गंध: कहानी

गंध यह एक भ्रम है कि आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, स्पर्श छूता है, नाक सूँघ लेती है और जीभ स्वाद बता देती है। इन कपटी मित्रों की सलाह पर फैसले का एक द्वार पार हो जाता है बस, फैसला नहीं हो जाता; और जब कभी हो जाता है तो अक्सर गलत ही होता है। छुअन जैसी दिखाई और सुनाई देती है, उसका स्वाद और उसकी खुशबू अक्सर उलट होती है।


गोवा के हर दृश्य में, तकरीबन हर मंज़र में तीन परतें हैं। फिर वह चाहे समंदर के दूर वाले छोर पर सूरज के बुझने से पहले खूब लाल हो जाने का शगल हो या फिर बीच की रेत पर बिकिनी पहने, आँखों पर काला चश्मा चढ़ाए किसी विदेशी महिला पर्यटक का देर तक बेफिक्र पड़े रहना हो। एक परत वह जो दूर से दिखाई देती है। जिसे हम अपने मन में बसाए, मीलों उसे देखने चले आते हैं। उसमें कुछ कमी हो जाए तो लगता है छुट्टियाँ बेकार गईं। देखने वाले सैलानी का पक्ष इसमें एक झुकाव लिए शामिल होता है। दूसरा वह जिसे हम एक मंझे हुए विज्ञापन के इतर सत्यता के नग्न धरातल पर स्वीकार करते हैं। सैलानी का झुकाव कुछ कम हो जाता है, सत्यता का पुट बढ़ जाता है। समीकरण कुछ-कुछ संतुलित हो जाता है। एक झीना सा खेद ज़रूर उतरता है मन में, पर अंततः स्वीकार्य हो जाता है। इस नग्नता से वह आँखें भी मिला लेता है और उसे हज़म भी कर लेता है।  तीसरी परत उस दृश्य का मंतव्य है जो आपको झकझोरते हुए कहती हैं कि मैं वह हूँ ही नहीं जो तुम देख रहे हो। बुझता हुआ सूरज कहता है मेरा लाल दिखाई देना तुम्हारा भ्रम है और यह कि मैं समंदर के पीछे छुपने नहीं जा रहा हूँ बल्कि ये पृथ्वी, जिस पर ठहरकर तुम इस मंज़र को आत्मसात कर रहे हो, कहीं मुँह छुपाने के प्रयास में करवट बदल रही है। मैं तो वहीं हूँ जहाँ था। झटका लगता है ह्रदय को। विद्रोह उमड़ पड़ता है। सब जगह तो वही है। छूटे हुए गाँव के चौराहे पर भी तो भीड़ यही बात कहती थी। इतनी दूर मीलों चलकर भी यही बात सुनना ठेस पहुँचाता है। जगह बदलकर कई भ्रमों के दूर हो जाने का भ्रम, हम अपनी पोटली में बाँधे होटल से विदा लेते हैं और घर वापस पहुँच जाते हैं। घर, लौटकर जिसमें समा जाने की चाह गोवा के किसी भी दृश्य की पहली परत पर भारी पड़ती  है।होटल के कमरे की बालकनी में बैठा प्रणव बिकिनी में बीच पर लेटी हुई उस विदेशी पर्यटक को आधे घंटे से देख रहा था। करीब पचास फिट की दूरी पर उसका अर्धनग्न सौंदर्य उसे प्रभावित कर रहा था। वह अकेली थी। बीच पर और भी पर्यटक थे जो सूरज के समंदर में समा जाने के उपरान्त, उठकर होटल की ओर चल दिए थे। कुछ बच्चे थे जो बार-बार लहरों को अपना घर उजाड़ते हुए देखते और फिर वापस उस उजड़े हुए घर को खड़ा करने के क्रम में व्यस्त हो रहे थे। अभिभावकों ने टेर लगाई तो उनके साहसी प्रयत्नों ने विराम लिया। अपने चेहरों पर मासूम सी शिकायतें ओढ़े, हल्का सा प्रतिरोध लिए वे अभिभावकों के पीछे हो लिए। बालकनी की मुँडेर पर अपने पैर पसारे बैठा प्रणव बियर की पहली बोतल समाप्त करने के अनुष्ठान के करीब था। अचानक वह उठा और पैरों में चप्पलें डालकर कमरे के बाहर निकल गया। दरवाजा बंद करने के लिए उसने डोर नॉब हाथ में पकड़ा ही था कि उसे कुछ याद आया। वह चाबी लेना भूल गया था। बियर का हल्का-हल्का सुरूर उसके मस्तिष्क में रक्त के साथ प्रवाहित होने लगा था। ऐसे मंद सुरूर में आदमी का पैर ज़मीन पर नहीं, बल्कि जमीन के आकाश में बादलों के मानिंद तैरती हुई तरल हवा पर पड़ता है। अतीत की कितनी ही यादें, भविष्य के कितने ही सपने मस्तिष्क के बीच पर ज्वार की तरह अवतरित होते हैं और वर्तमान में बने उन घरौंदों को एक पल में ध्वस्त कर लौट जाते हैं। बीच पर पहुँचकर प्रणव उस पर्यटक से कुछ दूरी पर ठहर गया। उसका चेहरा अब और साफ़ दिखाई देने लगा था। काले चश्मे के नीचे उसके रक्ताभ गालों पर भूरे-भूरे कई धब्बे थे। जैसे गेहूँ की सुनहरी बाली पर जगह-जगह किसी रोग की आहट देती हुई कालिमा ने घर बना लिया हो। चश्मे के पीछे छुपी आँखें दिखाई नहीं देती थीं पर चेहरे की त्वचा साफ़ संकेत दे रही थी कि आँखें गहराई में धँसी हुई होंगी और उनके किनारों पर झुर्रियाँ उन्नत होकर प्रकट हो चुकी होंगी। उसका कुछ इरादा न था। बियर की एक बोतल ख़त्म कर चुका था और दूसरी बोतल शुरू करने से पहले कुछ विराम लेना चाहता था। या फिर पहली बोतल के सुरूर को कुछ देर महसूस करना चाहता था। वह और आगे बढ़ा और उसके एक दम नज़दीक आकर खड़ा हो गया। इससे पहले कि महिला कोई प्रतिक्रिया करती वह उसके समीप से गुजरता हुआ दूर चला गया। इस दृश्य की तीसरी परत भयावह थी। गोवा के आकर्षक समुद्री बीचों पर एक ही चीज थी जो प्रणव के नथुनों के जरिये उसके शरीर में पहुँचती और उसके बियर पीने का अनुभव को कसैला कर देती। गोवा में फैली हुई मछली की दुर्गन्ध शाकाहारी प्रणव को बियर के स्वाद में खलल डालती प्रतीत हो रही थी। उस अधेड़ उम्र पर्यटक की ग्रंथियों से निकलने वाले स्रावों की गंध उस वातावरण में फैली दुर्गन्ध के साथ एक बदबूदार कॉकटेल बना रही थी। इसी कॉकटेल का एक भभका प्रणव के नथुनों को चीरते हुए उसकी साँसों में उतर गया। शरीर के नदी और नाले जो अभी-अभी बियर के गुलाबी स्पर्श से चहक उठे थे, अचानक आये इस बदबूदार अंधड़ से व्याकुल हो उठे। “सोनाली...!” उसके अंतर्मन ने पुकारा।  वर्तमान की नग्नता को दूसरी और तीसरी परत से ढँकने के लिए वह दृश्य पटल से जितना दूर जा रहा था, नग्नता उसकी दोगुनी रफ़्तार से उसकी ओर बढ़ रही थी। जिस तरह प्यार पाना आपकी खुशकिस्मती है, उसी तरह अपने बिखरे हुए प्यार से सफलतापूर्वक पीछा छुड़ा लेना भी आपकी खुशकिस्मती है।तीन चीज़ें एक साथ हुईं। प्रणव का प्रमोशन, उसे बैंक से नया फोन मिलना और रिलायंस जिओ का लॉन्च होना। प्रणव अकेला नहीं था जिसके लिए ये तीनों चीजें एक साथ हुई थीं। नवोदय स्कूलों की हॉस्टल लाइफ में अक्सर लड़के लड़कियों के संपर्क में नहीं आते। माँ, बहिन या फिर एक दो रिश्तेदार। बहुत ज्यादा हुआ तो किसी दोस्त की बहिन। वे लड़कियाँ जिनसे दोस्ती करने में नई उम्र के लड़के गर्व महसूस करते हैं या जिन्हें अपने किसी दोस्त से ज़िक्र के दौरान कह देते हैं कि फलाँ लड़की उनकी ‘दोस्त’ है, इन नवोदय स्कूल के लड़कों की कुंडली में होती ही नहीं है। ये लड़के जब स्कूल से बाहर निकलते हैं तो इनकी दो ही परतें होती हैं। एक वह जो बाहर सबको दिखाई देती है और जिसकी परिभाषा के अनुसार लड़कियों के साथ तमीज-तहजीब में इनका कोई मुकाबला नहीं। तहजीब की चाशनी इनके चेहरे से भर-भर कर टपकती है। दूसरा चेहरा वह, जो कहता है कि अगर किसी लड़की ने इनकी तरफ एक नज़र भी मुस्कुरा के देख लिया तो समझ लो वह इनके प्यार में पागल हो चुकी है। वह शादी तो करना ही चाहती है पर उससे बहुत पहले चाहती है कि सुहागरात हो जाए। सामान्यतः, एक दब्बूपन है जो लड़कियों के प्रति इनके व्यवहार में अपने आप उतर आता है। व्यवहार के दौरान इनका सचेत ऐन्टेना हमेशा ताड़ता रहता है कौन सा शब्द सुनकर लड़की के चेहरे की रंगत बदल जाया करती है। उन्हें बस वे शब्द इस्तेमाल में नहीं लाने हैं जिन्हें लड़कियाँ तहजीब के खिलाफ समझती हैं। जब कोई लड़का यह इत्मीनान कर लेता है कि उसके शब्दकोष में ऐसा कोई भी शब्द नहीं बचा है जिससे लड़की के चेहरे का रंग न बदलता हो तब वह लड़कियों से किनारा करना शुरू कर देता है। और आहिस्ता-आहिस्ता यह दब्बूपन उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाता है। कुछेक के चेहरों की बनावट इतनी सटीक होती है कि अपना मुँह बंद रखने पर भी सामने वाली लड़की को उसके होठों से टपकती लार की फिसलन और बेस्वाद मिठास का एहसास हो जाता है। अक्सर ऐसी ही सूरतों के लड़कों का निकनेम प्रेम चोपड़ा और रंजीत के किरदारों के नाम पर रखा जाता है। नवोदय विद्यालय में पढ़ाई ख़त्म करने के बाद उसने ग्रेजुएशन की और उसके बाद चार्टर्ड अकाउंटेंट की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास कर ली। एक प्राइवेट बैंक में तीन साल दिल्ली में नौकरी की। तीन साल बाद प्रमोशन देकर बैंक ने उसे मुंबई भेज दिया। मुंबई पहुँचकर वह उत्साहित था। वह मेरठ का रहने वाला था और मेरठ में उसका पूरा परिवार खेती में लगा हुआ था। अच्छी-खासी पुश्तैनी जमीन थी। साल भर बस गन्ना उगाया जाता था और आस-पास की फैक्टरियों में बेच दिया जाता था। अच्छी आमदनी थी। जब तक दिल्ली में रहा वह अक्सर अपने स्कूल वाले दब्बू दोस्तों की संगत में रहा। नौकरी के सिवा सब कुछ... खाना, पीना, पार्टी करना सब कुछ सिर्फ दोस्तों के साथ। दोस्तों ने उसे गर्लफ्रेण्ड बनाने तक का अवसर नहीं दिया। मुंबई में पहुँचने के 6 महीने के भीतर ही उसकी गर्लफ्रेण्ड बन गई। चंडीगढ़ की सोनाली उसी की बैंक में काम करती थी। कौन से नियम हैं जो लोगों को एक दूसरे के साथ रिश्तों में बाँधते हैं? ऐसे कोई नियम हैं भी या नहीं? क्या ये बस प्रकृति का रैंडम सिलेक्शन है कि फलाँ लड़के का विवाह फलाँ लड़की से होगा। कुंडली के गुण-अवगुण क्या सचमुच इस निरुद्देश्य चयन की मान्यता को नकारने के लिए हैं? जाति-बंधन, धर्म, सामाजिक ओहदा? ये सब चीजें क्या सचमुच प्रभावी हैं? क्या माँ-बाप व अन्य परिवारजनों द्वारा चुना हुआ या थोपा हुआ विकल्प ही सही विकल्प है? दिल्ली से जब वह मुंबई आया था तब वह सोनाली को जानता भी नहीं था। यह भी एक इत्तेफाक ही तो था कि वह उसी की बैंक में काम करती थी। अगर वह किसी और बैंक में या फिर किसी और जगह काम करती तो? शायद वह सोनाली से मिला भी न होता। वह न मिलता तो ज्यादा अच्छा होता। एक दिन यूँ ही कैफेटेरिया में लंच के दौरान हुआ परिचय, कॉफ़ी टेबल,वीकेण्ड सिनेमा और कुछ लेट नाईट पार्टी से गुजरते हुए एक नियति की ओर बढ़ रहा था। प्रणव को याद है वह कितना असहज महसूस कर रहा था जब पहली बार फिल्म देखते हुए सोनाली उसकी बगल वाली सीट पर आ बैठी थी। बिंदास और बहिर्मुखी सोनाली एक ही झोंके में उसके दब्बूपन को उड़ा ले गयी थी। हाथ मिलाते वक़्त भी वह सोचता रहता था। “क्या इसका कोई मतलब है?” उसके हाथों का स्पर्श रेशम सा मुलायम था तो वहीं उसकी सिहरन उसके अस्तित्व को झकझोरने वाली थी। छूने का एक ही उपक्रम दो प्रकार की सर्वथा विपरीत तासीर परोस रहा था। वह उन तसीरों के मिले-जुले प्रभाव में पिघल रहा था। एक दिन वैलेंटाइन डे पर सोनाली ने प्रेम प्रस्ताव रख उसे अचंभित कर दिया। प्रस्ताव ने उसे सुन्न कर दिया। वह ‘हाँ’ कहने के लिए आतुर था पर ढूँढ़ने से भी उसे कुछ कहने के लिए शब्द नहीं मिले। एक वृद्ध पीपल की तरह जैसे वह इस अंधड़ में उखड़ जाने की प्रतीक्षा ही कर रहा था। अनजान हवाओं के साथ बह जाने में वह संकोच तो कर रहा था पर नए सफ़र और नयी मंजिलों के रोमांच ने मन में एक ललक जगा दी थी। सोनाली ने भी उसकी औपचारिक ‘हाँ’ की प्रतीक्षा नहीं की। प्रणव को लगा जैसे ‘हाँ’ कह के वह इस पल के रोमांच को कहीं नष्ट न कर दे। सिलसिला चल निकला। दोनों अब बैंक में एक साथ लंच करते। सप्ताहांत में पार्टी, और लम्बी छुट्टियों में मुंबई के आस-पास सभी ठिकानों को छान लेने की धुन। जुहू बीच और गिरगाँव चौपाटी से शुरू हुआ सिलसिला खंडाला, लोनावला, अलीबाग, माथेरान और महाबलेश्वर तक विस्तार ले चुका था। उनके देशाटन के विस्तार की तरह ही उनके रिश्ते ने भी विस्तार पकड़ा। प्रणव सोनाली के लिए समर्पित होना चाहता था और यह भी कि सोनाली भी प्रणव के लिए समर्पित रहे।  इस सम्बन्ध में जात-बिरादरी की अड़चनें जरूर थीं पर ऐसी कोई रुकावट नहीं दिखाई पड़ती थी जो उन्हें अपने कदम वापस लेने पर विवश करे। बीच की दीवारें गिरती गईं और एक दिन सोनाली अपना सब सामान उठाकर प्रणव के फ्लैट में रहने के लिए आ गई। प्रणव को थोड़ी सी आपत्ति थी। वह चाहता था कि इतना बड़ा कदम उठाने से पहले एक बार विवाह की बात अपने-अपने घरों में छेड़ दी जाए। यहाँ भी प्रणव के दब्बूपन पर सोनाली हावी हो गयी। अपने माँ-बाप को बताए बिना दोनों ‘लिव इन’ के अपरिभाषित रिश्ते में एक साथ रहने लगे। प्रणव को कभी-कभी अजीब लगता था। उसने सुना था लोग इस तरह भी अच्छा जीवन जी सकते हैं। संस्थागत विवाह को चुनौती देने की पहल और इन नए रिश्तों को न्यायसंगत ठहराने की बहस यदा-कदा उसके कानों में भी पहुँचती थी। व्यक्तिगत प्रतिबद्धता और पारिवारिक प्रतिबद्धता दोनों ही संस्थागत विवाह की रीढ़ हैं। उनके रिश्ते में व्यक्तिगत प्रतिबद्धता तो थी पर पारिवारिक प्रतिबद्धता का क्या? यह मूक प्रश्न प्रणव को अक्सर परेशान करता था। कभी-कभी इस प्रश्न को लेकर सोनाली से उसकी बहस भी होती पर उस बहस में भी सोनाली यह कह कर जीत जाती कि पारिवारिक कमिटमेंट के लिए परस्पर कमिटमेंट पर सवाल करना ठीक नहीं है। शायद वह ठीक ही कहती थी। परस्पर कमिटमेंट को बनाए रखने के  लिए वह अपने प्रश्नों का गला घोंटने लगा। जिस पृष्ठभूमि से वह आया था, वहां पारिवारिक प्रतिबद्धताएँ ही विवाह का मूल आधार थीं। जल्द ही इस नयी व्यवस्था में वह असहज महसूस करने लगा। सवालों की भूख को जब जवाबों की खुराक देर तक नहीं मिलती तो वह आपका गला पकड़ने लगती है। वह इस उहापोह से जूझ ही रहा था कि एक दिन सोनाली ने खुद ही उसके सब सवालों के उत्तर दे दिए। छः महीने से ज्यादा के इस प्रतिबद्ध रिश्ते की निर्विवाद केमिस्ट्री के बावजूद सोनाली ने एक दिन अचानक ‘ब्रेक अप’ घोषित कर दिया। फ़ुटबाल में जैसे रेफ़री एक लम्बी सीटी बजाकर खेल के समाप्त होने की घोषणा करता है, कुछ उसी तरह सलोनी ने कहा कि अब वह प्रणव के साथ नहीं रहना चाहती। “पर क्यों?” उसे याद है उसने पूछा था।“बस यार, ऐसा कोई कारण नहीं है।“ उसने कहा था। “कारण नहीं है क्या मतलब? आगे बढ़के हमें शादी की बात सोचनी चाहिए और तू पीछे हट रही है।”बहुत बहस हुई थी। ज़िन्दगी में पहली बार प्रणव ने इतना मुखर होकर बहस में हिस्सा लिया था। उसे ज्यादा बहस करने की आदत नहीं थी। अगर किसी की बात अच्छी लगी तो स्वीकार कर लेता और न अच्छी लगी तो ज्यादा विरोध नहीं करता था। नौकरी के लिए इंटरव्यू के दौरान भी वह चुप हो जाता था। “जाने दो न यार, ऐसा भी कुत्ते की तरह क्या भौंकना?” वह सोचता था।सोनाली अपना सामान उठाकर वापस अपनी उस दोस्त के साथ रहने चली गई, जिसे छोड़कर वह प्रणव के साथ रहने आई थी। करीब एक सप्ताह बाद सलोनी के जाने का एहसास उसके गले के नीचे उतरा। वह खाली हो चुका था। सौरव इनामदार मुंबई में प्रणव का अच्छा मित्र था। जब वह मुंबई में नया आया था तो किराये के फ्लैट में उसी के साथ रहता था। कलकत्ता से था और अच्छा लड़का था। जब सोनाली छोड़कर चली गयी तो यूँ ही मज़ाक में उसने कहा। “चल तेरा ब्रेक-अप सेलिब्रेट करते हैं।” प्रणव गुस्से में था पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। वह समझता था कि सौरव ने मज़ाक में कहा है। फिर भी...“सुन इठलैहैं लोग सब, बाँट न लैहै कोय।”  उसने सोचा। वह वापस आकर अपनी बालकनी में बैठ गया और बियर की दूसरी बोतल के ढक्कन को खोलने लगा।  “न जाने कौन सी राहों से गुजरते हैं वो रिश्ते जो मंजिल पर पहुँच जाते हैं? मंजिल? रिश्तों की कोई मंजिल भी होती है क्या?” सोनाली उसके सुरूर में घुलती जा रही थी। “क्या वह सिर्फ टाइम पास था?”“क्या सोनाली के चले जाने का सचमुच कोई कारण था?” अतीत की सीढ़ी के एक-एक दिन का बाँस थामे वह यादों के कुएँ में उतरने लगा। आख़िरी दिन के एक दिन पहले सब ठीक था। ऐसे ही कितने दिन थे...क्रमशः...जब सब ठीक था। बस एक बार ही तो उन दोनों के बीच बहस हुयी थी। प्रणव विवाह के लिए अपने घर पर सोनाली का ज़िक्र छेड़ना चाहता था और सोनाली को लगता था कि अभी इतनी जल्दी क्या है। क्या यही कारण था? क्या वह विवाह के लिए दबाव बना रहा था? शायद नहीं...वह तो बस उस रिश्ते को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहा था। विवाह फिर कभी भी हो...कम से कम घरवालों को पता रहेगा तो बाद की परेशानियों से तो बचा जा सकेगा। न जाने क्यों ऐसा होता है कि जिन चीज़ों को हम बाँध कर रखना चाहते हैं वे छूटते ही ओझल हो जाने को उतनी ही आतुर होती हैं। फिर इतने ज्यादा लोगों के वैवाहिक रिश्ते क्यों ठहर जाते हैं? तलाक़ की बढती हुई संख्या के बावजूद जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बंधन में बंधा रहता है। क्यों...?  “ये साली... आखिर केमिस्ट्री क्या है?”तार्किक विचारों का सिलसिला एकाएक ख़त्म हो जाता तो कुंठा उगलते बदबूदार शब्द और अतार्किक जुमले जगह घेर लेते। सोनाली से दूर, अपने दोस्तों से दूर वह खुद से मिलने आया था। वही प्रणव जो दब्बू था, और खुश रहने के लिए जिसे किसी की प्रशंसा की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। पर वह अकेला रह ही नहीं पा रहा था। कल ही गोवा पहुँचा था। कल ठीक रहा पर जैसे ही सफ़र की थकान छूमंतर हुई, एक दूसरी बासी थकान ने जकड़ लिया। वह पहले भी रो चुका था। कुछ और रोना चाहता था। बियर का घूँट उसके गले में उतरता और एक आवाज सी आती। वह आधी बाहों वाली टीशर्ट के सिरे से आँखों को पोंछ लेता। बाहर की धूल-मिट्टी से घर को साफ़ रखने वाली गृहिणी बाहर ड्राइंग रूम में फर्श पर पोंछा लगा रही थी। टाइल के चौखाने वाले फर्श का एक खाना जब वह पोंछ चुकी होती तो भीतर कमरे में कोई चीज़ ‘छनाक’ की आवाज से गिर जाती। गृहिणी को वह आवाज चुभती पर वह कुछ न करती। पोंछे के पानी में डुबो कर थोड़ा भिगो लेती और फर्श के अगले खाने की ओर बढ़ जाती। उसकी शर्ट का पोंछा आँखों के फर्श को साफ़ करता और भीतर कुछ टूट कर बिखर जाता। “ये साली... आखिर केमिस्ट्री क्या है?” उसने मन ही मन दोहराया।ऐसी कोई दिशा नहीं थी जहाँ दिल के विचरने की राह हो और विचरा न हो। दिल की अंगुली थामे मस्तिष्क उसे हर ओर ले जाता... ‘ले ढूंढ यहाँ कहीं सुकून हो तो’। और दिल हर बार निराश हो वहीं बियर की बोतल में अटक जाता। एक और घूँट नीचे उतरता और एक नया विचार सवाल बनकर हाज़िर हो जाता। “आखिर सोनाली को चाहिए क्या था?”“आखिर लड़कियों को...इन जनरल...लड़कियों को क्या चाहिए?”“ये साली... आखिर केमिस्ट्री क्या है?”वह ज्यादा नहीं पीता था। पर इधर कुछ दिनों से ज्यादा हो रही थी और अक्सर अकेले ही। दो बियर में ही वह जैसे ‘टल्ली’ हो गया हो।  “पता है शादी के बारे में क्या कहते थे पहले?”“भुट्टे का खेत है...आपका सपना है कि सबसे अच्छा...सुन्दर भुट्टा आपको मिलेगा...शर्त ये है कि भुट्टा एक ही मिलेगा...और एक बार ले लिए तो आप बदल नहीं सकते।““अबे इन लोगों ने तो ये सिस्टम ही ख़त्म कर दिया...मतलब भुट्टे का खेत है...आज भी है...पर वे शर्तें नहीं हैं ...कि एक ही मिलेगा और वापस नहीं होगा...कोई शर्त नहीं है अब। कस्टमर इज किंग... अब अगर आपको भुट्टा लेना है तो आराम से तसल्ली कर के...ट्राई करके...आराम से...अगर संतुष्टि न हो तो बदल भी सकते हो...कस्टमर इज किंग...”   “और तुम साले चूतिये की तरह इस कस्टमर सेटिस्फेक्शन के दौर में सच्चा प्यार ढूँढने चले हो...तो कटेगा ही न...! पर सौरव...तुझसे ये उम्मीद नहीं थी?”उसके फ़ोन की घंटी बजी। ऐसे ही बजती थी जब ऑफिस से निकलने के समय, सोनाली फोन करती थी। उसने फोन उठाकर देखा। अलार्म की आवाज थी।“ये कौन सा टाइम है बे तुम्हारे जागने का?”  अलार्म बंद कर बिस्तर पर रखने चला तो स्वतः ही उसे ख्याल आया। “सोनाली को फोन करके एक बार और ट्राई करूँ क्या..शायद मान जाए..!”वह कुछ सोचने लगा और फिर फोन न करने का फैसला किया। वह उसके भेजे हुए सन्देश पढ़ने लगा जो उसके फोन में सुरक्षित पड़े हुए थे। वह उसका पुराना मोबाइल था, जिसमें उसने जिओ का मुफ्त का सिमकार्ड डाल रखा था। उसे वह सिर्फ इन्टरनेट के लिए इस्तेमाल करता था।   “आजकल मोबाइल फोन से पहले तो मोहब्बत पुरानी हो जाती है...” एक और अटपटा विचार।मेसेज पढ़कर उसका मन और भारी हो गया। ज्यादातर मेसेज एक या दो पंक्तियों वाले छोटे-छोटे मेसेज थे। बस वह मेसेज कुछ बड़ा था जो दोनों के बीच झगड़े के दौरान सोनाली ने प्रणव को लिखा था। बहुत भावुक सन्देश था। ‘मेरे प्यारे प्रणव...’ शुद्ध हिंदी लिपि में लिखा हुआ सन्देश था जबकि बाकी के सन्देश टूटी-फूटी अंग्रेजी में लिखे थे। अच्छी-अच्छी फैशन परस्त अंग्रेजी बोलने वालों को भी जब दिल की बात शुद्ध तरीके से पहुँचानी होती है तो हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। बाकी सब समय के लिए वही टूटी-फूटी अंग्रेजी। उसके दफ्तर का नंबर जिसे वह कॉल करने के लिए इस्तेमाल करता था, एक तरह से जो उसका ‘ऑफिसियल’ नंबर था, उसने अपने नए फोन में डाल लिया था। पुराना फोन भी ठीक-ठाक काम कर रहा था। उसने नया फोन भी ले लिया और पुराना फोन भी रख लिया। सोचा था घर जाके मम्मी को दे देगा। उसी समय जिओ का सिमकार्ड आया था और मुफ्त में मिल रहा था। तो उसने अपना आधार कार्ड देकर एक सिमकार्ड ले लिया। अब उसके दोनों फोन काम कर रहे थे। फोन अपने हाथ में लिए वह उससे खेलने लगा। बहुत मन कर रहा था कि फोन करके पूछ ले...सोनाली कैसी है। और कुछ नहीं तो कम से कम इतना तो पूछ ले कि उसने ऐसा क्यों किया। “क्यों किया?” उसने एक सन्देश भेजा।उसके नए मोबाइल का बज़र बजा। वह बस यही कर सकता था। अपनी बात खुद तक पहुँचाने के लिए भी उसे मोबाइल का सहारा लेना पड़ रहा था। उससे गलती से नहीं हुआ था। उसने जानकार किया था पर क्यों किया था... नहीं पता। उसने नए फोन के मेसेज बॉक्स में अपना मेसेज देखा। बियर के सुरूर में उस सवाल का यूँ हाज़िर हो जाना किसी कुतूहल से कम नहीं था। उसके ह्रदय में कई दिनों से डेरा डाले, कभी-कभी बिजली की तरह कौंध उठाने वाला सवाल उसके एक फोन से निकल कर दूसरे फोन में जा बसा था। नए फोन में पुराने सवाल को देखकर वह मुस्कुराया। मन ही मन उसका उत्तर सोचने लगा। “अगर मैं सोनाली की जगह होता तो इसका क्या जवाब होता?”उसके विचारों की सघनता बढ़ती गई। क्या बेतुका तरीका था? दफ्तर से, दोस्तों से और सोनाली से दूर वह यहाँ कुछ सुकून पाने आया था और खुद अपने एकांकी प्रश्नोत्तरी में उलझ गया। “फिर भी सोचने में क्या जाता है? एक बार सोच के बता...तेरा क्या जवाब होता?”रिश्ते की शुरुआत से लेकर अंत तक वह यादों की हर अँधेरी-उजियारी गली से गुजरा। सोनाली को उससे प्यार तो था पर प्रणव की ऐसी बहुत सी चीजें थीं जो उसे पसंद नहीं थीं। सुबह-सुबह प्रणव का देर तक बाथरूम में बैठे रहना पसंद नहीं था। उसका आलस पसंद नहीं था। सोनाली को घूमना पसंद था तो प्रणव को घर पर आराम करना। सोनाली के साथ वह घूमने ज़रूर जाता था पर उसे होटल में रहना, टीवी देखना और आराम करना ही ज्यादा पसंद था। विचारों का सिलसिला जब गड्ड-मड्ड होने लगा तो उसने विराम लेने की  कोशिश की पर सवाल था कि पीछा ही न छोड़ता था। “आखिर क्यों?” सवाल वहीं नाक के सामने लटका रहा। यह एक भ्रम है कि आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, स्पर्श छूता है, नाक सूँघ लेती है और जीभ स्वाद बता देती है। इन कपटी मित्रों की सलाह पर फैसले का एक द्वार पार हो जाता है बस, फैसला नहीं हो जाता; और जब कभी हो जाता है तो अक्सर गलत ही होता है। छुअन जैसी दिखाई और सुनाई देती है, उसका स्वाद और उसकी खुशबू अक्सर उलट होती है।“ठीक है...अगर ये नहीं बताना चाहतीं कि क्यों छोड़ा तो कम से कम ये तो बता दो कि क्यों पसंद किया।” अंतर्द्वन्द्व कम होता नज़र नहीं आया। प्रणव स्मार्ट था। अच्छी कद काठी, गोरा खूबसूरत चेहरा, गठीला शरीर, नौकरी...वह सब कुछ जो आज के दौर में लडकियाँ लड़कों में ढूँढ़ती हैं, सोनाली को उसमें सब कुछ दिखा था।  शारीरिक बनावट ही पहला परिचय होती है। इंटेलीजेंस, आचार-विचार, आपसी सामंजस्य शारीरिक बनावट से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण चीजें हैं पर वे कभी भी एक रिश्ते का परिचय नहीं बन पातीं। आहिस्ता-आहिस्ता, शारीरिक बनावट बेमानी हो जाती है और इंटेलीजेंस, आचार-विचार, आपसी सामंजस्य रिश्ते का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू बन जाते हैं। उसके साथ भी क्या ऐसा ही कुछ हुआ था? क्या सामंजस्य की कमी ही सोनाली को उससे दूर ले गई थी? आकर्षण होना, प्यार होना कोई नई बात नहीं है। यह सदियों से है और शायद यही एक चीज है जो सदियों तक बाकी भी रहे। लोगों के दिल भी टूटते ही हैं। ज़िंदगी ख़त्म नहीं हो जाती। एक सिलसिला है जो किसी न किसी बहाने जारी रहता है। तकलीफ सब को होती है। जो लोग सवाल किए बिना आगे बढ़ जाते हैं, वे कम तकलीफ से गुजरते हैं। वे लोग जो रह-रह कर सवाल पूछते हैं कि ‘आखिर क्यों?’ या फिर ‘मेरे साथ ही क्यों?’ उनके लिए ज़िंदगी को दुबारा पत्री पर लाना मुश्किल होता है। प्रणव को ज्यादा तकलीफ हो रही थी क्योंकि उसने अपनी सारी तर्क शक्ति उन सवालों में झोंक दी थी जिनके अक्सर कोई जवाब नहीं हुआ करते। मनुष्य के व्यवहार में हर ‘क्यों’ का जवाब एक नया ‘क्यों’ होता है। खाने की प्लेट मेज पर रखी हुई थी। उसे लगा जैसे उसका पेट भर गया हो। वह बियर की तीसरी बोतल ख़त्म कर चुका था। मद्धिम आवाज में टीवी चल रहा था। कुछ भूख का मर जाना था और कुछ उसका आलस, वह खाना खाए बिना ही सो गया।   **********पहले दिल एक घर हुआ करता था। इसमें सब के लिए जगह होती थी...सबका एक-एक कमरा। माँ-बाप के लिए अलग, दोस्तों के लिए अलग, भाई-बहिन और दूसरे रिश्तेदारों के लिए अलग और प्रेमिका के लिए अलग। इन कमरों में एक ही समय में सब लोग रहते थे। सबके हिस्से में दिल का छोटा-छोटा क्षेत्रफल आता था पर सब के लिए आता था। लोग म्युचुअली एक्सक्लूसिव नहीं हुआ करते थे। अब ऐसा नहीं है। दिल में जगह उतनी ही है पर कमरा एक ही है। अब एक समय में एक ही रिश्ता कमरे का पूरा क्षेत्रफल माँगता है। लोग म्युचुअली एक्सक्लूसिव हो गए हैं...मतलब जिस समय उस कमरे पर प्रेमिका का अधिकार हो, किसी और के लिए कोई जगह नहीं बचती। एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल तक सवालों का सिलसिला शुरू हो गया। लोकल ट्रेन में, दफ्तर में, लंच के समय...जब भी उसे खाली समय मिलता वह अपने ही भेजे हुए सन्देश पढ़ता और उनका उत्तर लिखने लगता। वह दूसरे मोबाइल में अपना ही लिखा हुआ उत्तर पढ़ता और एक नया प्रश्न भेज देता। आदमी एक ही था पर मोबाइल दो थे। ऐसा लग रहा था जैसे मोबाइल मनुष्य बन गए हों, एक दूसरे से बात करते हों। प्रणव शेक्सपियर की स्टेज का विधाता बन गया। वह सवालों की डोरियाँ इधर से उधर घुमाता और मोबाइल कठपुतलियों की तरह अभिनय करते। तकलीफ प्रणव को थी और जिरह कठपुतलियाँ कर रही थीं। यह ताना-बाना जटिल जरूर था पर प्रणव को इससे राहत मिल रही थी। “तुम्हें याद है... एक बार तुम लोनावला में कितनी नाराज़ हो गई थीं।”“कब...?”“बता सकती हो क्यों?” “कब की बात कर रहे हो?”“वो जब तुम्हारी रूम मेट जयश्री का ज़िक्र आया था...और मैंने गलती से कह दिया था कि वह सुन्दर लगती है...और तुम पूछ बैठीं कि मुझे उसमें क्या अच्छा लगता है।”“हाँ! वो?”“तुम पजेसिव हो गई थीं। मैं नहीं बता सका क्योंकि सचमुच ऐसा कुछ नहीं था जो मुझे जयश्री में अच्छा लगता था...क्योंकि मैंने उसे कभी वैसे देखा ही नहीं था।” “तुम बता देते तो क्या हो जाता? खैर...मुझे मालूम था कि तुम्हें उसमें क्या अच्छा लगता है।”“तुम पागल हो?”“पता है...पर मुझे मालूम है तुम्हें उसमें क्या अच्छा लगता है।”“तुम्हें कैसे पता?”“कुछ लड़कियों के पास होता है ये हुनर...उन्हें पता होता है कि लड़कों को उनमें क्या अच्छा लगता है।” ऐसे कई सवाल...सवालों के आगे सवाल प्रणव की ज़िंदगी बन गए। सोनाली सिर्फ उसकी गर्लफ्रेंड नहीं थी, उसकी बहुत अच्छी दोस्त भी थी। यह कहना इसलिए जरूरी है कि ऐसा बिलकुल जरूरी नहीं है कि गर्लफ्रेंड एक अच्छी दोस्त भी हो। गर्लफ्रेंड सोनाली भले ही दूर हो गई थी, उसकी दोस्त सोनाली अब भी इस मोबाइल ‘चैट’ के ज़रिये उसकी इर्द-गिर्द थी। प्रणव के सवाल वह प्यार से पढ़ती और उनके जवाब देती। वह देर रात तक इस खेल में खोया रहता। सुबह जब वह दफ्तर पहुँचता और सोनाली को देखता तो रात भर की जमा की हुई राहत डिबिया खुलते ही फुर्र हो जाती। अपनी सीट पर बैठा-बैठा वह फिर उस ‘राहत’ को जमा करने की कवायदें शुरू कर देता। वह अपने दोस्तों से दूर हो गया। सौरव से उसका सम्बन्ध पहले जैसा नहीं रह गया था। वह लोगों से, भीड़ से परहेज करने लगा। कठपुतलियों के खेल में एकांत उसकी पहली जरूरत थी। यह एकांत उसके लिए जुनून बन गया। ज्यादा देर तक वह लोगों का बर्दाश्त न कर पाता। बॉस की ब्रीफिंग में जब उसे देर होने लगती तो वह बेचैन हो उठता। लोकल ट्रेन की भीड़ में जब वह मोबाइल अपनी जेब से न निकाल पाटा तो उसके हाथ जकड़ने लगते। ज़रा सी जगह मिलती तो वह जेब में हाथ डालकर इस नाज़ से मोबाइल बाहर निकालता जैसे वह सोनाली को निकाल रहा हो। लंच की मेज पर सिर झुकाए बैठा रहता। क्रिकेट मैच में अब कोई आनंद न रह गया था। फिल्में अर्थहीन हो गई थीं। पार्टी करने का उद्देश्य भी नहीं रह गया था। आलसी वह पहले से था। न अखबार पढ़ता और न कोई खेल खेलता। किताबें, मैगज़ीन पढ़ना उसे पहले से ही नापसंद था। बहुत मन होता तो सप्ताहांत में अकेले बियर लेके बात जाता। बियर पीना उसे अच्छा लगता था और बियर के सुरूर में इस खेल का आनंद बढ़ जाता था। उस दिन वार्तालाप झगड़े का रूप ले लेता। वह खूब शिकायत करता और अक्सर सोनाली निरुत्तर हो जाती। कभी-कभी भद्दी गालियाँ भी ‘चैट’ का हिस्सा बन जातीं। इसमें सुकून था, थोडा बहुत आनंद भी था पर हल नहीं था। सारी जिरह उन दो सवालों पर जहाँ की तहाँ खड़ी थी, ‘साली...ये केमिस्ट्री क्या है’ और ‘मेरे साथ ही क्यों’।        इस खेल के अशुभ परिणाम उसे जल्दी ही मिलने लगे। दोस्तों और सहकर्मियों के प्रति वह चिड़चिड़ा हो गया और बॉस की नज़रों में कामचोर। सोनाली उसे रोज़ ही दफ्टर में दिखाई देती। कभी जयश्री के साथ, कभी सौरव के साथ तो कभी किसी और के साथ। यह ख़याल भी आता कि वह उससे जाकर बात करे पर हिम्मत नहीं होती। कहीं वह उसका अपमान न कर दे? बॉस की आए दिन डांट से वह और विचलित हो गया। मन ही मन वह उसे गालियाँ देता। सोनाली के साथ छद्म ‘चैट’ में उसका बॉस अब प्रमुखता से आने लगा। प्रणव उसे गालियाँ देता और सोनाली उसे शांत करती।प्रणव कई दिनों से देख रहा था कि सोनाली अक्सर सौरव के साथ लंच के लिए जाती है। वह समझ गया कि जरूर दोनों के बीच में कुछ है। मन ही मन उसने यह संसार भी रच लिया कि सोनाली के जीवन में सौरव ने प्रणव की जगह ले ली है। कुछ और लोगों से पता चला कि वे दोनों फिल्म देखने भी एक साथ जाते हैं। पहले उसे लगा कि उसके सवालों के जवाब मिल गए हों। प्रणव को उसने इसलिए छोड़ा क्योंकि वह सौरव को पसंद करती थी। वह भुट्टे वाली बात सच निकली थी, शायद। फिर अगले ही पल दूसरे सवाल खड़े हो गए, उसी तर्क पर और उसी मजबूती के साथ। ‘आखिर सौरव में उसने ऐसा क्या देखा जो उसे प्रणव में नहीं मिला?’ ‘क्या वह ऐसी ही है?’ ‘क्या उसे सिर्फ टाइम पास लोग ही चाहिए?’       बासेल 3 कैपिटल एडीक्वेसी के आंकलन में एक दिन उसने बड़ी चूक कर दी। उसका बॉस छुटटी पर था। उसने प्रेजेंटेशन सीधे सुपर बॉस को भेजी। सुपर बॉस की आँखों से छिपी हुई चूक सीधे सीएमडी तक पहुँच गई। दो दिन बाद सुपर बॉस और बॉस दोनों को लाइन हाज़िर किया गया। बहुत किरकिरी हुई। प्रणव को बॉस ने बुलाकर फटकारा और उसे चेतावनी दी कि ऐसी गलती दोबारा नहीं होनी चाहिए। दफ्तर में यह किस्सा उछला और प्रणव लोगों के अट्टहास का विषय बन गया। उस दिन वह घर जाकर देर तक रोया। वह स
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Published on September 24, 2017 11:28
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