बर्फ़: गंभीर समाचार में छपी मेरी नई कहानी


बर्फ़ 
"ये जैसे शरीर में नाख़ून उगते हैं न...जिनकी किसी को ज़रुरत नहीं होती। सास, श्वसुर, चाचा, मामा...ये सब नाखून ही होते हैं....।"
वेटर ने पानी का जग मेज़ पर रखा और हड़बड़ी में वापस मुड़ गया। जग से रिसती हुई पानी की एक बूँद उसके सामने रखे व्हिस्की के गिलास के ऊपरी किनारे पर चिपक गईं। एक पैर में गोली खाए हुए सैनिक की तरह उस बूँद ने घिसटना शुरू किया। चिकनी सपाट सतह पर वह कुछ दूर घिसटती और सांसें भरने के उपक्रम में ठहर जाती। वातावरण में घुटन भरी ऊमस थी। सामने, लॉन में अम्बुज के बड़े बेटे आरव का जन्मदिन उत्सव समाप्त हो गया था। रेस्टोरेंट का स्टाफ खाने की प्लेटें, मेजें और इधर-उधर बिखरे गुब्बारों को एकत्रित करने में व्यस्त था। अम्बुज ने अपनी पत्नि अलका को दोनों बच्चों के साथ गाड़ी में बिठा दिया। मेहमान सहकर्मी और मित्र सब जा चुके थे। विनीत देर से आया था। लॉन से निकलकर वह रेस्टोरेंट में बैठ गया और व्हिस्की मंगा ली। अम्बुज भी उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया। उसके इशारे पर वेटर व्हिस्की का दूसरा गिलास ले आया।“बर्फ?” वेटर ने पूछा।“हाँ।“ अम्बुज ने इशारे से दोनों गिलासों में बर्फ डालने को स्वीकृति दी।गिलास में बर्फ के पड़ते ही आस-पास की ऊमस जैसे एक चुम्बकीय आकर्षण से गिलास की बाहरी सतह पर द्रवित हो गईं। जीवन की ऊमस में अदृश्य होकर तैरते हुए दुःख एक-एक कर उस बूँद की ओर बढ़ चले जो लँगङाते हुए अब तक अकेले गिलास से नीचे उतरने की लड़ाई लड़ रही थी। झरने की तरह गिरते हुए प्रवाह से सब दुःख एक धार में बह गए। बह जाने दो, मन कुछ तो हल्का होगा।“ज़िद छोड़, और ये रोज़-रोज़ गिलास हाथ में पकड़ने का सिलसिला ख़त्म कर।“ बात-चीत आगे बढ़ी तो अम्बुज ने विनीत को सलाह दी। विनीत लगभग उसकी उपेक्षा कर अपने पेग में व्यस्त था।“ये जैसे शरीर में नाख़ून उगते हैं न...जिनकी किसी को ज़रुरत नहीं होती। सास, श्वसुर, चाचा, मामा...ये सब नाखून ही होते हैं। बढ़ते रहते हैं उम्र के साथ। क्या करें? इनके लिए कोई दवाई नहीं करता..सरल सा उपाय है। सन्डे के सन्डे नेलकटर ले के कुतर दो... बस। अपना कद बढ़ने दो, समझ बढ़ने दो जिनसे प्यार है उनसे प्यार बढ़ने दो। और जो भी लगे कि नाख़ून हो गया है, कुतर दो। सन्डे के सन्डे।“वार्तालाप देर तक चला। कभी विनीत कुछ बोलता तो अम्बुज हावी हो जाता। तीन-तीन पेग पीने के बाद दोनों चल दिए।“तेरह साल हो गए। अपनी तरफ देख। अपनी ज़िन्दगी बना।“ टैक्सी में बैठे-बैठे विनीत के मन ने कई बार समझौता किया। वह जानता था कि सुरूर उतरा और समझौता खारिज़। ऐसा पहले कई बार हो चुका था। पर उस दिन पर वह कुछ ज्यादा आश्वस्त दिखा।कानपुर देहात के एक छोटे से गाँव से था विनीत। पिता रोज़गार के लिए पलायन कर गुजरात में बस गए थे। केमिकल फैक्टरी में कुछ साल काम किया। साँस की शिकायत उठी तो डॉक्टर ने सलाह दी कि कुछ और काम करें। संयोग से उसी समय कंपनी में  स्वेच्छा-निवृत्ति की योजना आ गई तो नौकरी से पीछा छुड़ा वे अपने गाँव वापस आ गए और खेती-बाड़ी सँभालने लगे। सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के बावजूद विनीत अपने परिश्रम के सहारे आई आई टी पहुँच गया। पढ़ाई के तीसरे साल में ही उसकी शादी हो गई। पास ही के गाँव में रहने वाली सुनीता बारहवीं पास थी। अठारह साल की हुयी ही थी कि घर वालों ने लोक-लाज के डर से ब्याह कर दिया। गाँव वाले काना-फूसी करते रहे कि सुनीता का गाँव के ही किसी लड़के से चक्कर चल रहा है।  पर न विनीत ने और न ही उसके माँ-बाप ने इस अफवाह पर ध्यान दिया। लड़की अगर देखने में थोड़ी भी सुन्दर हो तो ऐसी अफवाहें उठने ही लगती हैं। घर में इकलौता बेटा था, सो विनीत ने भी सोचा कि और कुछ नहीं तो  बूढ़े-माँ बाप को सहारा ही हो जाएगा। विनीत की इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हुई ही थी कि सुनीता के पिता ने विनीत के पिता पर दहेज़ उत्पीड़न का केस कर दिया। विनीत ने जिस चिंगारी को आरम्भ में सास-बहू की नोंक-झोंक समझकर नज़रंदाज़ किया वह अब कुटुंब अदालत में एक केस का रूप ले चुकी थी। विनीत जिस सम्बन्ध का कानूनी पंजीकरण भी न करा पाया था उस सम्बन्ध को अदालत ने एक नंबर दे दिया था, केस नंबर।उस दिन जब विनीत के पिता ने कचहरी का पहला चक्कर लगाया तो वह सुनीता और उसके पिता के प्रति घृणा से भर गया। पारिवारिक अवसाद जब कचहरी तक पहुँच जाए तो वह पारिवारिक नहीं रह जाता। वह समाज की ठिठोली का स्रोत बन जाता है। अदालत ने पड़ताल की तो केस में नए पहलू सामने आए। दरअसल दहेज़ की रकम का इस्तेमाल कर विनीत के पिता मगन राम ने अपना घर पक्का करा लिया था जिस पर सुनीता ने आपत्ति की। श्वसुर और बहू के बीच मामला एक बार उलझा तो उलझता ही चला गया। सुनीता के पिता जो पहले बीच-बचाव में सामने आए अब मुखर होकर मगन राम का विरोध कर रहे थे। सुनीता को उन्होंने अपने ही घर बुला लिया था। विनीत को नौकरी मिल गयी और वह बैंगलोर चला गया। कोर्ट कचहरी के चक्कर में कभी-कभार कानपुर जाता तो अपने माँ-बाप की दयनीय स्थिति देख सुनीता के प्रति ज़हर से भर जाता। कोर्ट की कार्यवाही के सिलसिले में उसके पिता परेशान रहने लगे थे। नौकरी में विनीत उन्नति करता रहा। कोर्ट ने बहुत जोर देकर दोनों परिवारों की सुलह करा दी और सुनीता विनीत के साथ रहने के लिए बैंगलोर आ गयी। विनीत आश्वस्त हो गया कि सब ठीक हो जाएगा। पर कुछ भी ठीक न हुआ। बैंगलोर में भी खटास जस की तस बनी रही। मन का मैल साबुन घिसने से नहीं जाता। उसके लिए तो बस आँखों से आँखें मिलाकर सच बोलना होता है, धैर्य से, शालीनता से और पवित्रता से अपने मन के अंतर्कुंड में डुबकी लगानी पड़ती है। मन की ज़मीन बंजर हो तो तन के मिलन से भी फूल नहीं खिलते। दोनों के बीच सम्बन्ध बना फिर भी आँगन सूना ही रहा। एक दूसरे के पिता को कोसते हुए दोनों में झगड़ा होने लगा। एक दिन सुनीता सब कुछ छोड़-छाड़ कर वापस पिता के घर चली गयी। पिता आहत हुए तो उन्होंने फिर कचहरी का सहारा लिया और तलाक़ के लिए अर्जी डाल दी। विनीत को कंपनी ने दो साल के लिए अमेरिका भेज दिया। तलाक़ की अर्जी कचहरी में धूल छानती रही। विनीत, सुनीता और सुनीता के पिता, तीनों के अहम् विकराल रूप धर चुके थे। कचहरी के चक्करों में विनीत अपने पिता का बुढ़ापा उधड़ते हुए देख रहा था। वह खीझ उठता कि आखिर उसने विवाह किया ही क्यों? उसने सुनीता के पिता से सुलह करने का दोबारा प्रयास किया। पर स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि तीनों एक दूसरे को शत्रु समझते लगे। सुनीता के पिता को मौका मिला तो उन्होंने दहेज़ में दिए गए 8 लाख रुपये वापस करने की माँग रख दी। फिर क्या था? विनीत को समझ आने लगा कि सारा खेल पैसे के लिए खेला जा रहा है। वह भी ज़िद थाम कर बैठ गया कि चाहे जो हो जाए वह किसी भी हाल में रुपया नहीं देगा।विवाह के पहले, गाँव के ही एक लड़के के साथ सुनीता के प्रेम वाली बात सच निकली। जाति बंधनों के चलते सुनीता के पिता ने लड़के को अस्वीकार कर दिया। एक फाँस रह गयी, जिसके चलते न उसके पिता उसे रास आते और न विनीत। यौवन की उमड़ती धधक में इतना विवेक कहाँ रहता है कि वह सही या गलत का तर्कसंगत निर्णय ले सके। पिता गेहूं बन पिसे तो विनीत घुन बन। उसी प्रेम प्रसंग को लेकर पिता को भी सुनीता से शिकायत थी। गाँव में उनकी अच्छी-खासी बदनामी हो चुकी थी। विनीत भी उन्हें दहेज़ का लालची बेटा जान पड़ा जो अपने बुद्धि-विवेक को ताक पर रखकर सिर्फ अपना करियर बनाने में व्यस्त था। विनीत को इस प्रेम-प्रसंग के बारे में भनक लगी तो वह भी शिकायत से भर उठा। श्वसुर के लिए नफरत तब जागी जब उन्होंने अपने दहेज़ की रकम वापस करने की माँग की। परिश्रम से कमाया हुआ रुपया एक लोभी पिता के हाथों सौंपकर अपना जीवन छुड़ाना उसे हरगिज़ मंजूर न हुआ। ज़िन्दगी खिसकती रही। विनीत अपने दोस्तों, सहकर्मियों के घर बसते हुए देखता रहा। उनके बच्चों के जन्मदिन या अन्य परिवारिक उत्सवों में मूक दर्शक बना भागीदारी करता रहा। कभी-कभी वह झुंझलाकर निर्णय भी ले लेता कि रुपए अपने श्वसुर के मुंह पर मारकर वह सुनीता को वापस ले आएगा, पर ऐसे विचार शराब गले के नीचे उतर जाने का बाद या फिर उसके आँसुओं के देर तक रिस जाने के बाद आते। शराब और आँसू सूख जाते तो ये विचार भी अपने आप सूख जाते। होश में आते ही अहम् धर दबोचता और विचारों को मिट्टी में मिला देता। वह हौसला जो पुरुष को भूल सुधार कर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है, विनीत कभी जुटा ही न सका।दोस्तों ने बहुत समझाया। नाख़ून समझकर अनचाहे रिश्तों को सन्डे के सन्डे कुतरते रहो। पर विनीत वह नेलकटर अपनी हथेली में उठा ही न सका। दोस्तों के जोर देने पर वह बहाना बना देता कि उसने पैसा पाने माँ-बाप की देखभाल के लिए जुटाया है। कल को हारी-बीमारी में एक वही तो है जो उनका खयाल रख सकता है।  सुनीता ने अपने प्रेमी का विवाह होते देखा तो उसके विछोह का दर्द और बढ़ गया। वह उस मखमली स्वप्निल दुनिया में जीने लगी जहाँ वह असफल प्रेमिका थी, जिसने अपने प्रेमी को विछोह की आग में झोंक दिया था। वह कभी देख ही न सकी कि प्रेमी अपने दाम्पत्य में मग्न है। वह एक ऐसे अपराधबोध में सुलगती रही, जो संभवतः अपराध था ही नहीं।और कुछ साल गुजरे। बरसों तक खेत में हल नहीं चला। न कभी पानी दिया गया न गुड़ाई की गयी। धूप रोज़ आकर मिट्टी को कुछ और सुखा जाती। रिश्तों के बीच का पर्वत कुछ और कठोर हो जाता। रिश्तों की फसल यदि भाग्य के मानसून के सहारे छोड़ी जाए तो उतना ही राशन मिलता है जितना भाग्य में लिखा हो। भरपेट भोजन करना हो तो पसीने से सिंचाई करनी ही पड़ती है। कचहरी अपनी कार्यवाही करती रही। दोनों पक्षों में से कोई भी झुकने को राजी न था। वकील और जज प्रसन्न थे कि उनका कारोबार चल रहा है। वैसे तो पिता ही कार्यवाही देखते रहते थे पर विनीत को कभी-कभी हाजिरी लगाने आना पड़ता था। फिर एक दिन पिता चल बसे। कचहरी में एक भीड़ भरी जगह पर साँस की दिक्कत बढ़ी और वहीं दम तोड़ दिया। जो साजोसामान विनीत ने उनका ‘खयाल’ रखने के लिए जुटा रखा था कुछ काम न आया। वह टूट गया। माँ से कुछ कहना चाहता था पर अनपढ़ माँ उसके किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ थी। सालों तक मूक बनी वह अपने पति और बेटे को जूझते हुए देखती रही। एक बार जब उसका स्त्री-विवेक हावी हुआ तो उसने सुलह के लिए पति और बेटे पर दवाब बनाया। वह सफल भी हुई। पर सुलह के बाद जब बात न बनी तो उसने भी अपनी समझ का प्रयोग कम कर दिया। विनीत के किसी भी प्रश्न का उत्तर माँ के पास न था।अम्बुज के बेटे की पार्टी के बाद वह घर पहुंचा और बिस्तर पर निढाल हो गिर पड़ा। शराब का असर कुछ कम हुआ तो उसे महसूस हुआ कि आँखों से नींद जा चुकी है। वह आँखें मींचे अपने मन के अँधेरे कोनों में नींद को तलाशने लगा। पिछले तेरह सालों की ज़िन्दगी का एक-एक कतरा उसकी आँखों में चुभ रहा था। ग़ालिब का वह शेर उसे अचानक याद हो आया ‘यूँ होता तो क्या होता’। सुनीता खूबसूरत है। यदि सब कुछ ठीक होता तो वह भी किसी का पिता होता। सुबह दफ्तर जाने से पहले कोई नाश्ता बना कर खिलाता। स्कूल से लौटे हुए बच्चे की शिकायतें होतीं, छुट्टियों में घूमने जाने की फ़रमाइशें होतीं। जिस पिता के ख्याल रखने की आस में वह रूपया जमा करता रहा, वह पिता तो अस्पताल जाए बिना ही चल बसा। बचपन की कितनी ही योजनाएँ धरी रह गईं। फिर ज़िन्दगी से ये ज़िद क्यों? जीवन उसी का है, परिवार उसका है, उम्मीदें भी उसी की हैं। फिर कोई और क्यों उसकी उम्मीदों को पार लगाने आएगा। उसे खुद ही पहल करनी होगी; और आधी-अधूरी पहल नहीं बल्कि उद्देश्य को एक सार्थक अंत तक पहुँचाने वाली पुरज़ोर पहल। वैसी पहल जैसी वह अपने दफ्तर के कामों में करता था। अगले सप्ताह कोर्ट की तारीख है। पिता तो रहे नहीं। अब उसे ही जाना होगा। उसने निश्चय किया कि वह सुनीता के पिता को 8 लाख रुपये दे देगा और सुनीता को वापस ले आएगा। रुपये लेकर उसके श्वसुर केस वापस ले लेंगे। वह सुनीता को मना लेगा। ज़िन्दगी फिर से पटरी पर आती दिख रही थी। नींद आये न आये। सुबह उसके होश में आते दुनिया यदि उधर की उधर होती हो तो हो जाए। वह अपना फैसला नहीं बदलेगा। सुनीता को वापस लाकर ही दम लेगा।        सुनीता के पिता से उसने फ़ोन पर बात की। उन्हें बता दिया कि वह सुलह करने को राज़ी है और उनकी शर्त के अनुसार रुपये भी देने को। सुनीता का एक छोटा भाई था जिसके विवाह की उम्र हो चली थी। पिता ने बेटे के विवाह में आने वाली अड़चनों के बारे में सोचा। सम्बन्धी प्रश्न तो ज़रूर उठाएंगे कि बेटी घर में क्यों बैठी है। सो तय कर लिया कि विनीत से पैसे लेकर केस वापस ले लेंगे। बेटी की राय लेना उन्होंने उचित न समझा।कोर्ट में तारीख के एक दिन पूर्व शाम को वह सुनीता के घर पहुंचा। श्वसुर ने आवभगत की और पिता की मृत्यु पर दुःख जताया। उसने रुपये दे दिए और आग्रह किया कि कल कोर्ट जाकर वह केस वापस ले लें। श्वसुर सहमत हो गए। नाश्ता कर के वह चला गया। सुनीता को पता चला तो उसने कोहराम मचा दिया। पिता को भला बुरा कहने लगी। पिता ने समझाने का प्रयास किया पर वह शांत न हुई। रात हुई तो खाने के बाद फिर पिता ने बेटी को समझाने का प्रयास किया। उसकी प्रतिक्रिया में उबाल कुछ शांत हो गया था। सोने के लिए बिस्तर पर लेटी तो विचलित हो उठी। वियोग की मारी प्रेमिका और पिता की ज़बरदस्ती से असंतुष्ट बेटी की जगह एक पत्नि ने ले ली। अदालत की  कार्यवाही कुछ भी कहती हो पर आखिर वह विनीत की पत्नि थी। अपने पूर्व प्रेमी को पत्नि के साथ शहर जाते हुए देखती तो उसे खुद पर तरस आने लगता। प्रेमी तीन बच्चों का पिता बन चुका था।शाम के आठ नाजे समाचार फ़्लैश हुआ। विनीत के होश उड़ गए। पांच सौ और हज़ार रुपये के जो नोट वह अपने श्वसुर को थमा आया था वे अब मान्य नहीं रह गए थे। सरकार ने त्वरित प्रभाव से नोटबंदी का ऐतिहासिक निर्णय ले लिया था। विनीत रात भर सो न सका। सुबह पौ फटने तक वह सुनीता के घर पहुँच गया। सूरज की लालिमा आकाश को दूषित करती नज़र आ रही थी।   “रुपये तो तुम्हारे सब कागज़ हो गए।“ श्वसुर ने चाय तक को न पूछा।“हाँ, कागज़ तो हो गए पर आपके हाथों में आने के बाद। मेरे हाथों में वे आज भी मेरी पसीने की कमाई का हिस्सा हैं। किसी चीज़ का मूल्य वही समझ सकता है जिसे उसकी ज़रुरत हो।“ विनीत अधीर हो उठा।“अब जब नए नोट आ जाएँ तभी केस वापस होगा।“सुनीता भी बैठक में आ गई। वह देख रही थी विनीत के चेहरे पर लड़खड़ाते सूरज को। विवाह कर ले गया था उसे। अपनी बचाई हुई जमा-पूँजी उसने पिता के हाथ में रख दी थी, सिर्फ सुनीता को वापस ले जाने के लिए। विनीत अपनी ज़िद छोड़कर एक ऐसी शर्त मान ली थी जिसके लिए सुनीता स्वयं सहमत न थी। बर्फ़ गिलास में गिरकर पिघलने लगी थी। विनीत की ज़िद और पिता के विरोध के बहाने तले वह खुद को छलती आई थी। एक जीवन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था और वह दूर भागती रही, शबनम की उन बूंदों की तलाश में जो सूरज की पहली किरण पाकर सूख चुकी थीं। पिता को उससे प्यार होता तो पिता की बर्फ पहले गलती। वह उठी और भीतर से अपना सामान बांधकर ले आई।“मुझे जाने दो, पिताजी।“ उसने कहा।पिता ने उसे डपट कर बिठा दिया। वह फिर खड़ी हो गई और विनीत को अपने साथ लेकर बाहर चली गई। सुनीता की माँ चुपचाप देखती रही। मन ही मन खुश होती रही। पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के बोल भले दब जाते हों उनके अंतर्द्वन्द्व नहीं दबते; और न दबते हैं उनके आशीष। एक बर्फ और पिघली। बेटी को डपटता, प्रतिरोध करता पिता का स्वर अचानक कुंद हो गया।“रुको!” विनीत को संबोधित करते हुए पिता ने आवाज दी।“ये रुपये अपने पास रखो। तुम ठीक कहते हो...मेर हाथों में आने के बाद इनका मोल ख़त्म हुआ है।“ वातावरण से छँट-छँट कर सारे दुःख गिलास की सतह पर द्रवित हो गए और झरने के वेग से बह निकले। सुबह के सूरज की लालिमा अब सुहानी लग रही थी। 
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Published on July 08, 2017 22:11
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