने आँखें तरेरीं।
‘सॉरी मैडम!’ अपने घुटनों पर बैठते हुए घुटनों के बल चलके चार्ली शोकेस तक पहुंचा। बाँहें तान कर उसने काँच का स्लाइडर सरकाया और एक वाइट वाइन की बोतल और क्रिस्टल का वाइन ग्लास निकाला। वाइन ग्लास को बाएँ हाथ में पकड़ते हुए वाइन की बोतल को बाहिनी बाँह और सीने के बीच जकड़ के दाहिने हाथ से शोकेस को स्लाइडर सरका कर बंद किया और घुटनों के बल चलते हुए लूसी के सामने आया। लूसी ने सिगरेट का एक लम्बा कश लेते हुए चार्ली को आँखों के इशारे से वाइन का गिलास भरने कहा। सोफ़े के पास रखे साइड स्टूल पर वाइन ग्लास रख कर चार्ली ने वाइन की बोतल खोली और ग्लास में वाइन भरकर उसे बड़े आदर से लूसी को पेश किया।
‘हूँ! आई एम इम्प्रेस्ड।’ लूसी ने सोफ़े पर अपनी पीठ टिकाते हुए वाइन का सिप लिया।
‘चार्ली, कान्ट यू सी दैट माइ फीट आर डर्टी? डू आई नीड टू टेल यू व्हाट यू हैव टू डू?’ लूसी ने अपने नंगे पैरों की ओर इशारा करते हुए चार्ली को झिड़का।
‘सॉरी मैडम।’ चार्ली ने लूसी के पैरों पर झुकते हुए अपनी जीभ बाहर निकाली।
‘चार्ली बॉय! हैव यू आस्क्ड फॉर परमिशन?’ लूसी की आँखों से दंभ की एक किरण उठ कर उसकी भौंहों को तान गई।
‘सॉरी मैडम कैन आई?’
‘ओके गो अहेड।’
‘थैंक यू मैडम।’ चार्ली की जीभ लूसी के बाएँ पैर के तलवे पर कुछ ऐसे फिरने लगी मानों किसी चॉकलेट बार पर फिर रही हों।
‘गेट योर टंग बिटवीन द टोज़।’ लूसी ने हुक्म किया।
‘यस मैडम!’ चार्ली ने जीभ उसके पैर की उँगलियों के बीच डाली और उँगलियों को एक एक कर चूसना शुरू किया। चार्ली के चेहरे के भावों से ऐसा लग रह था मानों उसे किसी रसीली कैंडी को चूसने का आनंद आ रहा हो।
चार्ली की जीभ लूसी के पैरों पर फिरती रही और लूसी सोफ़े पर आराम से टिक कर वाइन के घूँट भरती रही।
कुछ देर बाद लूसी ने अपने दायें पैर की उँगलियाँ चार्ली की ठुड्डी में अड़ा कर चार्ली के चेहरे को उपर उठाया,
‘चार्ली यू हैव बीन ए गुड बॉय, आई थिंक यू डिज़र्व ए रिवार्ड नाउ। ’
‘थैंक यू मैडम। ’ चार्ली ने हसरत भरी निगाहों से पहले लूसी के खूबसूरत चेहरे को देखा और फिर क्रिस्टल के वाइन गिलास को। वाइन गिलास से टकराकर उसकी नज़रें उसकी आँखों में क्रिस्टल सी चमक भर गईं। ।
लूसी ने अपने वाइन ग्लास से थोड़ी वाइन अपनी दाहिनी टाँग पर उँडेली जो नीचे बहते हुए उसके पैर से होकर चार्ली के होठों तक पहुँची। चार्ली ने वाइन का घूँट भरा और उसके आँखों की हसरत चमक उठी। लूसी ने अपने गिलास की बची हुई वाइन भी अपनी टाँग पर उँडेली। चार्ली के होंठ वाइन की धार को पकड़ने लूसी की टाँगों पर ऊपर सरके।
लूसी ने शरारत से हँसते हुए अपनी टाँग खींची और आगे झुककर चार्ली के गले में बाँहें डाल कर उसके उसी गाल को प्यार से सहलाया जिस पर उसने थप्पड़ जड़ा था, और फिर उसी जगह एक हल्का सा थप्पड़ मारते हुए मुस्कुराकर कहा ‘चार्ली बॉय, कान्ट यू सी दैट माइ ग्लास इज़ एम्प्टी , मेक मी एनअदर ग्लास और वाइन।’
कबीर को पूरा सीन बड़ा भद्दा सा लगा। उन दिनों उसे न तो बीडीएसएम का कोई ज्ञान था और न ही ‘डामिनन्स एंड सबमिशन’ के प्ले में यौन-आनंद लेने वाले प्रेमी-युगलों की कोई जानकारी थी। न तो तब ऐसे युगलों पर लिखी ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ जैसी कोई लोकप्रिय किताब थी और न ही इस बात का कोई अंदाज़ कि ऐसा भी कोई मर्द हो सकता है जो अपमान और पीड़ा में यौन-आनंद ले, या ऐसी कोई औरत जो अपने प्रेमी का अपमान कर और उसे पीड़ा देकर प्रसन्न हो। उस वक्त यदि कोई उस प्ले को बीडीएसएम कहता तो कबीर को उसका अर्थ बस यही समझ आता, ‘ब्लडी डिस्गस्टिंग सेक्सुअल मैनर्स’। मगर अचानक ही कबीर को अहसास हुआ कि वह सारा सीन उसे भद्दा लगकर भी एक किस्म का सेक्सुअल एक्साइट्मन्ट दे रहा था। वह लूसी की ख़ूबसूरती थी या फिर उसकी अदाएँ, या फिर उसका अपनी ख़ूबसूरती और अदाओं पर गुरूर, या उस गुरूर को पिघलाता यह छुपा हुआ अहसास कि उस प्ले की तरह ही उसकी ख़ूबसूरती और जवानी की उम्र भी बहुत लम्बी नहीं थी। मगर कुछ तो था जो कबीर के मन के किसी कोने में अटक कर उसे लूसी की ओर खींच रहा था। और जिस तरह कबीर के लिए यह अंदाज़ लगा पाना मुश्किल था कि उसके मन में अटकी कौन सी बात उसे लूसी की ओर खींच रही थी, उसके लिए यह जान पाना भी मुश्किल था कि वो उसे लूसी के किस ओर खींच रही थी। क्या वह ख़ुद को चार्ली की जगह देख सकता था, लूसी के पैरों में सिर झुकाए? क्या उसे अपमान या पीड़ा में कोई यौन आनंद मिल सकता है? क्या हिकमा से थप्पड़ खा कर उसे किसी किस्म का आनंद भी मिला था? आख़िर क्यों उसका मन उसे उसका अपमान करने वाली लड़की की ओर खींच रहा था? कबीर को हिकमा पर गुस्सा आने की जगह प्यार क्यों आ रहा था?
Published on July 01, 2018 14:27
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डार्क नाइट - पुस्तक अंश 3

प्रिया से मिलने से पहले कबीर की फैंटसियों ने एक लम्बा सफ़र तय किया था। भारत के छोटे से शहर वड़ोदरा की कस्बाई कल्पनाओं से लेकर लंदन के महानगरीय ख़्वाबों तक। कबीर पंद्रह साल का था जब उसके माता-पिता लंदन आए थे। पंद्रह साल की उम्र वह उम्र होती है जब किसी बच्चे के हार्मोन्स उसकी अक्ल हाइजैक करने लगते हैं। ऐसी उम्र में उसके पूरे अस्तित्व को हाइजैक कर वड़ोदरा से उठा कर लंदन ले आया गया था। दुनिया के नक़्शे में लंदन के मुकाबले शायद वड़ोदरा के लिए कोई जगह न हो मगर कबीर के मन के नक़्शे में सिर्फ़ और सिर्फ़ वड़ोदरा ही खिंचा हुआ था। वड़ोदरा के मोहल्ले, सड़क, गली, बाग़, मैदान सब कुछ उस नक़्शे में गहरी छाप बनाए हुए थे और साथ ही छाप बनाई हुई थी वड़ोदरा की ज़िन्दगी जो लंदन की ज़िन्दगी से उतनी ही दूर थी जितनी कि वड़ोदरा शहर की लंदन से दूरी। उस समय दुनिया वैसी ग्लोबल विलेज नहीं बनी थी जैसी कि आज बन चुकी है। वह वक्त था जो कि शुरुआत थी दुनिया के ग्लोबल विलेज और कबीर के ग्लोबल सिटीज़न बनने की। और जिस तरह किसी भी दूसरे मुल्क की सिटिज़नशिप लेना एक बड़े जद्दोजहद का काम होता है कबीर के लिए ग्लोबल सिटिज़न बनना उतना ही मुश्किल भरा काम था। इस काम में उसकी मदद कर उसकी मुश्किलें जिसने सबसे अधिक बढ़ाईं थी वह था समीर। समीर कबीर का ममेरा भाई है। उम्र में उससे दो साल बड़ा है, कद में एक इंच लम्बा है, और हर बड़े भाई की तरह अनुभव में ख़ुद को उसका बाप समझता है।
‘हे ड्यूड, दिस इस लंदन। इफ यू वांट टू सर्वाइव इन एनी टीन ग्रुप हियर देन नेवर एक्ट लाइक ए फ्रेशी, अंडरस्टैंड!’ कबीर के लंदन पहुँचते ही समीर ने उसे सलाह दे डाली। समीर की पैदाइश लंदन की है। समीर भले लंदन के नक़्शे को बहुत अच्छी तरह न जानता रहा हो मगर वह लंदन की ज़िन्दगी को बहुत अच्छे से जानता था।
‘ये फ्रेशी क्या होता है?’ उस वक्त तो अंग्रेज़ी भाषा पर कबीर की पकड़ भी कमज़ोर थी, उस पर वहाँ के स्लैंग? वे तो उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी बनने वाले थे।
‘फ्रेशी इस समवन लाइक भारत सरकार।’ समीर ने तिरिस्कारपूर्ण भावभंगिमा बनाई।
‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया?’
‘नो दैट कार्नर शॉप ओनर। डिकहेड, सेवेंटीवन में आया था ढाका से और अभी तक बांग्लाफ्रेशी है। सी हाउ ही ऑलवेज़ स्मेल्स ऑफ़ फिश’ हालाँकि ‘फिश एंड चिप्स’ ब्रिटेन की नेशनल डिश रहा है जिसकी जगह अब इंडियन करी ने ले ली है मगर ‘स्मेल ऑफ़ फिश’ और ‘करी मंचर’ जैसे फ्रेज़ वहाँ देसी और फ्रेशी लोगों का मज़ाक उड़ाने के लिए ही इस्तेमाल किए जाते हैं।
खैर इस तरह कबीर का परिचय भारत सरकार से हुआ था, कबीर के घर से चार मकान दूर डेलीनीड्स की दुकान चलाने वाले बाबू मोशाय भारत सरकार।
‘कोबीर यॉर नेम इज एक्षीलेंट। हामारा इंडिया का बोहूत बॉरा शेन्ट हुआ था कोबीर।’ कबीर के लिए सरकार का एक्सेंट समझना लंदन के लोकल एक्सेंट को समझने से आसान नहीं था।
‘थैंक्स अंकल।’ कबीर ने किसी तरह उसकी बात का अंदाज़ लगाते हुए कहा।
‘डोंट कॉल मी आँकेल, कॉल मी शॉरकार।’
‘ओके सरकार अंकल।’
‘जास्ट शॉरकार।’
‘कहाँ की सरकार है? एक्स्पायर्ड सामान बेचता है और वो भी मंहगा।’
समीर वाकई कोकोनट है। कोकोनट यानि बाहर से ब्राउन और भीतर से वाइट। चाहे वह ख़ुद इंग्लिश की जगह हिंगलिश बोले, चाहे वह किंगफिशर बियर के साथ विंडलू चिकन गटक कर रात भर बैड विंड से परेशान रहे या चाहे वह आलू-चाट खाते हुए देसी लड़कियों से इलू-इलू चैट करे, मगर यदि आप लोकल स्लैंग नहीं समझते हैं, लोकल एक्सेंट में बात नहीं करते हैं तो समीर लिए आप फ्रेशी हैं। चाहे वह ख़ुद अपने हाथों से तंदूरी चिकन की टाँग मरोड़े मगर यदि आप खाना खाने में छुरी-काँटे का इस्तेमाल नहीं जानते हैं तो आप फ्रेशी हैं। समीर की परिभाषा में कबीर पूरी तरह फ्रेशी था।
वह स्कूल में कबीर का पहला दिन था। ब्रिटेन के स्कूलों में ख़ास बात यह है कि वहाँ पीठ पर भारी बस्ता लादना नहीं पड़ता। हाँ कभी-कभी स्पोर्ट्स किट या पीई किट ले जानी होती है मगर वह भी भारतीय बस्ते जितनी भारी नहीं होती। उस दिन कबीर की पीठ पर कोई बोझ नहीं था मगर उसके दिमाग पर ढेर सारा बोझ था। ब्लैक शूज़, ग्रे पतलून, वाइट शर्ट, ब्लू ब्लेज़र और रेड टाई में वैसे तो वह ख़ुद को काफ़ी अच्छा महसूस कर रहा था, मगर मन में एक घबराहट भी थी, टीचर्स कैसे होंगे? साथी कैसे होंगे? स्कूल कैसा होगा? ब्रिटेन में स्कूलों में सुबह प्रार्थना नहीं होती, राष्ट्रगान नहीं गाया जाता, बस सीधे क्लास रूम में। शायद वहाँ लोग प्रार्थनाओं में यकीन नहीं रखते। ब्रिटेन में ही सबसे पहले सेकुलरिस्म शब्द ईजाद हुआ था, जिसने धर्म को सामाजिक जीवन से अलग कर व्यक्तिगत जीवन में समेटने की क़वायद शुरू की थी। वहीं पास पेरिस में बैठ कर कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम कहा था। अब तो ब्रिटेन में चर्च जाने वाले ईसाई गिनती के ही हैं और उनके घरों में प्रार्थना तो शायद ही होती हो। राष्ट्रीय प्रतीकों का भी तकरीबन यही हाल है। ब्रिटेन के राष्ट्रीय ध्वज यानी यूनियन जैक के डोरमैट और कच्छे बनते हैं।
पहला पीरियड एथिक्स का था। टीचर थीं मिसेज़ बर्डी। कबीर ने क्रो, कॉक और पीकॉक जैसे सरनेम ज़रूर सुन रखे थे मगर बर्डी सरनेम पहली बार ही सुना था। मिसेज़ बर्डी ऊँचे कद, स्लिम फिगर और गोरे रंग की लगभग तीस साल की महिला थीं। उनकी हाइट कबीर से आधा फुट अधिक थी और उनकी स्कर्ट की लम्बाई उसकी पतलून की लम्बाई की आधी थी। उनकी टाँगों जितनी लम्बी, खुली और गोरी टाँगें कबीर ने उसके पहले सिर्फ़ फिल्मों या टीवी में ही देखी थीं। पूरे पीरियड कबीर का ध्यान उनकी लम्बी टाँगों पर ही लगा रहा। मिसेज़ बर्डी का अंग्रेज़ी एक्सेंट उसे ज़रा भी समझ नहीं आया। मगर उस पीरियड के बाद के ब्रेक में बर्डी नाम का रहस्य ज़रूर समझ आ गया।
‘आई एम कूल।’ सिर पर लाल रंग का दस्तार बांधे एक सिख लड़के ने कबीर की ओर हाथ बढ़ाया।
‘मी टू!’ कबीर ने झिझकते हुए हाथ बढ़ाया।
‘ओह नो, माइ नेम इस कूल, कुलविंदर। यहाँ लोग मुझे कूल कहते हैं।’ कूल ने कबीर का हाथ मजबूती से थाम कर हिलाया। पहली मुलाकात में ही उसने कबीर को अपने पंजाबी जोश का अहसास करा दिया।
‘ओह! आई एम कबीर’ कबीर ने कूल के हाथों से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा। संकोची सा कबीर ऐसी गर्मजोशी का आदी नहीं था।
‘न्यू हियर?’ कूल ने पूछा।
‘यस, फ्रॉम इंडिया।’
‘बी केयरफुल, नए स्टूडेंट्स को यहाँ बहुत बुली करते हैं।’
‘आई नो!’ कबीर ने ब्रिटेन के स्कूलों में नए छात्रों को बुली किए जाने के बारे में समीर से काफ़ी कुछ सुन रखा था।
‘यू नो नथिंग!’ कूल की आँखों में शरारत थी या धमकी कबीर कुछ ठीक से समझ नहीं पाया।
‘यू लाइक मिसेज़ बिरदी? नाइस लेग्स, हुह।’ कूल ने एक बार फिर शरारत से अपनी आँखें मटकाईं।
‘यू मीन मिसेज़ बर्डी?’ एथिक्स की टीचर के लिए ही इस तरह का शरारती सवाल कबीर को कुछ पसंद नहीं आया। मगर फिर उसे ध्यान आया कि पूरे पीरियड में उसका ख़ुद का ध्यान मिसेज़ बर्डी की लंबी खूबसूरत टाँगों पर ही टिका हुआ था। इस बात से उसे थोड़ी ग्लानि भी हुई और यह शंका भी कि कूल को भी इस बात का अहसास होगा।
‘नो नो, बिरदी, वो जर्मन हैं, उनकी शादी एक इंडियन से हुई है, मिस्टर बिरदी से’
‘ओह, फिर सब उनको मिसेज़ बर्डी क्यों कहते हैं?’
‘हाउ इज़ बिरदी स्पेल्ड? बी आई आर डी आई, बर्डी। गॉट इट?’
‘ओह! ओके।’ कबीर ने मुस्कुराकर सिर हिलाया।
दो पीरियड बाद लंच का समय हुआ। कबीर कूल के साथ अपना लंच बॉक्स लिए लंच रूम पहुंचा।
‘आर यू सैंडविच?’ डिनरलेडी ने कबीर के हाथ में लंच बॉक्स देखकर पूछा।
सैंडविच? आई ऍम ए बॉय नॉट सैंडविच, कबीर ने ख़ुद से कहा।
‘कबीर कम दिस साइड’ कूल ने उसे बुलाया, ‘जो स्टूडेंट्स घर से लंच बॉक्स लेकर आते हैं उन्हें यहाँ सैंडविच कहते हैं, और जो स्कूल में बना खाना खाते हैं उन्हें डिनर।’
अजीब लोग हैं ये अंग्रेज़ भी। ज़रूर बोलने में इन लोगों की ज़ुबान दुखती होगी तभी तो कम से कम शब्दों में काम चलाते हैं।
कूल ने अपना लंच बॉक्स खोला। उसमें ब्राउन ब्रेड का बना चीज़ एंड टोमेटो सैंडविच था, साथ में एक केला और सेब। हाउ बोरिंग! कबीर ने सोचा। क्या कूल हर रोज़ यही खाता है? इस देश में लोगों को खाने का शऊर नहीं है। मगर कूल तो इंडियन है। वह क्यों यह बोरिंग खाना खाता है? कबीर ने अपना लंच बॉक्स खोला। आह, बटाटा वड़ा, थेपला और आम का अचार। इसे कहते हैं खाना। कबीर को अपनी माँ पर फ़ख्र महसूस हुआ। कितना टेस्टी खाना बनाती है माँ। और एक कूल की माँ? क्या उसे पराठा या पूड़ी बनाना भी नहीं आता?
‘स्मेल्स सो नाइस, व्हाट इज़ इट?’ पास बैठे एक गोरे अंग्रेज़ लड़के हैरी ने पूछा।
‘बटाटा वड़ा।’ कबीर ने गर्व से कहा।
‘वाओ, बटाटा वरा। कबीर इज़ नॉट सैंडविच, ही इज़ बटाटा वरा।’ हैरी ने हँसते हुए कहा। अंग्रेज़ होने के नाते वह ‘ड़’ का उच्चारण ‘र’ करता था।
‘नो नॉट बटाटा वरा, बटाटा वड़ा।’ कूल ने ‘वड़ा’ पर ज़ोर देकर कहा। उसके बटाटा वड़ा कहने के अंदाज़ पर पास बैठे सारे छात्र भी हँसने लगे। कबीर को बड़ी शर्म आई। बड़ी मुश्किल से उससे एक थेपला खाया गया।
उस दिन के बाद से कबीर के लंच बॉक्स में कभी बटाटा वड़ा नहीं आया, मगर उसका नाम हमेशा के लिए बटाटा वड़ा पड़ गया।
‘डू यू नो दैट गर्ल?’ अगले दिन प्लेटाइम में एक लम्बी, स्लिम और गोरी लड़की की ओर इशारा करते हुए कूल ने कबीर से पूछा। लड़की ने सिर पर रंग-बिरंगा डिज़ाइनर स्कार्फ़ बाँधा हुआ था, जिससे कबीर ने अंदाज़ लगाया कि वह कोई मुस्लिम लड़की होगी।
‘नो, हू इज़ शी?’
‘शी इज़ बट्ट’
‘बट्ट? यू मीन बैकसाइड?’ कबीर को लगा कि वह कूल की कोई शरारत थी।
‘हर फॅमिली नेम इज़ बट्ट, हर फॅमिली इज़ फ्रॉम कश्मीर’
‘ओह आई सी’
कश्मीर के ज़िक्र पर कबीर को भारत सरकार की दुकान पर काम करने वाले लड़के बिस्मिल का ध्यान आया। कितने फ़ख्र से उसने कहा था कि वो आज़ाद कश्मीर से है। हुँह, आज़ाद कश्मीर! इट्स पाक आक्यूपाइड कश्मीर।
‘दोस्ती करोगे उससे?’ कूल ने आँखें मटकाकर पूछा।
वह आम कश्मीरी लड़कियों से भी ज़्यादा सुन्दर थी। ख़ासतौर पर उसके कश्मीरी सेब जैसे गुलाबी लाल गाल तो बहुत ही खूबसूरत थे।
‘व्हाट्स हर फर्स्ट नेम?’ कबीर ने उत्सुकता से पूछा।
‘लिकमा?’
‘लिकमा? ये कैसा नाम हुआ?’ कबीर को वह नाम बड़ा अजीब सा लगा।
‘इट्स एन अरेबिक वर्ड। इट मीन्स विस्डम’
‘हम्म! ब्यूटीफुल नेम’
‘गो टेल हर दैट यू लाइक हर नेम’ कूल ने लड़की की ओर इशारा किया।
‘अभी?’
‘हाँ, लड़कियों को अपनी तारीफ़ सुनना पसंद होता है। यू टेल हर यू लाइक हर नेम, शी विल लाइक इट’
कबीर को काफ़ी घबराहट हुई। जिस लड़की को दूर से देख कर ही उसका दिल धड़क रहा था उसके पास जाकर क्या हाल होगा? मगर उसके गुलाबी लाल गाल कबीर को लुभा रहे थे। उस वक्त उसे लगा कि उन गालों के लिए वह उससे दोस्ती तो क्या, पाकिस्तान से दुश्मनी भी कर सकता था। हिम्मत करके किसी हिन्दुस्तानी सिपाही की तरह कबीर उसकी ओर बढ़ा। सिर उठा के, कंधे थोड़े चौड़े करके, अपनी घबराहट को काबू करने की कोशिश करते हुए।
‘हाय’ कबीर ने लड़की के सामने पहुँच कर बड़ी मुश्किल से कहा। एक छोटा सा हाय भी उसे एक पूरे पैराग्राफ जितना लम्बा लग रहा था।
‘हाय’ लड़की ने बड़ी सहजता से मुस्कुराकर कहा। कबीर को उसकी स्माइल बहुत प्यारी लगी। वह एक लड़की थी। एक अजनबी लड़के से बात करते हुए घबराहट उसे होनी चाहिए थी, मगर वह बिल्कुल नार्मल थी। और कबीर एक लड़का होते हुए भी घबरा रहा था। कबीर का दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। किसी तरह अपनी धड़कनों को सँभालते हुए उसने कहा, ‘आई लाइक योर नेम, लिकमा’
‘व्हाट?’ लड़की ने चौंकते हुए पूछा।
‘लिकमा बट्ट’
तड़ाक। कबीर के बाएँ गाल पर एक ज़ोर का थप्पड़ पड़ा। उसे पता नहीं पता था कि कोई नाज़ुक सी लड़की भी इतनी ज़ोर का थप्पड़ मार सकती थी। कबीर का गाल उस लड़की के गाल से भी अधिक लाल हो गया। कुछ तो थप्पड़ की वजह से और कुछ किसी लड़की से थप्पड़ खाने के अपमान की वजह से। कबीर को कुछ समझ नहीं आया कि आख़िर उस लड़की ने उसे थप्पड़ क्यों मारा? उसने ऐसा क्या कह दिया? उसके नाम की तारीफ़ ही तो की थी। और कूल का कहना था कि लड़कियों को तारीफ़ पसंद होती है।
Published on July 01, 2018 14:25
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डार्क नाइट - पुस्तक अंश 2

2
वह जुलाई की एक रात का आख़िरी पहर था। कबीर की रात प्रिया के ईस्ट लंदन के फ्लैट पर उसके बिस्तर पर गुज़र रही थी। प्रिया कबीर की नई गर्लफ्रेंड थी। प्रिया के रेशमी बालों की बिखरी लटों सा सुर्ख उजाला रात के सुरमई किवाड़ों पर दस्तक दे रहा था। प्रिया ने अपने बालों की उन बिखरी लटों को समेटा और कन्धों पर कुछ ऊपर चढ़ आई रजाई को नीचे कमर पर सरकाया। मखमली रजाई उसके रेशमी बदन पर पलक झपकते ही फिसल गई। जैसे वार्डरोब मालफंक्शन का शिकार हुई किसी मॉडल के जिस्म से उसकी ड्रेस फिसल गई हो। रात भर कबीर के बदन से लग कर बिस्तर पर सिलवटें खींचता उसका नर्म छरहरा बदन लहरा कर कुछ उपर सरक गया। उसकी गर्दन से फिसल कर क्लीवेज से गुज़रते हुए कबीर के होठों पर एक नई हसरत लिपट गई। उसकी छरहरी कमर को घेरी कबीर की बाँहें कूल्हों के उभार नापते हुए उसकी जाँघों पर आ लिपटीं। एक छोटे से लम्हें में कबीर ने प्रिया के बदन के सारे तराश नाप लिए। तराश भी ऐसे कि एक ही रात में न जाने कितने अलग साँचों में ढले हुए लगने लगे थे।
कबीर ने करवट बदल कर एक नज़र प्रिया के खूबसूरत चेहरे पर डाली। रेशमी बालों की लटों से घिरे गोल चेहरे पर चमकती बड़ी बड़ी आँखों से एक मोहक मुस्कान छलक रही थी। उसका बेलिबास मखमली बदन अब भी कबीर के होंठों पर लिपटी ख्वाहिश को लुभा रहा था, मगर कबीर की नज़रें जैसे उसकी आँखों के तिलिस्म में खो रही थीं। जैसे नज़रों पर चले जादू ने होठों की हसरत को थाम लिया हो। अचानक ही कबीर को अपने दाहिने गाल पर प्रिया की नर्म हथेली का स्पर्श महसूस हुआ। उसकी नाज़ुक उँगलियाँ कबीर के चेहरे पर बिखरी हल्की खुरदुरी दाढ़ी को सहला रही थीं।
‘लापरवाह!’ प्रिया की उन्हीं तिलिस्मी आँखों से एक मीठी झिड़की टपकी।
दाहिने गाल पर एक हल्की सी चुटकी काटते हुए उसने कबीर के हाथ को अपनी जाँघ पर थोडा नीचे सरकाया। गाल पर ली गई चुटकी कबीर को प्रिया की मुलायम जाँघ के स्पर्श से कहीं अधिक गुदगुदा गई।
प्रिया ने अपनी बाईं ओर झुकते हुए नीचे कारपेट पर पड़ी ब्रा उठाई और बिस्तर पर कुछ ऊपर सरक कर बैठते हुए कत्थई ब्रा में अपने गुलाबी स्तन समेटे। कबीर की हथेली अब उसकी जाँघ से नीचे सरककर उसकी नर्म पिंडली को सहलाने लगी थी। कबीर के भीगे होठों की ख्वाहिश अब उसकी मुलायम जाँघ पर मचलने लगी थी। रजाई कुछ और नीचे सरककर उसके घुटनों तक पहुँच चुकी थी। प्रिया ने घुटनों से खींच कर रजाई फिर से कमर से कुछ ऊपर सरकाई। खुरदुरी दाढ़ी पर रगड़ खाते हुए रजाई ने कबीर की आँखों में उतर आई शरारत को ढक लिया। उसी शरारत से उसने प्रिया की पिंडली पर अपनी हथेली की पकड़ मजबूत की और उसकी दाहिनी जाँघ पर अपने दांत हल्के से गड़ा दिए।
“आउच!!” प्रिया शरारत से चीखते हुए उछल पड़ी। उसकी पिंडली पर कबीर की पकड़ ढीली हो गई। एक चंचल मुस्कान प्रिया के होठों से भी खिंच कर उसके गालों के डिंपल में उतरी और उसने अपना दायाँ पैर कबीर की जाँघों के बीच डाल कर उसे हल्के से ऊपर की ओर खींचा। कबीर के बदन में उठती तरंगों को जैसे एम्पलीफायर मिल गया।
“आउच!!” एक शरारती चीख के साथ कबीर ने प्रिया की जाँघ पर अपने दाँतों की पकड़ ढीली की और उसकी छरहरी कमर पर होंठ टिकाते हुए उसे अपनी बाँहों में कस लिया।
प्रिया पिछले एक महीने में तीसरी लड़की थी जिसके बिस्तर पर कबीर की रात बीती थी। नहीं बल्कि प्रिया तीसरी लड़की थी जिसके बिस्तर पर उसकी रात बीती थी। कबीर की चौबीस साल की ज़िन्दगी में सिर्फ़ तीसरी लड़की। इसके पहले की उसकी ज़िन्दगी कुछ अलग ही थी। ऐसा नहीं था कि उसके जीवन में लड़कियाँ नहीं थी। सच कहा जाए तो कबीर की ज़िन्दगी में लड़कियों की कभी कमी नहीं रही। जैसे सर्दियाँ पड़ते ही हिमालय की कोई चोटी बर्फ़ की सफ़ेद चादर ओढ़ लेती है, जैसे वसंत के आते ही हौलैंड के किसी बाग़ को ट्यूलिप की कलियाँ घेर लेती हैं, ठीक वैसे ही टीन एज में पहुँचते ही खूबसूरत लडकियाँ और उनके ख़यालों ने उसे घेर लिया था। खूबसूरत लड़कियों की धुन उस पर सवार रहती। उनके कभी कर्ली तो कभी स्ट्रेट किए हुए बालों की खुलती-संभलती लटें, उनकी मस्कारा और आइलाइनर लगी आँखों के एनीमेशन, उनके लिपस्टिक के बदलते शेड्स से सजे होठों की शरारती मुस्कानें, उनकी कमर के बल, उनकी नाभि की गहराई और उनकी वैक्स की हुई टाँगों की तराश, सब कुछ उसके मन के मुंडेरों पर मंडराते रहते। हाल यह था कि सुबह की पहली अंगड़ाई किसी खूबसूरत लड़की का हाथ थामने का ख़याल लेकर आती तो रात की पहली कसमसाहट उसे अपने भीतर समेट लेने का ख़्वाब लेकर। मगर कबीर के ख़्वाबों-ख़यालों की दुनिया में लडकियाँ किसी सूफ़ियाना नज़्म की तरह ही थीं, जिन्हें वह अपनी फैंटसी में बुनता था। एक ऐसी पहेली की तरह जो आधी सुलझती और आधी उलझी ही रह जाती। उसे इस पहेली में उलझे रहने में मज़ा आता, मगर साथ ही इस पहेली के खुल जाने का डर भी सताता रहता कि कहीं एक झटके में फैंटसी का सारा हवा महल ही न ढह जाए। और यही डर कबीर और लड़कियों के बीच एक महीन सा पर्दा खींचे रहता जिस पर वह अपनी फैंटसी का गुलाबी संसार रचता रहता।
इस बीच कुछ लड़कियों ने इस पर्दे को सरकाने की कोशिश भी की मगर वह ख़ुद ही हर बार उसे फिर से तान लेता। शायद इसलिए कि मौका वैसा एक्साइटिंग न होता जैसा कि उसकी फैंटसी की दुनिया में होता, या फिर उसके करीब आने वाली लड़की उसके ख्वाबों की सब्ज़परी सी न होती, या फिर वैसा कुछ स्पेशल न होता जिसकी उसे चाह थी, या फिर यह डर कि वैसा कुछ स्पेशल न हो पाएगा।
मगर फिर कुछ स्पेशल हुआ। कबीर की फैंटसी एक क्वांटम कलैप्स के साथ हक़ीक़त की ज़मीन पर आ उतरी। एक बेहद खूबसूरत हक़ीक़त बन कर। कौन कहता है कि फैंटसी कभी सच नहीं होती? क्या हर किसी की रियलिटी किसी और की फैंटसी नहीं है? हम सब किसी न किसी की कल्पना, किसी न किसी के सपने का साकार रूप ही तो हैं। प्रिया भी शायद वही रियलिटी थी जो कबीर की फैंटसी में सालों पलती रही थी।
Published on July 01, 2018 14:21
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डार्क नाइट - पुस्तक अंश 1

सारांश :
कबीर का किशोर मन, प्रेम, रोमांस और सेक्स की फैंटेसियों से लबरे़ज है। कबीर की इन्हीं फैंटेसियों का कारवाँ वड़ोदरा की कस्बाई कल्पनाओं से निकलकर लंदन के महानगरीय ख़्वाबों तक पहुँचता है। लंदन के उन्मुक्त माहौल में, कबीर की कल्पनाओं को हर वो ख़ुराक हासिल है, जिसके लिए उसका मन ललकता है। इन्हीं सतरंगी ख़ुराक पर पलकर उसकी कल्पनाएँ कभी हिकमा और नेहा के प्रेम में, तो कभी टीना और लूसी के आकर्षण में ढलती हैं। मगर कबीर के लिए अपने रुपहले ख़्वाबों के हवामहल से निकलकर किशोरियों के मन और काया की भूल-भुलैया में भटकना कठिन है। यही भटकाव उसे ‘डार्क नाइट' में ले आता है; मन की एक ऐसी अवस्था, जिसमें किसी उमंग की कोई रौशनी नहीं है। इसी अँधेरे में कबीर मिलता है, एक स्पेनिश स्ट्रिप डांसर से, जो उसका परिचय डार्क नाइट के रहस्यों से करवाती है। डार्क नाइट के रहस्यों को सुलझाते हुए ही कबीर, नारी प्रेम का संगीत छेड़ना सीखता है; और इस संगीत के सम्मोहन में जकड़ती हैं, दो सुंदरियाँ, प्रिया और माया। प्रिया और माया के आकर्षण में डोलता कबीर, उस दोराहे के जंक्शन पर पहुँचता है, जहाँ उसकी पुरानी कल्पनाएँ जीवित होना चाहती हैं। किसके प्रेम में ढलेंगी कबीर की कल्पनाएँ? किसकी दहली़ज पर जाकर रुकेगा कबीर के ख़्वाबों का कारवाँ? माया या प्रिया?
Dark Night
1
‘आपका नाम?’ उसकी स्लेटी आँखों में मुझे एक कौतुक सा खिंचता दिखाई दिया। मुझसे मिलने वाली हर लड़की की तरह उसमें भी मुझे जानने की एक हैरत भरी दिलचस्पी थी।
‘काम!’ आई जी इंटरनेशनल एअरपोर्ट के प्रीमियम लाउन्ज की गद्देदार सीट में धंसते हुए मैंने आराम से पीछे की ओर पीठ टिकाई। हम दोनों की ही अगली फ्लाइट सुबह थी। सारी रात थी हम दोनों के पास एक दूसरे से बातें करने के लिए।
‘सॉरी काम नहीं, नाम?’
‘जी हाँ, मैंने नाम ही बताया है, मेरा नाम काम है।’
‘थोड़ा अजीब सा नाम है, पहले कभी यह नाम सुना नहीं’ उसकी आँखों का कौतुक थोड़ा बेचैन हो उठा।
‘नाम तो आपने सुना ही होगा, शायद भूल गई हों’
‘याद नहीं कि कभी यह नाम सुना हो।’
‘आपके एक देवता हैं कामदेव।’ थोड़ा आगे झुकते हुए मैंने उसके खूबसूरत चेहरे पर एक शोख नज़र डाली, ‘काम और वासना के देवता, रूप और श्रृंगार की देवी रति के पति’।
उसका चेहरा ग्रीक गोल्डन अनुपात की कसौटी पर लगभग नब्बे प्रतिशत खरा उतरता था। ओवल चेहरे पर ऊँचा और चौड़ा माथा, तराशी हुई नाक, भरे हुए होंठ और मजबूत ठुड्डी और जॉलाइन, सब कुछ सही अनुपात में लग रहे थे। उसकी आँखों की शेप लगभग स्कार्लेट जॉनसन की आँखों सी थी और उनके बीच की दूरी एन्जोलिना जोली की आँखों के बीच के गैप से शायद आधा मिलीमीटर ही कम हो। वह लगभग सत्ताईस-अठ्ठाइस साल की काफ़ी मॉडर्न लुकिंग लड़की थी। स्किनी रिप्ड ब्लू जींस के ऊपर उसने ऑरेंज कलर का लो कट स्लीवलेस टॉप पहना हुआ था। डार्क ब्राउन बालों में कैरामल हाइलाइट्स की ब्लेंडेड लेयर्स कन्धों पर झूल रही थीं। गोरे बदन से शेरिल स्टॉर्मफ्लावर परफ्यूम की मादक खुशबू उड़ रही थी।
फिर भी या तो कामदेव के ज़िक्र पर या मेरी शोख नज़र के असर में शर्म की कुछ गुलाबी आभा उसकी आँखों से टपककर गालों पर फैल गई। इससे पहले कि उसके गालों की गुलाबी शर्म गहराकर लाल होती मैंने पास पड़ा अंग्रेज़ी का अखबार उठाया और फ्रंट पेज पर अपनी नज़रें फिराईं, खबरें थीं, ‘कॉलेज गर्ल किडनैप्ड एंड रेप्ड इन मूविंग कार’, ‘केसेस ऑफ़ रेप, मोलेस्टेशन राइज़ इन कैपिटल’। मेरी नज़रें अखबार के पन्ने पर सरकती हुई कुछ नीचे पहुँची। नीचे कुछ दवाखानों के इश्तेहार थे, ‘रिगेन सेक्सुअल विगर एंड वाइटैलिटी', 'इनक्रीज़ सेक्सुअल ड्राइव एंड स्टैमिना’।
‘मगर यह नाम कोई रखता तो नहीं है। मैंने तो नहीं सुना’ उसके गालों पर अचानक फैल आई गुलाबी शर्म उतर चुकी थी।
‘क्योंकि अब कामदेव की जगह हकीमों और दवाओं ने ले ली है।’ मैंने अखबार में छपे मर्दाना कमज़ोरी दूर करने वाले इश्तेहारों की ओर इशारा किया। शर्म की गुलाबी परत एक बार फिर उसके गालों पर चढ़ आई।
सच तो यही है कि यह देश अब कामदेव को भूल चुका है। अब यहाँ न तो कामदेव के मंदिर बनते हैं और न ही उनकी पूजा होती है। कामदेव अब सिर्फ़ ग्रंथों में रह गए हैं। उन ग्रंथों में जिन्हें इन्होने समाज के महंतों और मठाधीशों को सौंप दिया है। ये महंत बताते हैं कि काम दुष्ट है, उद्दंड है। इन्होने काम को रति के आलिंगन से निकालकर क्रोध का साथी बना दिया है, काम-क्रोध। रति बेचारी को काम से अलग कर दिया गया है। काम जिसकी नज़रों की धूप से उसका रूप खिलता था, उसका श्रृंगार निखरता था, उससे रति की जोड़ी टूट गई है। यदि काम रति के आलिंगन में ही संभला रहे तो शायद क्रोध से उसका साथ ही ना रहे। मगर काम और क्रोध का साथ न रहे तो इन महंतों का काम ही क्या रह जाएगा। इन महंतों के अस्तित्व के लिए बहुत ज़रूरी है कि काम रति से बिछड़कर क्रोध का साथी बना रहे।
‘मैं मज़ाक नहीं कर रहा आपके देश में काम को बुरा समझा जाता है। दुष्ट और उद्दंड। आपको काम को वश में रखने की शिक्षा दी जाती है। इसलिए आप अपने बेटों का नाम काम नहीं रखते। आप भला क्यों दुष्ट और उद्दंड बेटा चाहेंगे?’
‘वैसे कामदेव की कहानी तो आप जानती ही होंगी?’ मैंने अंदाज़ लगाया जो ग़लत था।
‘नहीं कुछ ख़ास नहीं पता।’
‘कामदेव ने समाधि में लीन भगवान शिव का ध्यान भंग किया था और क्रोध में आकर भगवान शिव ने उन्हें भस्म कर दिया था। इसीलिए आप भगवान शिव को कामेश्वर कहते हैं। पालन करने वाले ईश्वर को आपने भस्म करने वाला बना दिया।’
‘ओह! तो फिर रति का क्या हुआ?’ स्त्री होने के नाते उसमें रति के लिए सहानुभूतिपूर्ण उत्सुकता होना स्वाभाविक था।
‘रति काम को जीवित कर सकती थी। काम को और कौन जीवित कर सकता है रति के अलावा? काम तो रति का दास है। विश्वामित्र के काम को मेनका की रति ने ही जगाया था। ब्रह्मर्षि का तप भी नहीं चला था रति की शक्ति के आगे’ मैंने एक बार फिर उसके रतिपूर्ण श्रृंगार को निहारा।
‘तो क्या रति ने कामदेव को जीवित कर दिया?’
‘आपके समाज के महंत रति से उसकी यही शक्ति तो छुपाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि जिस दिन रति को अपनी इस शक्ति का बोध हो गया उस दिन पुरुष स्त्री का दास होगा।’
शर्म की वही गुलाबी आभा एक बार फिर उसके गालों पर फैल गई। शायद उस समाज की कल्पना उसके मन में उभर आई जिसमें पुरुष स्त्री का दास हो। सिर्फ़ एक औरत के मन में ही पुरुष पर शासन करने का विचार भी एक लजीली संवेदना ओढ़कर आ सकता है।
‘तो फिर रति ने क्या किया?’
‘रति ने कामदेव को जीवित करने के लिए भगवान शिव से विनती की। और जानती हैं भगवान शिव ने क्या किया?’
‘क्या?’
‘उन्होंने कामदेव को जीवित तो किया मगर बिना शरीर के, ताकि रति की देह को कामदेव के अंगों की आँच न मिल सके। अब कामदेव अनंग हैं और रति अतृप्त है।’
‘ओह!’ उसके चेहरे पर एक गहरा असंतोष दिखाई दिया, ’वैसे आपके नाम की तरह आप भी दिलचस्प आदमी हैं। कितना कुछ जानते हैं इंडिया के बारे में। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि आप पहली बार इंडिया आए हैं।’
‘मेरी पैदाइश लंदन की है, मगर मेरी जड़ें इंडिया में ही हैं। मेरे ग्रैंडपेरेंट्स इंडिया से ईस्ट अफ्रीका गए थे, फिर मेरे पेरेंट्स ईस्ट अफ्रीका से निकलकर ब्रिटेन जा बसे’
‘कैसा लगा इंडिया आपको?’
‘खूबसूरत और दिलचस्प, आपकी तरह’ मैंने फिर उसी शोख नज़र से उसे देखा, उसके गाल फिर गुलाबी हो उठे, ‘आपने अपना नाम नहीं बताया’
‘मीरा’ वैसे मुझे लगा कि उसका नाम रति होता तो बेहतर था।
‘काम क्या करते हैं आप?’ मीरा का अगला प्रश्न था।
मैं इसी प्रश्न की अपेक्षा कर रहा था। हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहाँ आपका काम, आपका व्यवसाय ही आपकी पहचान होता है। आप कैसे इंसान हैं उसकी पहचान व्यवसाय की पहचान के पीछे ढकी ही रहती है। मेरी पहचान ‘योगा इंस्ट्रक्टर’ की है, हिंदी में कहें तो ‘योग प्रशिक्षक’। इंस्ट्रक्शन्स या निर्देशों की योग में अपनी जगह है। ज़मीन पर सिर रखकर, गर्दन मोड़कर, टाँगें उठाकर, पैर आसमान की ओर तानकर यदि सर्वांगासन करना हो तो उसके लिए सही निर्देशों की ज़रूरत तो होती ही है, वर्ना गर्दन लचक जाने का डर होता है। और यदि कूल्हों को हाथों से सही तरह से न संभाला हो तो जिस कमर की गोलाई कम करने के कमरकस इरादे से योगा सेंटर ज्वाइन किया हो, वही कमर भी लचक सकती है। मगर योग वह होता है जो पूरे मनोयोग से किया जाए, और मन को साधने के लिए निर्देशों की नहीं बल्कि ज्ञान की ज़रूरत होती है। और ज्ञान सिर्फ़ गुरु से ही मिल सकता है। इसलिए मैं स्वयं को योग गुरु कहता हूँ।
‘मैं योग गुरू हूँ’
‘योग गुरू? वो कपालभाति सिखाने वाले स्वामी जी जैसे? आप वैसे लगते तो नहीं’ मीरा की आँखों के कौतुक में फिर पहली सी बेचैनी दिखाई दी।
मुझे पता था उसे आसानी से यकीन नहीं होगा। दरअसल किसी को भी मेरा ख़ुद को योग गुरू कहना रास नहीं आता। जींस-टी शर्ट पहनने वाला, स्पोर्ट्स बाइक चलाने वाला, स्लीप-अराउंड करने वाला योग गुरू? उनके मन में योग गुरू की एक पक्की तस्वीर बनी होती है, लम्बे बालों और लम्बी दाढ़ी वाला, भगवाधारी साधू। मगर योग एक क्रांति है, साइलेंट रेवोलुशन। योगी रेवोलुशनरी होता है, और रेवोलुशनरी इंसान किसी ढाँचे में बंध कर नहीं रहता। निर्वाण की राह पर चलने वाला अगर किसी स्टीरियोटाइप से भी मुक्ति न पा सके तो संसार से मुक्ति क्या ख़ाक पाएगा?
‘हा, हा... वैसा ही कुछ अलग किस्म का। वैसे आप योग करती हैं?’
‘हाँ कभी-कभी, वही बाबाजी वाला कपालभाति। इट्स ए वेरी गुड एक्सरसाइज़ टू कीप फिट’।
‘महर्षि पातंजलि कह गए हैं, डूइंग बोट आसना टू गेट ए फ्लैट टम्मी इस मिसिंग द होल बोट ऑफ़ योगा’ मैंने एक हल्का सा ठहाका लगाया।
‘इंटरेस्टिंग! किस तरह?’ अब तक मीरा मेरे विचित्र जवाबों की आदी हो चुकी थी.
‘कबीर के बारे में जानना चाहेंगी?’
‘कबीर? कौन कबीर?’
‘कबीर मेरा स्टूडेंट है। मुझसे योग सीखता है’
‘ह्म्म्म..क्या वह आपकी तरह ही दिलचस्प इंसान है?’
‘मुझसे भी ज़्यादा’
‘तो फिर बताइए, आई विल लव टू नो अबाउट हिम’
‘कबीर की कहानी दिलचस्प भी है, डिस्ट्रेसिंग भी है, ट्रैजिक भी है और इरोटिक भी है। आप अनकम्फ़र्टेबल तो नहीं होंगी’
‘कामदेव की कहानी के बाद तो अब हम कम्फ़र्टेबल हो ही गए हैं, आप शुरू करिए’ एक बहुत कम्फ़र्टेबल सी हँसी उसके होठों पर खिल गई।
Published on July 01, 2018 14:17
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फैन फिक्शन - सृजनशीलता की अभिव्यक्ति या फरेबी फैंटेसियों का ठिकाना?
कुछ दिनों पहले फैन फिक्शन पर बातें हुई थीं. बातें असरदार रही थीं. कई लोगों ने फैन फिक्शन लिखने में रुचि दिखाई थी. रत्नाकर मिश्रा ने तो डार्क नाइट पर पाँच-छह फैन फिक्शन कहानियाँ लिख भी दीं. मगर फिर वह असर थम गया. फैन फिक्शन पर बातें भी कम होते हुए रुक ही गईं.
जो लोग यहाँ नए हैं, या फैन फिक्शन के बारे में नहीं जानते उनके लिए बता दूँ कि फैन फिक्शन का अर्थ होता है किसी और की लिखी रचना की पृष्ठभूमि और उसके किरदारों को लेकर लिखी गई कोई नई या अलग रचना. यह विशेष रूप से मूल रचना या रचनाकार के फैन्स द्वारा लिखी जाती हैं. इसलिए इन्हें फैन फिक्शन कहते हैं. हम सभी के भीतर एक लेखक होता है. भले ही हमारे पास बहुत गंभीर या परिपक्कव विचार न हों. भले ही हमे भाषा या शिल्प का बहुत अधिक ज्ञान न हो. मगर कल्पनाशीलता हम सभी में होती है. कहानियाँ हम बना ही लेते हैं. बहुत से गैरलेखक अनुभवी लेखकों से बेहतर कहानियाँ बना लेते हैं. ऐसे कई गैरलेखक पाठकों में लिखने की तीव्र इच्छा भी होती है. मगर कथाशिल्प के अभाव में उन्हें पृष्ठभूमि बनाने और पात्र विकसित करने में दिक्कत होती है. ऐसे में यदि बनी बनाई पृष्ठभूमि और विकसित पात्र मिल जाएँ तो वे उन्हें अपनी कल्पनाओं के परों पर बैठा बहुत ऊँची उड़ान दे सकते हैं. उन्हें कई सतरंगी इन्द्रधनुषों में सजा सकते हैं.
इन दिनों इन्टरनेट में फैन फिक्शन का सैलाब सा आया हुआ है. पश्चिमी देशों में तो यह लम्बे समय से चल रहा है मगर अब भारत में भी फैन फिक्शन के रचयिता बढ़ते जा रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि भारत में लिखा जा रहा अधिकांश फैन फिक्शन साहित्य पर नहीं बल्कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों पर लिखा जा रहा है. कभी न समाप्त होने वाले टीवी धारावाहिकों के कहीं न ख़त्म होने वाले फैन फिक्शनों की लड़ियाँ बनती जा रही हैं. इन लड़ियों में नित नए फैन फिक्शन लेखक नई कड़ियाँ भी जोड़ते जा रहे हैं. एक अन्य दुर्भाग्य यह भी है कि हिंदी फिल्मों और हिंदी के टीवी सीरियलों पर लिखे जा रहे ये सभी फैन फिक्शन अंग्रेज़ी में ही लिखे जा रहे हैं. गलत-सलत और टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में ही सही मगर ये लेखक लिख अंग्रेज़ी में ही रहे हैं. शायद वे भी इसी मानसिकता के मारे हैं कि पहचान तो तभी मिलेगी जब अंग्रेज़ी में लिखें. वरना मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों और हिंदी धारावाहिकों के दर्शक होने के नाते वे हिंदी में बेहतर लिख सकते हैं.
फैन फिक्शन की कई उपयोगिताएँ हैं. कल्पनाशीलता और सृजनशीलता को मूर्तरूप देना तो खैर है ही फैन फिक्शन के ज़रिये लेखक मूल और प्रचिलित लेखन के समानांतर अपनी एक नई शैली भी गढ़ सकते हैं और कोई नई विधा या श्रेणी भी बना सकते हैं. आज जिस तरह फिल्मों और टीवी धारावाहिकों के दृश्य और चरित्र बहुत ही कृत्रिम और अस्वभाविक से लगते हैं, फैन फिक्शन लेखक उन दृश्यों और चरित्रों का स्वभाविक चित्रण कर फिल्म और टीवी धारावाहिक के लेखकों के सामने उचित उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकते हैं. ठीक ऐसा ही साहित्य के फैन फिक्शन के साथ भी किया जा सकता है. जहाँ कहीं पाठकों को लगता है कि किसी चरित्र के साथ न्याय नहीं हुआ, या कोई चरित्र खुलकर सामने नहीं आया, या किसी कहानी का अंत उचित नहीं हुआ, या कोई कहानी सही सन्देश नहीं दे रही है, तो पुस्तक की आलोचना के साथ ही फैन फिक्शन के ज़रिये सही उदाहरण भी पेश कर सकते हैं. आलोचना करना आसान है, और इसीलिए अधिकांश लेखक कोरी आलोचनाओं को पसंद भी नहीं करते. मगर यदि उदाहरणों सहित उनके सामने यह पेश किया जाए कि कहाँ क्या कमियाँ रह गईं तो वे उसे अधिक सकारात्मक रूप से लेंगे. इस तरह फैन फिक्शन लेखक साहित्य की समृद्धि में भी अपना योगदान दे सकते हैं.
मगर फैन फिक्शन के अपने दोष भी हैं जिन्हें समझना और उनके प्रति जागरूक रहना भी ज़रूरी है. आज अधिकांश फैन फिक्शन, विशेष रूप से किशोरों और युवाओं द्वारा लिखे जाने वाले फैन फिक्शन फैंटेसी के कृत्रिम आकाश में तने एक फरेबी इंद्रजाल से होते हैं जिनमें ये किशोर और युवा लेखक अपनी इरोटिक फैंटेसियों के रूपहले रंग भरते हैं. समस्या न तो फैंटेसी से है और न ही इरोटिका से. मगर जो बात समझने वाली है वह यह कि फैंटेसियों में फरेब ही अधिक होता है और यथार्थ बहुत कम. जब तक फैंटेसियाँ जीवन के कटु यथार्थ से राहत की कुछ संभावनाएँ दिखाती हैं तब तक तो वे ठीक हैं मगर जब वे एक ऐसे फरेबी मायाजाल का रूप ले लें जिसमें लेखक और पाठक यथार्थ से कटकर सिर्फ उलझते ही जाएँ तो ऐसी उलझन से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. फैन फिक्शन लिखें मगर अपनी सृजनशीलता को अभिव्यक्ति देने के लिए, न कि अपनी इरोटिक फैंटेसियों को ठौर-ठिकाना देने के लिए.
जो लोग यहाँ नए हैं, या फैन फिक्शन के बारे में नहीं जानते उनके लिए बता दूँ कि फैन फिक्शन का अर्थ होता है किसी और की लिखी रचना की पृष्ठभूमि और उसके किरदारों को लेकर लिखी गई कोई नई या अलग रचना. यह विशेष रूप से मूल रचना या रचनाकार के फैन्स द्वारा लिखी जाती हैं. इसलिए इन्हें फैन फिक्शन कहते हैं. हम सभी के भीतर एक लेखक होता है. भले ही हमारे पास बहुत गंभीर या परिपक्कव विचार न हों. भले ही हमे भाषा या शिल्प का बहुत अधिक ज्ञान न हो. मगर कल्पनाशीलता हम सभी में होती है. कहानियाँ हम बना ही लेते हैं. बहुत से गैरलेखक अनुभवी लेखकों से बेहतर कहानियाँ बना लेते हैं. ऐसे कई गैरलेखक पाठकों में लिखने की तीव्र इच्छा भी होती है. मगर कथाशिल्प के अभाव में उन्हें पृष्ठभूमि बनाने और पात्र विकसित करने में दिक्कत होती है. ऐसे में यदि बनी बनाई पृष्ठभूमि और विकसित पात्र मिल जाएँ तो वे उन्हें अपनी कल्पनाओं के परों पर बैठा बहुत ऊँची उड़ान दे सकते हैं. उन्हें कई सतरंगी इन्द्रधनुषों में सजा सकते हैं.
इन दिनों इन्टरनेट में फैन फिक्शन का सैलाब सा आया हुआ है. पश्चिमी देशों में तो यह लम्बे समय से चल रहा है मगर अब भारत में भी फैन फिक्शन के रचयिता बढ़ते जा रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि भारत में लिखा जा रहा अधिकांश फैन फिक्शन साहित्य पर नहीं बल्कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों पर लिखा जा रहा है. कभी न समाप्त होने वाले टीवी धारावाहिकों के कहीं न ख़त्म होने वाले फैन फिक्शनों की लड़ियाँ बनती जा रही हैं. इन लड़ियों में नित नए फैन फिक्शन लेखक नई कड़ियाँ भी जोड़ते जा रहे हैं. एक अन्य दुर्भाग्य यह भी है कि हिंदी फिल्मों और हिंदी के टीवी सीरियलों पर लिखे जा रहे ये सभी फैन फिक्शन अंग्रेज़ी में ही लिखे जा रहे हैं. गलत-सलत और टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में ही सही मगर ये लेखक लिख अंग्रेज़ी में ही रहे हैं. शायद वे भी इसी मानसिकता के मारे हैं कि पहचान तो तभी मिलेगी जब अंग्रेज़ी में लिखें. वरना मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों और हिंदी धारावाहिकों के दर्शक होने के नाते वे हिंदी में बेहतर लिख सकते हैं.
फैन फिक्शन की कई उपयोगिताएँ हैं. कल्पनाशीलता और सृजनशीलता को मूर्तरूप देना तो खैर है ही फैन फिक्शन के ज़रिये लेखक मूल और प्रचिलित लेखन के समानांतर अपनी एक नई शैली भी गढ़ सकते हैं और कोई नई विधा या श्रेणी भी बना सकते हैं. आज जिस तरह फिल्मों और टीवी धारावाहिकों के दृश्य और चरित्र बहुत ही कृत्रिम और अस्वभाविक से लगते हैं, फैन फिक्शन लेखक उन दृश्यों और चरित्रों का स्वभाविक चित्रण कर फिल्म और टीवी धारावाहिक के लेखकों के सामने उचित उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकते हैं. ठीक ऐसा ही साहित्य के फैन फिक्शन के साथ भी किया जा सकता है. जहाँ कहीं पाठकों को लगता है कि किसी चरित्र के साथ न्याय नहीं हुआ, या कोई चरित्र खुलकर सामने नहीं आया, या किसी कहानी का अंत उचित नहीं हुआ, या कोई कहानी सही सन्देश नहीं दे रही है, तो पुस्तक की आलोचना के साथ ही फैन फिक्शन के ज़रिये सही उदाहरण भी पेश कर सकते हैं. आलोचना करना आसान है, और इसीलिए अधिकांश लेखक कोरी आलोचनाओं को पसंद भी नहीं करते. मगर यदि उदाहरणों सहित उनके सामने यह पेश किया जाए कि कहाँ क्या कमियाँ रह गईं तो वे उसे अधिक सकारात्मक रूप से लेंगे. इस तरह फैन फिक्शन लेखक साहित्य की समृद्धि में भी अपना योगदान दे सकते हैं.
मगर फैन फिक्शन के अपने दोष भी हैं जिन्हें समझना और उनके प्रति जागरूक रहना भी ज़रूरी है. आज अधिकांश फैन फिक्शन, विशेष रूप से किशोरों और युवाओं द्वारा लिखे जाने वाले फैन फिक्शन फैंटेसी के कृत्रिम आकाश में तने एक फरेबी इंद्रजाल से होते हैं जिनमें ये किशोर और युवा लेखक अपनी इरोटिक फैंटेसियों के रूपहले रंग भरते हैं. समस्या न तो फैंटेसी से है और न ही इरोटिका से. मगर जो बात समझने वाली है वह यह कि फैंटेसियों में फरेब ही अधिक होता है और यथार्थ बहुत कम. जब तक फैंटेसियाँ जीवन के कटु यथार्थ से राहत की कुछ संभावनाएँ दिखाती हैं तब तक तो वे ठीक हैं मगर जब वे एक ऐसे फरेबी मायाजाल का रूप ले लें जिसमें लेखक और पाठक यथार्थ से कटकर सिर्फ उलझते ही जाएँ तो ऐसी उलझन से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. फैन फिक्शन लिखें मगर अपनी सृजनशीलता को अभिव्यक्ति देने के लिए, न कि अपनी इरोटिक फैंटेसियों को ठौर-ठिकाना देने के लिए.
Published on July 01, 2018 13:37
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June 30, 2018
इरॉटिका, इरॉटिक रोमांस और पोर्न में अंतर क्या है?
Dark Night
जब मैंने ‘डार्क नाइट’ लिखना शुरू किया और लोगों से कहा कि वह एक इरॉटिक रोमांस होगा तो कई भौहें नृत्य करने लगीं। कई किस्म के प्रश्न उठे, क्या वह एक और फिफ्टी शेड्स टाइप का उपन्यास होगा से लेकर क्या वह मस्तराम या सविता भाभी जैसा होगा? लोग आमतौर पर इरॉटिक रोमांस, इरॉटिका और पोर्न के बीच अंतर नहीं कर पाते। खासतौर पर भारतीय पाठक। सेक्स का चित्रण जिसे अँग्रेज़ी में ग्राफ़िक सेक्स कहा जाता है, मात्र किसी भी कहानी पर मस्तराम का लेबल लगा देने के लिए काफी होता है। मगर तीनों में अंतर होता है और वह अंतर बहुत महीन भी नहीं होता।
पोर्न जैसा कि सभी जानते हैं, का उद्द्देश्य यौन उत्तेजना मात्र होता है। कहानी, प्लाट, चरित्र चित्रण या चरित्रों की भावनात्मक दशा कोई खास महत्व नहीं रखते। पोर्न का पाठक पर असर भी क्षणिक उत्तेजना के रूप में ही होता है। पाठक चरित्रों से किसी किस्म का भावनात्मक लगाव पैदा नहीं कर पाता।
इरॉटिका में हालांकि मूल में सेक्स ही होता है और कहानी सेक्स के इर्द-गिर्द ही घूमती है मगर वह सेक्स के प्रसंगों के ज़रिए न सिर्फ पात्रों की यौन यात्रा की कहानी कहता है, बल्कि उस यात्रा के दौरान उन पर आए भावनात्मक असर का चित्रण भी करता है। इरॉटिका में रोमांस ज़रूरी नहीं है। कहानी सेक्स पर केंद्रित और उसी में सीमित हो सकती है। आमतौर पर इरॉटिका पढ़ते हुए पाठक पात्रों से भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता है।
इरॉटिक रोमांस इस मायने में अलग होता है कि उसके केंद्र में रोमांस होता है मगर उस रोमांस की यात्रा यौन संबंधों और यौन प्रसंगों के ज़रिए ही आगे बढ़ती है। सेक्स कहानी का एक अनिवार्य अंग होता है और उसे कहानी के मूल स्वरूप को बिगाड़े बिना हटाया नहीं जा सकता। इरॉटिक रोमांस का अंत प्रायः सुखद यानि रोमांटिक सम्बन्ध की पूर्णता में होता है।
इस आधार पर मैं डार्क नाइट को एक इरॉटिक रोमांस ही कहूँगा। और आप?
जब मैंने ‘डार्क नाइट’ लिखना शुरू किया और लोगों से कहा कि वह एक इरॉटिक रोमांस होगा तो कई भौहें नृत्य करने लगीं। कई किस्म के प्रश्न उठे, क्या वह एक और फिफ्टी शेड्स टाइप का उपन्यास होगा से लेकर क्या वह मस्तराम या सविता भाभी जैसा होगा? लोग आमतौर पर इरॉटिक रोमांस, इरॉटिका और पोर्न के बीच अंतर नहीं कर पाते। खासतौर पर भारतीय पाठक। सेक्स का चित्रण जिसे अँग्रेज़ी में ग्राफ़िक सेक्स कहा जाता है, मात्र किसी भी कहानी पर मस्तराम का लेबल लगा देने के लिए काफी होता है। मगर तीनों में अंतर होता है और वह अंतर बहुत महीन भी नहीं होता।
पोर्न जैसा कि सभी जानते हैं, का उद्द्देश्य यौन उत्तेजना मात्र होता है। कहानी, प्लाट, चरित्र चित्रण या चरित्रों की भावनात्मक दशा कोई खास महत्व नहीं रखते। पोर्न का पाठक पर असर भी क्षणिक उत्तेजना के रूप में ही होता है। पाठक चरित्रों से किसी किस्म का भावनात्मक लगाव पैदा नहीं कर पाता।
इरॉटिका में हालांकि मूल में सेक्स ही होता है और कहानी सेक्स के इर्द-गिर्द ही घूमती है मगर वह सेक्स के प्रसंगों के ज़रिए न सिर्फ पात्रों की यौन यात्रा की कहानी कहता है, बल्कि उस यात्रा के दौरान उन पर आए भावनात्मक असर का चित्रण भी करता है। इरॉटिका में रोमांस ज़रूरी नहीं है। कहानी सेक्स पर केंद्रित और उसी में सीमित हो सकती है। आमतौर पर इरॉटिका पढ़ते हुए पाठक पात्रों से भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता है।
इरॉटिक रोमांस इस मायने में अलग होता है कि उसके केंद्र में रोमांस होता है मगर उस रोमांस की यात्रा यौन संबंधों और यौन प्रसंगों के ज़रिए ही आगे बढ़ती है। सेक्स कहानी का एक अनिवार्य अंग होता है और उसे कहानी के मूल स्वरूप को बिगाड़े बिना हटाया नहीं जा सकता। इरॉटिक रोमांस का अंत प्रायः सुखद यानि रोमांटिक सम्बन्ध की पूर्णता में होता है।
इस आधार पर मैं डार्क नाइट को एक इरॉटिक रोमांस ही कहूँगा। और आप?
Published on June 30, 2018 14:30
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Tags:
dark-night, erotic-romance, erotica, porn
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