विचारों की मुंडेरों से आत्मा की तलहटी तक
कुछ पाठकों का आरोप है कि 'समरसिद्धा' कुछ फिल्मी सा हो गया है। मेरा उनसे कहना है कि फिल्मी होना बुरा नहीं है। फिल्में अच्छी भी होती हैं और बुरी भी। इसी तरह कोई भी कला जिसमें साहित्य भी शामिल है कमोबेश इन दोनों में से किसी एक ही श्रेणी में आती है, अच्छी या बुरी। बाकी की श्रेणियाँ या केटेगरी मूलतः उन्हे थोड़ी दीर्घता से परिभाषित करने की सहूलियत से बनी होती हैं।
इन श्रेणियों में मुझे जो सबसे पसंद है वह है, 'शास्त्रीय या क्लासिकल' और 'लोक, लोकप्रिय या पॉपुलर'। शास्त्रीय कला वह होती है जो आपको इन्द्रियों और विचारों की सतह से परे कहीं भीतर तक छू जाती है, वह जो आपको बाँध देती है, जिसे अंग्रेज़ी में 'एस्थेटिक अरेस्ट' कहा जाता है।वह न गुदगुदाती है, न किसी हरकत में लाती है, न किसी सोच के भंवर में डुबाती है। वहां सिर्फ अनुभूति होती है, 'प्यूर रॉ एक्सपीरियेन्स'. जैसे कि भैरवी की धुन, जैसे कि बीथोवन की सिंफनी, जैसे कि मोनालिसा, जैसे कि रूमी की नज़्म।
और एक कला होती है जो गुदगुदाती है, किसी हरकत में लाती है, किसी सोच के भंवर में डुबाती है, कुछ मस्ती देती है, कुछ आंसू देती है। उसे कहा जाता है, पॉपुलर आर्ट, देसी कला। वह अच्छी भी हो सकती है, वह बुरी भी हो सकती है, वह आदर्शवादी भी हो सकती है, वह यथार्थवादी भी हो सकती है, वह छायावादी हो सकती है, प्रगतिवादी हो सकती है, प्रयोगवादी हो सकती है, मधुर हो सकती है, कटु हो सकती है, रस-प्रधान हो सकती, भाव-प्रधान हो सकती है और न जाने क्या-क्या।
एक लेखक और विशेषकर एक नए लेखक के लिए एक पूरे उपन्यास को शास्त्रीय बना पाना एक बहुत बड़ी चुनौती होती है। वह चुनौती सिर्फ लेखन की ही नहीं बल्कि अपने लेखन को पाठकों तक पहुंचा पाने की भी चुनौती होती है। आजकल के व्यवसायिक जगत में जहां लेखक को प्रकाशकों को यह सिद्ध करना होता है कि उसका लिखा व्यवसायिक रूप से सफल होगा। खासकर तब जब आप हिन्दी के लेखक हों, उस हिन्दी साहित्य के जिसमें किसी पुस्तक की एक हज़ार प्रतियाँ बेचने में प्रकाशक का पसीना निकल जाए। ऐसे में आसान तरीका होता है एक अच्छे पॉपुलर आर्ट का रास्ता। एक ऐसा उपन्यास जिसमें किस्सागोई हो, रोमांच हो, जो गुदगुदाए, कभी हँसाए, कभी रुलाए, थोड़ा सस्पेंस, थोड़ा थ्रिल, थोड़ा प्यार, थोड़ा मॅजिक। हाँ बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ, कुछ वाक्य, कुछ दृश्य, ऐसे हो सकते हैं जो थोड़ी देर के लिये बांध दें, सोच की मुंडेरों से उतार कर आत्मा की तलहटी तक पहुंचा जाएँ। बस ऐसी ही कुछ कोशिश मेरी भी रही है समरसिद्धा में।
इन श्रेणियों में मुझे जो सबसे पसंद है वह है, 'शास्त्रीय या क्लासिकल' और 'लोक, लोकप्रिय या पॉपुलर'। शास्त्रीय कला वह होती है जो आपको इन्द्रियों और विचारों की सतह से परे कहीं भीतर तक छू जाती है, वह जो आपको बाँध देती है, जिसे अंग्रेज़ी में 'एस्थेटिक अरेस्ट' कहा जाता है।वह न गुदगुदाती है, न किसी हरकत में लाती है, न किसी सोच के भंवर में डुबाती है। वहां सिर्फ अनुभूति होती है, 'प्यूर रॉ एक्सपीरियेन्स'. जैसे कि भैरवी की धुन, जैसे कि बीथोवन की सिंफनी, जैसे कि मोनालिसा, जैसे कि रूमी की नज़्म।
और एक कला होती है जो गुदगुदाती है, किसी हरकत में लाती है, किसी सोच के भंवर में डुबाती है, कुछ मस्ती देती है, कुछ आंसू देती है। उसे कहा जाता है, पॉपुलर आर्ट, देसी कला। वह अच्छी भी हो सकती है, वह बुरी भी हो सकती है, वह आदर्शवादी भी हो सकती है, वह यथार्थवादी भी हो सकती है, वह छायावादी हो सकती है, प्रगतिवादी हो सकती है, प्रयोगवादी हो सकती है, मधुर हो सकती है, कटु हो सकती है, रस-प्रधान हो सकती, भाव-प्रधान हो सकती है और न जाने क्या-क्या।
एक लेखक और विशेषकर एक नए लेखक के लिए एक पूरे उपन्यास को शास्त्रीय बना पाना एक बहुत बड़ी चुनौती होती है। वह चुनौती सिर्फ लेखन की ही नहीं बल्कि अपने लेखन को पाठकों तक पहुंचा पाने की भी चुनौती होती है। आजकल के व्यवसायिक जगत में जहां लेखक को प्रकाशकों को यह सिद्ध करना होता है कि उसका लिखा व्यवसायिक रूप से सफल होगा। खासकर तब जब आप हिन्दी के लेखक हों, उस हिन्दी साहित्य के जिसमें किसी पुस्तक की एक हज़ार प्रतियाँ बेचने में प्रकाशक का पसीना निकल जाए। ऐसे में आसान तरीका होता है एक अच्छे पॉपुलर आर्ट का रास्ता। एक ऐसा उपन्यास जिसमें किस्सागोई हो, रोमांच हो, जो गुदगुदाए, कभी हँसाए, कभी रुलाए, थोड़ा सस्पेंस, थोड़ा थ्रिल, थोड़ा प्यार, थोड़ा मॅजिक। हाँ बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ, कुछ वाक्य, कुछ दृश्य, ऐसे हो सकते हैं जो थोड़ी देर के लिये बांध दें, सोच की मुंडेरों से उतार कर आत्मा की तलहटी तक पहुंचा जाएँ। बस ऐसी ही कुछ कोशिश मेरी भी रही है समरसिद्धा में।
Published on September 25, 2014 11:03
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