अनीता मंडा जी द्वारा #सिर्री की समीक्षापुस्तक क...

अनीता मंडा जी द्वारा #सिर्री की समीक्षापुस्तक का नाम - सिर्री
विधा- कहानी
लेखक- अबीर आनन्द
प्रकाशन- Zorba books
Isbn -978-93-86407-22-1
सिर्री : नये जमाने की कहानियां : -
अनिता मण्डा
सिर्री पुस्तक का आवरण देखें तो पाते हैं कि एक चेहरा रस्सियों के जाल में लिपटा है और चेहरे से आँखें बाहर झाँक रही हैं। इन आँखों में एक ग़ज़ब की बैचेनी है। यही है आज के समय का मनुष्य। जो कि अन्तस् तक बुरी तरह से मजबूरी की रस्सियों से बंधा हुआ है और इन बन्धनों की कसक, पीड़ा दर्द उसकी आँखों में दिख रही है। ये बन्धन हमारे आस-पास रहने वालों के सबके जीवन को जकड़े हुए हैं। यह अलग बात है कि हम में से सबके पास वो दृष्टि नहीं है कि इन्हें देख पायें। सबके पास वो संवेदना भी नहीं है कि इस बैचेनी को महसूस कर पाएँ। लेकिन हम में से कुछ एक के पास वो दृष्टि भी है और वो हृदय भी है कि इनको देख महसूस कर पायें अबीर आनन्द के पास वो लेखनी भी है कि वो कहानियों में दर्ज़ कर पाये। इसलिए वो नए जमाने की कहानियां, नई शब्दावली में बुन पाये हैं।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और अन्य प्राणियों से इस मामले में जरा भिन्न है कि वह अपनी बात कह सकता है संवाद कायम कर सकता है संवाद आएंगे तो कहानियां भी जन्म लेंगी और कहानियां होंगी तो उन पर बात भी होगी। जी हाँ, आज हम बात कर रहे हैं युवा कहानीकार अबीर आनंद के कहानी संग्रह 'सिर्री' की। 'सिर्री' यूँ तो कहानीकार का पहला कहानी संग्रह है परंतु कहानियों पर दृष्टिपात करें तो यह बात हजम नहीं होती कि यह अबीर का पहला कहानी संग्रह ही है। कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है जो साहित्य समाज से सरोकार नहीं रखता वह मात्र व्यसन है। इस दृष्टि से हम पाते हैं कि सिर्री अपने समय का आईना है।
आज की व्यवस्था के प्रति अबीर आनन्द जी के मन में तीव्र आक्रोश है, भ्रष्टाचार की दलदल में धँसे सत्ता के पाँव, अपना ज़मीर बेच चूका मीडिया, बेरोजगारी की भट्टी में झोंकती शिक्षा-व्यवस्था और बाजारीकरण के चलते देश को लूट खसोटने वाली अनगिनत मल्टीनेशनल कम्पनियाँ। ये सब मिलकर जो माहौल बना रहे हैं उस माहौल में कोई भी सिर्री (पागल) हो जाये। 'सिर्री' में ये परिस्थितियाँ पृष्ठभूमि में काम कर रही हैं। यह सारा हलाहल पिया हुआ मन ही 'सिर्री' में अपनी दृष्टि रख रहा है।
इक्कीसवीं सदी में मल्टी नेशनल कम्पनियों में कार्यरत कर्मचारियों पर दबाव भरी परिस्थितियों में काम करने के दुष्परिणाम उभर कर देखने को मिल रहे हैं। 'रिंगटोन' मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करते हुए अपने से उच्च पदस्थ लोगों से कितना कुछ सहना पड़ता है इसको बहुत अच्छे से खोल कर रखती हैं छोटी-छोटी गलतफहमियों और गलतियों से तरक्की पर लगे ब्रेक के कारण एक भरे पूरे परिवार को परेशानियों के जंगल से गुजरना पड़ता है
'रिंगटोन' नायक मानस बेहरा की परेशानियों में इजाफा करने में उसके फोन की रिंगटोन "मैं परेशान परेशान परेशान" का अहम किरदार किस तरह है यह जानना रोचक है। 'रेसर टायर कंपनी' की फैक्ट्री में निम्नवर्गीय अधिकारी है मानस। कहानी में टायर बनाने के बारे में अच्छा विवरण भी लेखक के ज्ञान से परिचित कराता है। बड़े अधिकारियों द्वारा छोटे कर्मचारियों का लताड़ फटकार खाना उन्हें किस हद तक प्रभावित करता है सोचनीय है। जरा सी गलतफहमी से एक टायर का खराब होना भी बड़े प्रोजेक्ट हाथ से निकलने का सबब बन जाता है जिसकी बदौलत प्रमोशन भी रुक जाता है इन परेशानियों में फंसे मानस के चैन के दुश्मन है बैंक लोन वाले जो लोन देते वक्त तो जताते हैं कि उनके जैसा हितैेषी कोई नहीं और ज़रा देर होते ही जान के दुश्मन बन बैठते हैं।
बाजार केंद्रित मानसिकता के कारण बैंकों में होड़ लगी रहती है कि अधिक से अधिक ग्राहक बनायें व लोन देकर मुनाफा कमायें और जब कभी ग्राहक परिस्थितिवश समय पर लोन नहीं चुका पाते तो बैंक जिस अमानवीयता पर उतर आते हैं वह अकल्पनीय है उस से उपजे मानसिक संत्रास से जलते हुए युवाओं का जीवन कोल्हू के बैल के माफ़िक हो जाता है 'रिंगटोन' और 'सिर्री' दोनों में यह समस्या दिखाई है।
दिन-रात की पढ़ाई और उच्चांक प्राप्ति के बाद डिग्री लेने के बावजूद जब युवाओं को करने को अपने मनमुताबिक काम नहीं मिलता तो वह मानसिक अवसाद उठना स्वभाविक है और अवसाद से लड़ते हुए जिंदगी के बोझ को ढोते हुए पाँव घिसटना इस समय की तल्ख़ सच्चाई है। यह तल्ख़ सच्चाई बयान हुई है कहानी 'गुटखा तेंदुलकर' में। विज्ञापन जगत की बारीकियों पर लेखक का गहन अध्ययन 'गुटखा तेंदुलकर' को यथार्थ के करीब ले जाता है। किसी उत्पादन में अन्य उत्पादों से कोई श्रेष्ठता न होते हुए भी उसे बाज़ार में पैर जमाने हेतु किन तरीकों से लोगों के दिमाग तक पहुँचाया जाय, यही तो है विज्ञापन जगत। झूठ को सच का जामा पहनाना और लोगों के दिमाग में इस गहराई से उतार देना कि वही सच नज़र आये। यह सब करते हुए इन्हें जनता के स्वास्थ्य की परवाह करने की फुरसत नहीं, इन्हें बस अपना मुनाफ़ा दिखाई देता है। इसके लिए वे विज्ञापन को स्थापित नायकों पर फ़िल्माते हैं। इन नायकों को भी अपने कर्तव्यों से कुछ लेना देना नहीं। सिर्फ़ पैसे मिलते रहें बस। तेंदुलकर को अपना आदर्श मानने वाले आशीष को मजबूरन यह काम करना पड़ता है लेकिन वो खुद अपनी ही नज़र में गिर जाता है। मानसिक अवसाद बढ़कर सिजोफ्रेनिया (लेखक ने इसे सिजोफ्रेनिया ही लिखा है) का रूप ले लेता है। और चिंता का विषय यह है कि यह कोई एक दो लोगों की परेशानी नहीं, बहुत लोग इसके शिकार हैं। समय पर न बीमारी पहचानी जाती है, न इलाज शुरू होता है।
'चिता' - रोजगार की समस्या, बुजुर्गों की समस्या उच्च पढ़ाई वह उसके बाद कंपनियों में नौकरी के चलते छोटे शहरों और गाँवों से नौजवानों के हुए पलायन विस्थापन के कारण पीछे रह गए बुजुर्गों की मानसिक पीड़ा व उनकी फ़िक्र में संतानों का चिंतित रहना माता-पिता को अपने साथ रहने के लिए चलने के लिए राजी करना बड़े शहरों में अपने गाँव, मित्रों परिचितों से दूर बुजुर्गों का समायोजित नहीं हो पाना यह भी आज के समय की एक महत्वपूर्ण समस्या है जो कि कहानी 'चिता' में उभरकर आई है। पिता पुत्र के बीच मन में बंधी गिरहें जब खुलती हैं, परेशानी दूर होती है, इस तरह कहानी सुझाव भी दिखाती है समस्या पर। दो पीढ़ियों के बीच आई संवादहीनता ने छोटी-छोटी समस्याओं को बढ़ा दिया है। जीवन शैली के बदलाव व साथ साथ लम्बे समय तक एक ही जगह काम करने से प्रेम विवाह जैसी घटनाएँ भी बढ़ गई। पिछली पीढ़ी इसे सहर्ष स्वीकार नहीं पाती, उन्हें यह अपने कहने की अवमानना दिखती है। यही छोटे-छोटे कारण समस्या को और बड़ी बनाते जाते हैं। आज हर गाँव में कई आशुतोष दिख जायेंगे जिनको प्रशांत से शिकायत, मनमुटाव है। बात स्वाभिमान तक पहुँच जाती है। रिश्तों की डोरियाँ खिचने लगती हैं।
कहानी 'हैंडओवर' का कथानक बुनने के लिए कहानीकार को विशेष बधाई। क्योंकि हम जैसे कितने ही लोग अखबारों में आए दिन इस तरह की घटनाएं व इन पर विवरण पढ़़ते हैं इन घटनाओं में आये पात्र जीवित हैं और समाज व राजनीति में हो रहे अत्याचार को झेल रहे हैं पर हम उस पर इतनी देर ठहर कर सोच भी नहीं सकते कि उन पात्रों का जीवन कैसा होगा इन घटनाओं का उन पर क्या प्रभाव पड़ता होगा एक सच्ची घटना को लेकर एक काल्पनिक संसार की रचना कर देना ही लेखक की कसौटी है झम्मन का किरदार किस कदर एक अभिनेता की ज़िंदगी में घटी घटना से प्रभावित होता है कैसे उसकी ज़िंदगी इंतजार और दर्द में झूल रही है यह तो कहानी पढ़कर ही देखा जा सकता है। बाजार नियंत्रित मानसिकता के कारण ही समर्थ वर्ग गुनाह करके भी आजाद घूमता है और पीड़ित वर्ग बेगुनाह होते हुए भी सजा जैसी जिंदगी जी रहा है। राजनीति में घोटाले अब प्रतिष्ठा पा चुके हैं कहीं विरोध की कोई आवाज नहीं जैसे अन्याय और अत्याचार को स्वीकृति मिल गई हो। यही लेखक का दर्द है। ऐसे समय में मौन का टूटना जरुरी है परंतु किसी भी बड़े घोटालेबाज को सजा मिलती नहीं दिखती। करोड़ों की फिल्में हीरो अभिनेता के कारण अटक जाती हैं। इसीलिए, इन अभिनेताओं को सजा न हो इसका बंदोबस्त कंपनियां जी जान से करती हैं। बेगुनाहों की मौत के बाद भी इन पर केस के फैसले सालों-साल नहीं आते। गुनहगार अपने मज़े से गुजर कर रहे हैं। झम्मन जैसे लोग बेगुनाह होते हुए भी इन लोगों के चक्कर में फँस जाते हैं। ओर अंत में मौत को गले लगा लेते हैं। भरपूर संवेदना है इस कहानी में।
एक कहानी 'फ़ेसबुक 2050' सोशल मीडिया को केंद्र में रखकर कथानक बुना गया है इस में बिछड़ा हुआ प्रेम फ़ेसबुक के माध्यम से मिलता है परंतु तब तक बहुत देर हो जाती है यह कहानी यथार्थ कम होकर भावुकता का कुछ अतिरेक कही जा सकती है। 2050 में आज के जैसे ही उद्धात्त प्रेम की परिकल्पना करना एक कल्पना ही लगती है परंतु जब देखते हैं आज "उसने कहा था" कहानी के 102 वर्ष बाद भी 'प्रेम' कहानी के तौर पर स्थापित कहानी है और समाज में भी उसका कुछ अंश ही सही प्रेम बचा हुआ है तो ईश्वर से कामना है कि लेखक की परिकल्पना में ही सही प्रेम को बचाए रखें स्वार्थी समय से।
एक महत्वपूर्ण कहानी संग्रह की है 'मैत्रेयी' जो पूर्णतः एक नारी पात्र पर केंद्रित है। मैत्रेयी कहानी की नायिका है या खलनायिका है यह तो आप पढ़ कर ही निर्धारित कीजिए। वह अपने प्यार हेमंत को कुंडली मिलाने जैसे दकियानुसी कारण से छोड़ने को तैयार नहीं उसकी ज़िद के आगे उस की इकलौती अभिभावक माँ व हेमंत के माता-पिता झुक जाते हैं। यहाँ तक कहानी बहुत ही सुखद है। हेमंत मैत्रेयी के प्रेम का पल्लवित होना बहुत सहजता से और ठहर कर लिखा गया है। यह तो अबीर की विशेषता ही है कि वह हर पहलू पर बहुत तन्मयता से लिखते हैं।
मैत्रेयी अपनी माँ को छोटी उम्र से ही संघर्षरत देखती है। वह बहुत छोटी थी तभी उसके पिता का देहांत हो जाता है, अकेली माँ नौकरी करती है बेटी को पढ़ाती है। किसी का सहारा नहीं उसे बेटी के कारण वह दूसरा विवाह भी नहीं करती। मैत्रैयी के अचेतन में शायद कहीं न कहीं माँ का अकेलापन या समाज का यह रूप है कि विधवा विवाह को प्रतिष्ठा नहीं देता है। किसी कारण से उसकी यह सोच पक्की हो गई है कि वह अपने शहीद पति के अंश को भी जन्म नहीं देना चाहती। उसकी माँ उसे स्वार्थी तक कहती है। समझाती है। लेकिन इन सब भावनाओं को तिलांजलि दे कर वह अपनी कोख में पल रहे हेमंत के अंश को जन्म नहीं देकर कोख़ से हटा देती है। इस निर्मम स्तर तक नारी का चले जाना व्यथित करता है। हेमंत के माता-पिता जिन्होंने अपना जवान बेटा खोया है मैत्रियी के इस व्यवहार से आहत हैं। लेकिन इसके लिए उसकी मां को जिम्मेदार नहीं मानते। बाद में जब मैत्रयी को भूल का एहसास होता है वह पछतावा करती है। मैत्रयी के अंदर की स्त्री का व्यवहार पाठक को आंदोलित करता है पर वह इसे स्वार्थ कहे या परिस्थिति? इस तरह न मैत्रयी को थोथे आदर्शों की वाहक बनाया है न परिवार को बेवजह कोसने वाला।
कहानी 'मुक्ति' कर्मों के अकाउंट में अच्छे कर्म जमा करने व बुरे कर्मों को कम करते जाने की अवधारणा को लिए हुए है। कहानी नायक सुयोग को केंद्र में रख कर लिखी गई है जो पिता व ताऊ के जमीन के झगड़ों में पिता को खो चुका है। अपनी करनी को भुगत चुके ताऊ के अंतिम समय में सहारा देकर नफरतों से ऊपर उठता है और ताऊ के अच्छाई के अकाउंट को कम कर देता है और अपनी अच्छाइयों का अकाउंट बढा लेता है।
भाई-भाई के बीच बंटवारे को लेकर हुई वैमनस्यता के चलते एक भाई दूसरे भाई की हत्या कर देता है यह बहुत घिनौना समय है, नैतिक मूल्यों का पतन पारिवारिक भावनाओं का, परिवार का खत्म होना, मानवता की समाप्ति व सम्वेदनाओं के क्षरण का प्रतीक है।
'प्रवासन' कहानी - कोई अधिकारी अपनी ईमानदारी पर अटल रहे तो महकमे के बड़े लोगों को परेशानी हो जाती है वह एक शरीफ इंसान को तालाब की गंदी मछली बनाने पर कैसे मजबूर करते हैं यह हम प्रवासन कहानी पढ़ कर समझ सकते हैं।
'वीडियो' कहानी में कस्बे के जीवन का सुंदर वर्णन है। दशहरे की धूम-धाम से शुरू हुई कहानी अजय और हरीश दो दोस्तों की कहानी भी है शिक्षक के गुरूतर कर्तव्यों से शिक्षक का कर्तव्यच्युत होना (अजय के पिता द्वारा हरीश के भाई को जान बूझकर फेल कर देना) भी इस कहानी के माध्यम से देख सकते हैं। जिस तरह एक डॉक्टर का कर्तव्य मरीज को ठीक करना है। वैसे ही एक अध्यापक की भी बड़ी जिम्मेदारी है कि वह अपने शिष्यों के साथ न्याय करे, परन्तु यहाँ हम पाते हैं कि अजय के पिता ऐसा नहीं कर पाते। कारण कि हमारी सोच में वर्गभेद की जड़ें बुरी तरह पसरी हुई हैं। यह एक सामाजिक व्यवस्था पर बड़ा सवाल है साथ ही शिक्षा व्यवस्था पर भी गंभीरता से बात करने का भी मसअला देती है। समाज में वर्ग भेद के कारण ही हरीश का भाई नरेश आगे नहीं बढ़ पाया। यहाँ कहानी सवाल उठाती है, यही इस कहानी की सार्थकता है। यह वर्गभेद का बवंडर दो मित्रों के मन में उठता है, वापस भी बैठता है पर उससे उठी धूल मन पर भी जमती है। कहीं न कहीं सब कुछ वैसा ही नहीं रह जाता।
“झाड़ू लगाने के कारण, प्रांगण में उठा धूल का बवंडर एक बार फिर उठा और प्रांगण में लगे पौधों की स्वस्छ पत्तियों पर पसर गया।” (पृ.१५५ )
'नानी' ऐसा किरदार है जो वास्तविक जीवन में भी हम सब को बहुत प्रिय होता है बचपन की बहुत याद आने से जुड़ी रहती है नानी कहानी में नानी का जो रूप सामने आता है इसकी पुष्टि करता है। नानी बचपन का एक अभिन्न हिस्सा होती है। अभी तक शहरों की समस्याओं पर शहरी माहौल पर बात करते रहे हैं इस कहानी में हम पहली बार अबीर की लेखनी से गांव से परिचित होते हैं। वह भी आपसे कोई तीस साल पहले वाले गाँव क्योंकि 'नानी' कहानी का कथानक है लेखक ने 1987 के समय का बताया है 8 साल का संजू गाँव-ननिहाल को जिस दृष्टि से देखता है लगता है, संजू में लेखक खुद को ही देख रहे हों। अपना ही देखा हुआ अपना ही जिया हुआ प्रकट हो रहा है। संजू के माध्यम से यहां लेखक का मन गांव की प्रकृति के सानिध्य में खूब रमा है। सवारियाँ ढोते बैलों के गले की घंटियां हंसिया दरांत लिए खेतों में काम करते किसान, सुहानी भोर, तारों भरी रातें, बबूल आम के पेड़, गोबर लीपा आंगन, अमरुद ,अनार के पेड़। गांव की प्रकृति को दिखाने के बाद कहानी के माध्यम से लेखक ने गांव में प्रचलित जादू-टोना, भूत-प्रेत को मानने वाली घटनाओं की तरफ भी ध्यान खींचा है। संजू को ननिहाल में नानी नहीं मिलती। 8 साल का बालक कारण भी समझ नहीं पाता कि मामी और नानी में अनबन के कारण नानी कहीं चली गई है। नानी को याद करते हुए पहले की घटनाओं का अच्छा स्थान मिला है जैसे होली की घटना संजू का दीवार के ऊपर से एक चेहरा देखना और उसे नानी का चेहरा बताना नानी के प्रति संजू का असीम लगाव ही है।
सिर्री संग्रह के बाद भी कुछ कहानियाँ अबीर जी की पढ़ने को मिली हैं, निरन्तर प्रगति देख कहानी जगत का भविष्य समृद्ध दिख रहा है।
सिर्री में अबीर ने एक बहुत बड़ी दुनिया से मिलवाया। इसके कुछ पात्र हमारी सोच में जगह बना गये। सुनील (होम लोन से परेशान), मानस ( रिंगटोन बनी सांसत), आशीष ( गुटखे का विज्ञापन को लेकर असन्तुष्ट) ये किसी न किसी रूप में हमारे आसपास ही रहते हैं, बस नाम इनके बदलते रहते हैं। अभी भी अरमान भाई सरीखे कई पात्र गुनाह करके भी खुले घूम रहे हैं। कई अनोखेलाल पछतावे में जलते हुए मुक्ति का मार्ग जोह रहे हैं। कई आशुतोष, प्रशांत अंतर्द्वन्द से जूझ रहे हैं। अपनी अंतरात्मा को कुचल आशीष जैसे इंजीनियर गुटखे का विज्ञापन बना रहे हैं। एक हलचल सिर्री ने हमारे अंदर मचा रखी है। अबीर जी के इस मेहनतपूर्ण कार्य को पाठकों की सराहना का प्रतिसाद मिले इन्हीं शुभकामनाओं के साथ पहले संग्रह की बहुत-बहुत बधाई।
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Published on August 15, 2017 00:08
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