साहित्य में भाषा का महत्व

आम पाठकों की भाषा में लिखना अच्छा है। लेखन सरल और सुबोध हो तो अधिक पढ़ा भी जाता है और बेहतर समझा भी जाता है। मगर साहित्य मात्र संदेश नहीं होता कि सुबोध होना उसकी अनिवार्यता हो और न ही भाषा का एकमात्र उद्देश्य संवाद करना होता है। संदेश और संवाद तो पशुओं में भी किसी न किसी रूप में होते ही हैं मगर वे साहित्य नहीं रचते। और क्या पता रचते भी हों और उसी के ज़रिये उनकी चेतना का विकास होकर उनके एवोलुशन में सहयोग करता हो।

मगर जहाँ तक हमारे साहित्य का प्रश्न है उसका उद्द्देश्य मनोरंजन करने और संदेश देने के साथ ही मानव चेतना का विकास और परिमार्जन करना भी होता है और इस प्रक्रम में भाषा समृद्धि और परिष्कृत भी होती है। साहित्यकार न सिर्फ शब्दों के उनके प्रचलित अर्थों में उपयोग करते हैं बल्कि उन्हें नये अर्थ भी देते हैं और नये शब्द गढ़ते भी हैं। वे नये मुहावरे भी बनाते हैं और नई उपमाएँ और नये प्रतीक भी रचते हैं। कुल मिलाकर लेखक भाषा के सिर्फ उपयोगकर्ता ही नहीं बल्कि उसके शिल्पी भी होते हैं। और यदि मात्र उपयोगकर्ता भी हों तो भी शब्द सिर्फ शब्दकोश में पड़े रहने के लिये तो नहीं होते।

वैसे भाषा के लिए कोई तयशुदा नियम नहीं हैं। कोई ठीक ठाक गाइडलाइन भी नहीं है। मेरे विचार से भाषा विषय, पृष्ठभूमि और परिवेश पर निर्भर करती है। 'समरसिद्धा' की भाषा 'डार्क नाइट' की भाषा नहीं हो सकती। कबीर और टीना, गुंजन और शत्वरी की भाषा नहीं बोल सकते। बोलेंगे तो अटपटा सा लगेगा।
समरसिद्धा की भाषा की बात चली तो ध्यान आया कि सुरेंद्र मोहन पाठक जी ने उपन्यास पढ़कर टिप्पणी की कि प्राचीन भारत की पृष्ठभूमि में रचे उपन्यास में उर्दू के शब्द खटकते हैं। उनकी टिप्पणी पर ध्यान देते हुए पुस्तक के नए संस्करण में उर्दू के शब्दों को हिंदी के शब्दों से बदला गया। फिर मैंने कृष्ण चन्दर जी का उपन्यास 'एक वायलिन समुन्दर के किनारे' पढ़ा। इस उपन्यास में तो उन्होंने पौराणिक पात्रों से भी भारी-भरकम उर्दू बुलवा दी। शिव, पार्वती, सरस्वती सभी उर्दू बोल रहे हैं। थोड़ा अटपटा भी लगा मगर क्या करें। संदीप नैयर से कहा जा सकता है कि यहाँ यह ठीक नहीं लग रहा है। कृष्ण चन्दर से किसने कहा होगा?
फिर भी भाषा और उसके शिल्प का अपना महत्व है। हर जगह एक सी भाषा अच्छी नहीं लग सकती। उपयुक्त भाषा और शैली न हो तो लेखन अपना महत्व खो देता है। एक गीत है -
"इक चमेली के मंडवे तले,
मैक़दे से ज़रा दूर उस मोड़ पर,
दो बदन प्यार की आग में जल गए।"

इन पंक्तियों का सौंदर्य इसकी भाषा में ही है, भाव में नहीं। अब इसे ही आम बोलचाल की भाषा में लिख दें -
"पेड़ के नीचे छोरा-छोरी,
ठेके से बस दूरी थोरी,
लिपटा लिपटी होरी होरी।"

भाषा बदली और भाव बदल गए। मुग़ले आज़म का मवाली हो गया। और यदि एक ही पिक्चर हो, एक ही कहानी हो, एक ही पृष्ठभूमि हो तो भी दृश्य और किरदारों के साथ भाषा बदल जाएगी।

कोई गाएगा, 'आपकी महकी हुई ज़ुल्फ़ को कहते हैं घटा, आपकी मद भरी आँखों को कँवल कहते हैं।'
कोई गाएगा, 'जानेमन तुम कमाल करती हो'
और कोई और गाएगा, 'गापुची गापुची गम गम., किसिकी किसिकी कम कम....'

 
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Published on July 05, 2018 14:04
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Sandeep Nayyar
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