फॉल इन: द साउंडलेस
सुनील कुमार उन कुछ गिने चुने विद्यार्थियों में से था जो गुरुओं के मुँह से निकली चंद बातों को गुरुवाणी की तरह मानता था। मानो, वही हमारे वेदों और पुराणों का निचोड़ हो। पर सब बातों में नहीं...बस कुछ गिनी चुनी बातों में। होमवर्क करने के नाम पर ‘गुरुवाणी’ ‘नक़लवाणी’ हो जाती थी और सौंदर्य प्रसाधन के नाम पर वह ‘अमृतवाणी’ हो जाती थी। न जाने आवेश की किस घड़ी में मोहन चन्द्र पाण्डे के मुँह से निकल गया कि बच्चे का पालन-पोषण उसका भविष्य तय करता है न कि उसका जन्म। मनुष्य को जन्म से नहीं बल्कि कर्म से ब्राह्मण होना चाहिए। पाइथागोरस की प्रमेय जो गाँठ में बँधनी चाहिए थी, वह हर रोज़ छूट कर फुर्र हो जाती थी पर जन्म और कर्म की गुरुवाणी में जो बँधी फिर कभी नहीं खुली। नैन-नक्श अच्छे थे और बाल भी उन्होंने संजय दत्त की हेयर स्टाइल की तर्ज़ पर इतने बढ़ा लिए थे कि हाउस मास्टर की निगाह में न आएँ। कभी-कभी आ जाते थे तो हाउस मास्टर जोशी जी खुद उनकी गर्दन पर उस्तरा लगाकर श्रीगणेश करते थे। रंग दबा हुआ था, और इतना दबा हुआ था कि अँधेरे में उनके शरीर पर रूपा की नई सफ़ेद बनियान भी ट्यूबलाइट से ज्यादा रोशनी देती थी। गज़ब का कंट्रास्ट था। जब गुरुदेव ने कहा कि जन्म से कुछ नहीं होता तो सुनील कुमार को लगा कि अच्छे कर्मों से उनके शरीर का रंग जो कि उन्हें जन्मजात मिला था, बदला जा सकता है। कर्म की उनकी अलग परिभाषा थी। उनके शारीरिक रंग के सन्दर्भ में कर्म की परिभाषा थी ‘लक्स’ के साबुन से रगड़-रगड़ कर नहाना, ‘बोरोप्लस’ की क्रीम की तीन तल्ला परत ओढ़ लेना और ‘पोंड्स ड्रीमफ्लावर’ के पलस्तर में रंगरूट हो जाना। सुबह उठकर पीटी जाने के लिए जहाँ कई लोग सबकी अलमारियों की छान-बीन टूथ पेस्ट के आख़िरी ‘स्क़ुइज़’ के लिए करते थे तो वह सबके क्रीम पाउडर चेक किया करता था। लोग कौन-कौन से ब्रांड प्रयोग करते हैं और उनका चेहरों की रंगत पर क्या फर्क पड़ता है। अक्सर वह प्रांशु श्रीवास्तव की अलमारी पर नज़र गढ़ाए रहता कि वह कौन सी क्रीम लगाता है। माधुरी दीक्षित, जूही चावला और श्रीदेवी तब तक लक्स के विज्ञापनों में आने लगे थे और टीवी देख-देख कर यह बात तकरीबन स्थापित हो चुकी थी कि उनकी चमड़ी का रंग सिर्फ और सिर्फ ‘लक्स’ का योगदान है। उसी समय में कैंटीन में ‘नीविया’ क्रीम आई थी। थोड़ी सी महँगी थी इसलिए जो लोग अपने बन-आमलेट पर थोड़ा बहुत समझौता कर सकते थे वे ही इस्तेमाल किया करते थे। सुनील कुमार के लिए बन-आमलेट से समझौता उनके बाएँ हाथ का खेल था। गोरे रंग के लिए उन्हें कोई जीवन भर धूप में खड़ा रखे तो भी उन्हें मंज़ूर था। प्रांशु के अलावा दूसरा लड़का कांडपाल था जिसकी अलमारी में उसे नज़र फिराने के इजाज़त मिल गई थी। कांडपाल बहुत गोरा था और सुनील कुमार को शक था कि जरूर वह कोई इम्पोर्टेड क्रीम प्रयोग करता होगा। कांडपाल का बड़ा भाई भी स्कूल से पढ़कर निकला था और वह भी गज़ब का सुन्दर था। दो भाईयों के ‘सैंपल साइज़’ से वह संतुष्ट हो गया था कि गोरापन पाने के लिए उसकी क्रीम ही सबसे असरदार क्रीम है। एक दिन उसने कांडपाल की अलमारी में नज़र डाली तो उसे घोर निराशा हुई। अलमारी के निचले और ऊपरी खानों में एक-एक ‘चेरी ब्लॉसम’ की डिबिया रखी हुई थी। वह नाक पर हाथ धरे वापस लौट गया।एक शाम जब डिनर के बाद भीड़ चित्रहार देखने के लिए लम्बे-लम्बे डग भर रही थी, सुनील कुमार का पैर ऐसी जगह पड़ा जहाँ जमीन नहीं थी। चित्रहार उन दिनों फ़िल्मी दीवानों के लिए एकमात्र मनोरंजन का साधन था। न सिर्फ मनोरंजन बल्कि सूचना भी – कि फलां फिल्म रिलीज़ हुई या नहीं। ठीक आठ बजे डिनर समाप्त होता था और ठीक आठ बजे चित्रहार का पहला गाना शुरू होता था। उन कुछेक पलों में मेस से टीवी रूम की करीब सौ मीटर की दूरी तय करनी होती थी। समय का संघर्ष तो था ही, साथ में सीट का संघर्ष भी था। अगर दो पल भी देर से पहुँचे तो भीड़ के पीछे खड़े होकर चित्रहार के दर्शन होते थे। जूही चावला और माधुरी दीक्षित का जो आनंद पहली लाइन में बैठकर देखने में था, वह खड़े होकर कहाँ। सीनियर हाउस में तब टीवी रूम नहीं होता था। उनके लिए एक कॉमन टीवी रूम था जो पीटी स्टोर के बगल में था। मेस से टीवी रूम तक का पूरा रास्ता ऊबड़-खाबड़ और पथरीला था। सालों से आते-जाते पर इतना आभास हो चुका था कि अँधेरी भगदड़ में भी कदम अपने नीचे की ज़मीन ढूँढ़ ही लेते थे। उस रात न जाने कैसे चूक हो गई? सुनील कुमार चिरई के साथ चल रहे थे। कवर्ड पैसेज के आगे एक कोना था जहाँ से उन्हें मुड़ना था। ठण्ड का समय था। सफ़ेद पेंट और गहरे नीले रंग का ब्लेजर पहना हुआ था। उस भगदड़ में चिरई जैसे ही मुड़कर आगे बढ़ा तो देखा कि सुनील कुमार खो गए हैं। उन्होंने सोचा कि टीवी रूम में जाकर मिल लेंगे और वे आगे बढ़ते रहे। उस मोड़ के पास, पगडंडी और टीवी रूम की छत के बीच में खाली जगह है। सुनील कुमार का पैर जल्दबाजी में उस खाली जगह में पहुँच गया और वे सात फिट गहरे गड्ढे में गिर पड़े। न कोई चीख न कराह। इस डर से कि लोग मदद तो करेंगे पर उससे पहले उनका तमाशा बना दिया जाएगा, सुनील बाबू ने चुपचाप गिरना मंज़ूर कर लिया। उस उम्र में अंधे व्यक्ति के प्रति संवेदना जताना कम होता था उसका अट्टहास करना ज्यादा होता था। नीचे हालांकि पत्थर नहीं थे पर ठण्ड अच्छी-खासी थी और झुरमुटों में छिपे कीड़े-मकोड़ों का डर तो रहता ही है। जब भीड़ आगे निकल गई, वे चुपके से अपने रॉक क्लाइम्बिंग वाले करतब दिखाते हुए वापस ऊपर चढ़ गए। घुटने में दर्द हो रहा था पर जूही चावला का गाना मिस करना उन्हें किसी भी हाल में मंज़ूर न था। वे लड़खड़ाते हुए टीवी रूम पहुँचे और सबसे अंतिम कतार में उचक-उचक कर अपनी प्रिय हीरोइन को देखने लगे। उन्हें कुछ झलकियाँ देखने को मिल गई थीं क्योंकि जब वह वापस आए तो उनका दर्द कुछ कम हो गया था। रात के ग्यारह बजे जब घुटने के दर्द ने अपना रौद्र रूप दिखाया, और जब जूही चावला की थिरकती तस्वीर उनकी आँखों से ओझल हो गई, तब उन्होंने अपने सखा शमशेर से आयोडेक्स की माँग की। जैसे ही उसने आयोडेक्स माँगा, उनके ‘साउंडलेस बास्केट’ होने का पूरा किस्सा विंग के सामने आ गया। जब रतन आयोडेक्स मल रहा था और जब सुनील घुटने के दर्द को सिमटता हुआ महसूस कर रहा था, विंग का परिहास बढ़ रहा था। आयोडेक्स मल कर राहत तो जरूर मिली पर रात भर नींद नहीं आई। उनके साथ पड़ोसी रतन को भी उनकी कराहें सुनकर जागना पड़ा। आयोडेक्स लगाकर थोड़ी देर राहत मिल जाती थी। दर्द जब दोबारा हावी होता तो वह बार-बार रतन को जगा देते। सुबह तक घुटने का दर्द तो कम हो गया पर दोनों की आँखें लाल होकर सूज गईं। पीटी का साइरन बजने वाला था और फक्कड़ सर के आने का समय हो चला था। सुनील ने सोचा कि पीटी से गोला मारने का अच्छा मौका है। मन ही मन वह घबरा भी रहा था कि अगर फक्कड़ सर ने उसका दर्द न समझा और दो-चार धर दिए तो और फजीहत हो जाएगी। ‘कम दर्द’, ‘शून्य दर्द’ और ‘असहनीय दर्द’ के बीच का ग्रे एरिया है। यहाँ समझ-बूझ कर जोखिम लेना चाहिए। चेहरे की सलवटों को सारी आयाम देकर तोड़-मरोड़ लेना और उन भंगिमाओं के आधार पर फक्कड़ सर को विश्वास दिला देना बहुत जटिल काम था। ज्यादा आसान ये था कि सुनील चुपचाप जूते पहनकर थोड़ा-बहुत दर्द सहते हुए पीटी में चला जाए। अंततः वह पीटी में चला गया। आँखों की लालिमा थोड़ी और भड़क गई थी। रतन कुमार की समस्या दूसरी थी। उन्हें अगर नींद पूरी न मिले तो भूख नहीं लगती थी। शरीर इतना भारी था कि अगर पेट में भर पेट अन्न न जाए तो पूरा सिस्टम गड़बड़ा जाता था। नाश्ता करके रतन और सुनील दोनों नाइंथ बी में क्लास के लिए चले गए। क्लास के बीच में नींद के झोंके आते और और रतन कुमार का सिर मेज से जा टकराता। अध्यापक कुछ देर अनदेखा करते और फिर उसे बाहर जाकर मुँह पर पानी छिड़कने की नसीहत देते। मुँह पर पानी छिड़क कर रतन कुमार उस सुनहरी नींद को धोना भी नहीं चाहते। वह सर को ‘सॉरी’ कहता और इशारों से जगे रहने का आश्वासन दे देता। सुनील कुमार का भी वही हाल था। आँखों में नींद की फसल लहलहा रही थी और चेहरे पर क्रीम पाउडर की खाद पुती हुई थी। दो पीरियड के बाद दोनों नींद से हार गए। बेचारे हॉस्टल वापस नहीं जा सकते थे। इसलिए तय हुआ कि दोनों कुछ देर क्लास से अटैच्ड लैब रूम में आराम से सोएंगे। उस स्टोर नुमा कमरे में एक दीवार पर सीमेंट के स्लैब बने हुए थे। उन स्लैबों पर अखबार बिछाकर उन्हें सोने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। चूँकि इसे पहले भी ‘इमरजेंसी स्लीपिंग रूम’ की तरह प्रयोग किया जा चुका था, अखबारों की कोई कमी नहीं थी। शमशेर अली क्लास मॉनिटर थे और रतन के मित्र थे। शमशेर ने उनकी हालत देखते हुए जिम्मेदारी ले ली कि अगर कोई गड़बड़ हुई तो वह सहयोग करेगा।ऐसे वादे कोरे वादे नहीं होते थे, वे जी-जान लगाकर निभाए जाते थे। शमशेर अली ने शायद सोचा था कि अब से पहले कभी कोई गड़बड़ नहीं हुई तो भला उस दिन क्या गड़बड़ हो सकती है। कहते हैं न – कुछ घटनाओं की नियति ईश्वर खुद नहीं लिखता, वह अपने मसखरों पर छोड़ देता है। स्कूल में एक नए अध्यापक आए थे और बहुत जल्दी बहुत ‘लोकप्रिय’ हो गए थे। अध्यापकों का लोकप्रिय होना उनके लिए अच्छी बात नहीं होती थी। जिस दिन हमारे बीच उनके आने की चर्चा चली थी, उसी दिन स्कूल ऑडिटोरियम में फिल्म आई थी ‘सलाम बॉम्बे’। रघुवीर यादव के किरदार का नाम उस फिल्म में चाहे जो भी रहा हो, वह चिलिम बहुत फूँकता था। उसी के नाम पर सर का नामकरण हुआ था ‘सुलफा’ – जिसे चिलिम में भरकर कश खींचा जाता है। सुलफा सर को नाइंथ बी को गणित पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। हट्टा-कट्टा शरीर, चेहरे पर मूछें और मॉडर्न टाइप की सधी हुई हेयर स्टाइल। उनके बालों को देख कर जी करता था कि एक बार वे हमारे वाले नाई से भी अपने बाल कटवाएं। क्लास में आते ही उन्होंने गणित पढ़ाना शुरू कर दिया। अपना परिचय दिया था पर लड़कों का परिचय लिया नहीं था। लड़कों के पास मसखरी करने के लिए ये बहाना भी कोई छोटा नहीं था। पर चूँकि वे नए अध्यापक थे, इसलिए लड़के खुद डरे हुए थे कि न जाने कैसी प्रकृति के अध्यापक हों। ये बहुत ज़रूरी था कि अध्यापक की सहनशीलता देखकर मसखरी की जाए। इससे पहले कि सर एक ही दिन में सारा अलजेब्रा पढ़ा डालें, भीष्ट ने कमान सँभाली। “अच्छा ये बताइये सर कि हम गणित पढ़ते क्यों हैं? खासकर अलजेब्रा?”सुलफा सर बच्चे की जिज्ञासा भरे इस मूलभूत प्रश्न से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने छूटते ही भीष्ट की तारीफ़ में कसीदे पढ़ डाले। “बहुत बढ़िया सवाल। जब तक आप ऐसे बेसिक सवाल नहीं पूछेंगे तब तक विषय की जटिलताओं को नहीं समझ पाएँगे। मुझे गर्व है कि मेरे विद्यार्थी ऐसे प्रश्न पूछने की जिज्ञासा रखते हैं।“ मछली ने काँटा निगल लिया था। क्लास के बाकी लड़के दाँत चमका रहे थे और सर को लग रहा था कि वे उनकी तारीफ़ करके किले में घुसने का ‘गेट-पास’ बना रहे हैं। सचमुच, एक नए अध्यापक के लिए बच्चों की क्लास एक अभेद्य किला है। बच्चों की आकांक्षाओं पर यदि वह खरा उतरा तो वह सदा के लिए ‘गुरु’ बन जाता है; यदि नहीं तो उसका गुरुत्व सिर्फ नंबर लाने तक सीमित रह जाता है। आकांक्षाओं की परिभाषा यही है कि वह एक उम्र के लिए उनके साथ बच्चा बन जाए। उनके जैसी शरारतें करे, नियम तोड़े या नियम तोड़ने में उनका साथ दे, गलतियाँ जो माफ़ की जा सकती हैं उन्हें माफ़ करे, बच्चों से अपना ईगो न टकराए, परीक्षा में नैतिक रूप से तटस्थ रहे पर यह भी ध्यान रखे के तटस्थता से समझौता करके कितने हज़ार मुस्कानें बटोरी जा सकती हैं। बच्चे खालिश नैतिकता को पसंद नहीं करते, वे व्यावहारिक नैतिकता को पहचानते हैं। बचपन की व्यावहारिक नैतिकता में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो उनके लिए ज्यादा नुकसानदेह हो पर इसके जरिए खालिश नैतिकता की नींव जरूर रखी जा सकती है। सबसे जरूरी बात यह है कि शिक्षक का प्रत्यक्ष या परोक्ष व्यवहार उसकी सीख के विरुद्ध न हो। यह सबसे बड़ी चुनौती है जो आज हमारे शिक्षातंत्र को निगल रही है। कितनी ही शिक्षक राजनीति में आए और भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए। जागरूक युवाओं में कभी-न-कभी ये कुंठा जरूर आती है कि शिक्षक जो नैतिकता पढ़ा रहा है, उसकी अपनी बिरादरी उसी नैतिकता की धज्जियाँ उड़ा रही है। यह कुंठा कहाँ निकलती होगी, इसका सामाजिक विश्लेषण करना अभी बाकी है। एक कदम आगे बढ़कर, यदि हो सके तो अध्यापकों को किसी भी तरह की राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए। उन्हें सबसे ज्यादा वेतन मिलना चाहिए और इस शर्त पर मिलना चाहिए कि वे किसी भी राजनैतिक पद पर नहीं बैठेंगे। इसके विरोध में सकारात्मक तर्क भी दिया जा सकता है कि अच्छे अध्यापक राजनीति के दलदल में फूल खिला सकते हैं। बिलकुल खिला सकते हैं पर यदि न खिला सके तो? फूल खिलाने के आसार कम हैं और फूल खिल भी गए तो उसके दूरगामी लाभ बहुत सीमित हैं। उलटे, दलदल में गंदे हो जाने का परिणाम भयावह हो सकता है; दूर की हानि बहुत भारी पड़ सकती है। “सर सवाल का उत्तर?”“गणित की तीन मुख्य विधाएँ हैं...”चाक लेकर सर ब्लैक बोर्ड की ओर मुड़े ही थे, कि पीछे से एक दबी सी चीख उभरी। “साले!”सर को साँप सूँघ गया। क्या उन्होंने सही सुना था? वह पीछे मुड़े। “किसने कहा?”“क्या सर?” उत्तर की प्रतीक्षा में भीष्ट अपनी सीट पर अब भी खड़ा था। “वही जो अभी किसी ने कहा।““क्या कहा सर?”“बहुत भोला बनने की जरूरत नहीं है। किसने गाली दी? हाथ खड़ा करो नहीं तो पूरी क्लास की शिकायत हेडमास्टर से करूँगा।“ “किसी ने नहीं कहा सर?” भीष्ट भोला बनते हुए बोला। “कहा, मैंने सुना।““अगर न कहा हो तो?”“अगर कहा हो तो?” सर उसके चक्रव्यूह में उलझ रहे थे। “सर आपको गलतफहमी हुई है। ‘साले’ नहीं कहा, ‘साली’ कहा था। अब किसी के नाम में ही गाली हो तो कोई क्या कर सकता है?” भीष्ट ने तर्क दिया। “साली! ऐसा कोई नाम नहीं होता।““अगर हुआ तो?”“बताओ मुझे, किसका नाम है साली?”“शमशेर इधर आओ। सर को अपनी नेम प्लेट दिखाओ।““ये देखिए सर! ये जो खाकी वर्दी पर लाल नेम प्लेट लगी है..उस पर पढ़िए क्या नाम लिखा है। हिंदी में - शमशेर अली और अंग्रेजी में ‘S ALI’ हम लोग इसके अंग्रेजी नाम से पुकारते हैं।“सर ने मान लिया कि उन्हें कोई भ्रम हुआ था। वे फिर पलटकर ब्लैक बोर्ड पर लिखने लगे। “धम्म!!!”पीछे से किसी के गिरने की आवाज आई। सुलफा सर ने पीछे मुड़कर फिर देखा। बच्चों के चेहरों पर हवाईयाँ थीं। उसके सिवा कुछ नहीं। सुलफा सर को फिर शक हुआ। “उस कमरे में कौन है?” उन्होंने लैब रूम की ओर इशारा करते हुए पूछा। “कोई नहीं सर। उसमें तो ताला लगा हुआ है।“ भीष्ट बोला। “मॉनिटर कौन है?” “सर, साली!” भीष्ट जबरदस्ती बीच में कूद पड़ा। “ये कमरा खोलो।“ सर ने शमशेर को आदेश दिया। “सर इसकी चाबी मेरे पास नहीं है।“ शमशेर अली बोला। “किसके पास है? जाओ तुरंत लेकर आओ।““सर, मुझे नहीं पता किसके पास है।““जाओ, हेडमास्टर सर को बुलाओ। अभी...!”शमशेर अली के पाँव फूल गए। साले पता नहीं अन्दर क्या कर रहे थे कि अब भी रह-रह कर एकाध आवाज आ रही थी। हेडमास्टर का नाम आया तो शमशेर अली ने हथियार डाल दिए। “सर चाबी तो नहीं है फिर भी हम लोग कोशिश करते हैं। ‘क्लिक’ का ताला है, दूसरी चाबियों से अक्सर खुल जाता है।“आनन-फानन एक चाबी ताले में घुसा दी गई। यह एक संकेत था रतन और सुनील के लिए कि ‘यार चुप हो जाओ या फिर निकल लो...मुसीबत आने वाली है’। लैब रूम में जो तीन स्लैब थे उनमें नीचे वाला स्लैब ही सोने के लिए प्रयोग किया जा सकता था। ऊपर वाले स्लैब ऊँचाई पर थे और नींद में गिरने का खतरा था। नीचे वाला स्लैब छोटा था। दोनों भारी-भरकम लड़के उसमें समा नहीं रहे थे। नींद दोनों की आँखों में भरी हुई थी। सुनील को लगता था कि सोने का पहला हक़ उसका है क्योंकि उसे चोट लगी हुई थी। रतन को लगता था कि उसका हक़ पहला है क्योंकि उसने सुनील की सेवा करने के चक्कर में नींद गँवाई थी। बोल कर समझौता हो नहीं सकता था क्योंकि बाहर सुलफा सर की क्लास चल रही थी। यह सचमुच शास्त्रार्थ का प्रश्न है कि सोने का पहला हक किसका है। प्रतिभागियों को यदि बोलने का अवसर ही न मिले तो शास्त्रार्थ कैसे संभव है। लात-घूँसों से? हाँ, ‘साले’ की आवाज जोश में निकल गई थी वरना रतन और सुनील के बीच पूरा शास्त्रार्थ लात-घूँसों में ही चल रहा था। शमशेर अली की जान फँसी हुई थी कि भला सुलफा सर को कैसे रोका जाए। आधी क्लास सुलफा सर के साथ उस ‘क्लिक’ ताले के आस-पास जमा थी। भीष्ट भी वहीं था।“सर आपने ‘मधुमती’ फिल्म देखी है? दिलीप कुमार वाली?”“हाँ! क्यों?”“उसमें सर यहीं की शूटिंग थी। एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक है न, उसी की शूटिंग है।““अच्छा? बहुत अच्छी फिल्म है वो। हम कई बार देखे हैं।”“ऐसा बोलते हैं यहाँ के लोग कि वह सच्ची कहानी थी और वैजयंतीमाला यानी ‘मधुमती’ की आत्मा अब भी आस-पास है।“ सर ने उसे पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दिया। “सर आप यहाँ नए हो न। इसलिए आपको बहुत सारी कहानियाँ मालूम नहीं हैं। लव-कुश हाउस में बच्चों ने भूत देखे हैं। विश्वास न हो तो उनको बुला के पूछ लो। ये जो मधुमती की आत्मा है न....हमेशा नई बिल्डिंग्स में रहती है। पहले एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक में थी, फिर रमन ब्लॉक में और अब इस नए क्लासरूम में......मतलब हो सकती है।”“हम लोग डिनर के बाद इस क्लास में पढ़ाई करने नहीं आते। मालूम है सर क्यों?”“मालूम है। क्योंकि इस क्लास में एक भूत रहता है। और इस समय वो इस लैब रूम के अन्दर है। है न?“ सर ने उनके उठाते हुए तर्क को कुचलने का प्रयास किया। लड़के समझ गए कि आज रतन और सुनील को कोई नहीं बचा सकता। करीब पंद्रह मिनट के कठोर प्रयासों के बाद शमशेर अली ने एक चाबी लगाकर उस तिलस्मी ताले को खोल दिया। सुलफा सर अन्दर घुसे तो देखा कि वहाँ कोई नहीं था। निचले स्लैब पर तितर-बितर अखबार पड़े हुए थे जिनपर उनके बदन की रेखाकृतियाँ उभरी हुई थीं। स्लैब वाली दीवार पर ऊपर की ओर एक खिड़की थी जिसमें काँच के जड़े हुए फ्रेम लगे थे। उन फ्रेमों को खोलकर ऊपर किया जा सकता था पर यह असंभव था कि उसमें से रतन के आकर का लड़का आर-पार हो जाए। एकता में शक्ति होती है। जो लोग स्लैब पर सोने के लिए समझौता न कर सके वे वहाँ से एक दूसरे की मदद लेकर भाग गए और पीछे छोड़ गए भागते भूत की लंगोटी। फ्रेम में जड़ा हुआ शीशा एक मिट्टी के रंग की एम-सील जैसे किसी पदार्थ से चिपका हुआ था। ऐसे कई फ्रेमों की सील चाबी से कुतरकर शीशा निकालने का हुनर दोनों को अच्छी तरह आता था। बहुत होशियारी से दोनों ने शीशा निकाला था। बाहर निकलने के बाद शीशे को फ्रेम पर टिका कर वे निकल लिए थे। अगर सर ने फ्रेम को छेड़ा होता तो जरूर वह नीच गिर गया होता।“सर! ‘मधुमती’ दोबारा देखिए। बहुत अच्छी फिल्म है। हमारे ऑडिटोरियम में आई थी और फिल्म देखने के बाद हम लोग तीन दिन तक सो नहीं पाए थे।“ भीष्ट ने कहा।
Published on April 25, 2018 06:29
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