फॉल इन: भीष्ट-अभीष्ट
भीष्ट-अभीष्ट सीखने-सिखाने का पूरा तंत्र जिसे हम ‘स्कूल’ कहते हैं इस अवधारणा पर चल रहा है कि गुरु को कभी भी पूरा ज्ञान अपने शिष्य को नहीं देना चाहिए। बिल्ली मौसी भी एक पैंतरा अपने लिए बचा कर रखती है। आधुनिक शिक्षा तंत्र में जिस तरह से गुरुओं का निर्माण हो रहा है, यह मानना खतरनाक है कि वे खुद ‘बीस’ देने की दक्षता रखते हैं। गलती से, गुरु अगर ‘बीस’ है भी तो अव्वल तो इस धारणा के चलते वह बीस देना नहीं चाहता; देना भी चाहे तो अक्सर ऐसे शिष्य नहीं मिलते जो ‘बीस के बीस’ लेने की इच्छा रखें। गुरु बीस दे सकता है पर वह उन्नीस ही दे पाता है और शिष्य अठारह ही ले पाता है। यही शिष्य जब गुरु बनता है तो चक्र अठारह से शुरू करता है। वह अठारह दे सकता है पर सत्रह ही दे पाता है और लेने वाला शिष्य सिर्फ सोलह ही ग्रहण कर पाता है। इस दुष्चक्र में फँसी शिक्षा व्यवस्था को ‘शून्य’ तक पहुँचने में नौ पीढ़ियाँ या दो सौ साल का समय लगता है। अगले पचास सालों में हम जरूर शून्य तक पहुँच जाएँगे। युगल रचनात्मकता शिक्षा व्यवस्था का अनिवार्य पहलू होनी चाहिए। गुरु और शिष्य के बीच ऐसी केमिस्ट्री हो कि गुरु के बीस शिष्य के शून्य के साथ मिलकर दोनों के इक्कीस हो जाएँ। गुरु के पास अनुभव है, ज्ञान है और शिष्य के पास जिज्ञासा, उमंग और पागलपन। ये दोनों मिलकर कुछ नया रच सकते हैं। यह रचनात्मकता गुरु और शिष्य दोनों को इक्कीस कर सकती है। शास्त्रार्थ, चुनौतियाँ और शरारतें उस उमंग और पागलपन का हिस्सा हैं जिन्हें काबू करना मुश्किल तो है पर है रचनात्मक। शिक्षा व्यवस्था में तालियाँ दोनों हाथ से बजनी चाहिए...यह बीस को बीस रखने की स्थिति है। अगर एक हाथ से बजें तो समझ लीजिए कि बीस का इक्कीस हो रहा है। गुरु और शिष्य दोनों के लिए। देश के अंतर्राष्ट्रीय समझौते बच्चों की सेहत पर बुरा असर डाल रहे थे। ओमान और नाइजीरिया जैसे देशों के साथ अध्यापकों के आदान-प्रदान वाली नीतियों के चलते स्कूल के कई शिक्षक बाहर चले गए थे। उनकी जगह नए शिक्षक आते थे पर उनके आने से तकलीफ नहीं थी। तकलीफ थी तो ओमान जाने वाले शिक्षकों के वापस आने से। डीडी शर्मा जब तक हिंदी पढ़ाने के लिए ओमान से वापस आए तो स्कूल की छः पीढ़ियाँ विदा हो चुकी थीं। आठवीं क्लास में एक दिन वे अचानक आकर हमें हिंदी पढ़ाने लगे। मिल्क-ब्रेक के बाद का पीरियड था और पेट में पैटीज का कार्बोहायड्रेट हल्की-हल्की खुमारी में बदल रहा था। क्लास में पीछे बैठे अभी मैंने पहली जम्हाई तोड़ी ही थी कि वह डग भरते हुए, नथुने फुलाते हुए और अपनी रौबीली आवाज में ‘यू डफर...यू इडियट’ चिल्लाते हुए मेरी ओर बढ़े। मैं समझता था कि सिर्फ नींद का झोंका लेने की सजा है, जो कि मैंने नहीं लिया था। मुझे लगा कि बगल में बैठे अमोल ने लिया होगा। उसने मुझे और मैंने उसे देखा कि तभी एक थप्पड़ तड़ाक से मेरे गाल पर पड़ा। अमिताभ बच्चन से दो इंच ऊँचे कद वाले शर्मा जी ने सँभलने तक का अवसर नहीं दिया और दो-तीन कदमों में ही मेरी मेज तक पहुँच गए। मन ने बहुत चाहा कि तसल्ली कर ले। शायद सर से पहचानने में कोई गलती हो गई होगी। लंच टाइम में मिश्र भाईसाब ने बताया तब जाकर विश्वास हुआ कि यहाँ सिर्फ सोने की नहीं बल्कि जम्हाई लेने की भी सज़ा है। पड़ोसी को कह दो तो वह नींद से जगा सकता है पर जम्हाई से कैसे जगाएगा, वह कौन बताएगा? आठवीं क्लास तक संस्कृत कोर्स का हिस्सा थी। हिंदी और संस्कृत के सम्भवतः उस समय के सर्वश्रेष्ठ अध्यापक थे श्री वेद व्रत दीक्षित जिन्हें हम प्यार से ‘बोदी’ सर कहते थे। वे कद में छोटे थे, उम्र में बड़े थे और कौशल में बहुत बड़े। वे उन कुछेक अध्यापकों में से थे जो आधुनिकता की चकाचौंध वाले समय में भी सिर पर चोटी धारण करते थे। देखने से गाय की तरह सरल और चेहरा इतना संवादी कि उनके दो मिनट के दर्शन पिछले दो दिन का हाल बयान कर देते थे। मेरा उनसे पहला परिचय सातवीं क्लास में ही हो गया था। भूगोल का पीरियड था और भूगोल के अध्यापक नहीं आए थे। उनकी जगह बोदी सर का ‘अरेंजमेंट पीरियड’ था। वे न पढ़ा रहे थे और न पढ़ाना चाहते थे। सिर्फ बच्चों की निगरानी कर रहे थे कि सब कॉपी-किताबों में लगे रहे। अचानक उन्हें जाने क्या सूझी कि एक प्रश्न पूछ लिया। “कोई बता सकता है आज कौन सा देश स्वतंत्र हो रहा है?” पूरी क्लास चुप थी। फिर उन्होंने बताया कि उस दिन अफ्रीकी देश नामीबिया को स्वतंत्र घोषित किया गया था। मुझे लगा कि यह अखबार का समाचार है इसलिए उन्हें याद है। पर नहीं। उन्हें इसके अलावा भी नामीबिया और अफ्रीका के बारे में बहुत कुछ मालूम था। उन्होंने अफ्रीका, खासकर दक्षिण अफ्रीका और नेल्सन मंडेला का पूरा इतिहास खोलकर रख दिया। मैं चकित था कि हिंदी और संस्कृत के अध्यापक को इतिहास-भूगोल का इतना ज्ञान कैसे हो सकता है। वह एक संस्मरण आज भी जस का तस बसा हुआ है। आज जबकि हालात ऐसे हैं कि अध्यापक अपने विषय को ठीक से नहीं जानते, दूसरे विषय को जानने समझने की बात ही कहाँ रह जाती है। ये छोटी-छोटी सी बातें सिर्फ प्रभावित नहीं करतीं बल्कि प्रेरित भी करती हैं। पंकज दुबे को भला नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से क्या लेना देना? पंकज दुबे नाइंथ बी का वह हीरा था जो खदानों में नहीं बल्कि नैनीताल की हसीन पहाड़ियों में ही पाया जा सकता था। सालों तक यह राज फ़ाश नहीं हुआ कि वह उसे घर से ही तराश कर भेजा गया था या पिछले तीन सालों में वहीं रहकर उसने चमक पायी थी। आठवीं क्लास में जब दीक्षित जी उस सेक्शन में संस्कृत पढ़ा रहे थे तब उसकी प्रतिभा ठीक तरह से नहीं उभरी थी। इससे ज़ाहिर होता है कि उसने चमक तो वहीं रहकर हासिल की थी। वह एकदम निडर, साहसी और बिंदास लड़का था। बोदी सर से उसका छत्तीस का आंकड़ा आठवीं में ही फिट हो गया था पर उस एक साल में उसकी चमक बहुत कम थी। अक्सर बोदी सर का पलड़ा ही भारी रहता था। सर ने भी उसकी प्रतिभा को भली-भाँति पहचान लिया था। बोदी सर के अन्दर बौध्दिक चातुर्य कूट-कूट कर भरा था। शरीर से जरूर कमज़ोर थे पर किसी की भी, चाहे वह कोई विद्यार्थी हो, सहयोगी अध्यापक हो या फिर खुद प्रिंसिपल क्यों न हो, इतनी मजाल नहीं थी कि उन्हें शास्त्रार्थ में पटखनी दे सके। जब कभी ऐसा लगे के वे हार रहे हैं तो समझ लीजिए कि वसीम अकरम का बाउंसर आने वाला है जिसका तोड़ पंकज दुबे तो क्या उसके पिताजी के पास भी नहीं होगा। जब वे पेपर सेट करते थे तो अक्सर एक या दो ‘आउट ऑफ़ सिलेबस’ बाउंसर जरूर डालते थे। संस्कृत को हम लोग अक्सर अच्छे नंबर लाने वाले विषय के रूप में देखते थे – माइलेज देने वाला। बोदी सर ने हर बार, जब-जब पेपर सेट किया, संस्कृत के बारे में हमारे ‘माइलेज-मिथक’ को तोड़ा था। वार्षिक परीक्षा के दौरान हिंदी से संस्कृत अनुवाद के लिए पाँच वाक्य दिए गए थे। ज्यादातर लोगों ने चार ठीक-ठाक कर लिए थे पर पाँचवें में सबकी नाव अटक गई। वह पाँचवां वाक्य था, ‘कमल कीचड़ में खिलता है।‘ बाकी सब ठीक था पर ‘कीचड़’ की संस्कृत किसी को नहीं आती थी। अब संस्कृत जैसी ज़हीन भाषा में कीचड़ का क्या काम? पर नहीं। अकरम का बाउंसर। जयादातर लोगों ने हथियार डाल दिए कि चलो अठानवे न सही पिच्यानवे नंबर मिल जाएँगे। पंकज दुबे ऐसा कोई तोप नहीं था कि इन तीन नंबरों पर उसका नोबेल पुरुस्कार अटका हो। हीरे की भी आखिर अपनी शान होती है। असली हीरा तो वही है जो अकरम के बाउंसर पर छक्के मार दे। बोदी सर परीक्षा के दौरान राउंड ले रहे थे कि कहीं किसी को दिक्कत आ रही हो तो आसान कर दें। वे मुस्कुराते हुए राउंड लेते थे और ये बिलकुल सच नहीं था कि वे किसी की दिक्कत आसान करने की मंशा रखते थे। राउंड लेते हुए वे पंकज दुबे के कमरे में पहुँचे। उनके कुछ बोलने से पहले ही भाई ने भरे-पूरे आत्मविश्वास से हाथ ऊपर किया। सर ने अपनी कुटिल मुस्कान अपनी ग्रे मूछों के झुरमुट में छिपा ली। “क्या बात है? बोलो।“ अकरम का धीमे रन अप के बाद पटका हुआ बाउंसर था। धीमा रन अप देख कर बल्लेबाज को लगे कि वह उसे सम्मान दे रहा है। “सर ये अनुवाद के एक वाक्य में आपने ‘कीचड़’ शब्द का प्रयोग किया है। ये ‘कीचड़’ का संस्कृत तो ....”ये परीक्षाओं में भीख माँगने की अदा होती है। शंका दूर नहीं करनी होती, दरअसल, उत्तर ही पूछना होता है पर ऐसे भीख माँग नहीं सकते न। इसलिए उसे ‘शंका’ के पैकेट में लपेट कर प्रस्तुत किया जाता है। साहूकार कभी-कभी इतना ढीठ होता है कि वह समझ जाता है कि भिक्षुक अपने पात्र में उत्तर चाहता है; फिर भी वह बस तीन-चार शब्द बोलकर अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर कर देता है। अध्यापक तब एक दूध पीते बच्चे सा मासूम लगता है। “हाँ भाई! पूछो क्या पूछना है।““नहीं सर बस ये पूछना है कि ये शब्द कहीं गलती से तो नहीं छप गया....”“नहीं....कोई गलती नहीं है। प्रश्न एकदम दुरुस्त है। वैसे बाकी चार अनुवाद कर लिए?”“नहीं सर वो तो वैसे भी नहीं होने। एक इसी का सहारा था।““पाजी कहीं के!““सर कुछ तो बता दीजिए? क्या लिखें?”भिक्षुक अब नंगई पर उतर आया है और वह कुंठित हो रहा है कि किसी भी तरह भिक्षा-पात्र में एकाध नंबर गिर जाए।“अपना नाम लिख दो!”सर ने मुँह फेरा और पैर पटकते हुए बाहर निकल गए। आठवीं क्लास की संस्कृत को चकमा दे पंकज दुबे सफलतापूर्वक नौवीं में आ गया था। नौवीं क्लास के पहले ही दिन हिंदी की क्लास में तेंदुए का सामना शिकारी से हो गया। नाइंथ बी का क्लासरूम बड़ा था। ऑडिटोरियम की ओर रमन ब्लॉक में दोनों तलों पर चार कमरे जोड़े गए थे। ये कमरे दरअसल प्रयोगशाला के उद्देश्य से बनाए गए थे। क्लासरूम के फ़र्श पर ढकी हुई नालियाँ थीं। उत्तर की दिशा में दो छोटे-छोटे कमरे थे जो लैब का सामान रखने के लिए बनाए गए थे। बच्चों की कुर्सियाँ और मेजें भर लेने के बाद भी क्लासरूम का बड़ा हिस्सा खाली रहता था। खाली पीरियड के दौरान या फिर प्रेप क्लासेज के दौरान यह खाली जगह क्रिकेट खेलने, हॉकी खेलने और गुत्थम-गुत्था करने के काम आती थी। यूँ तो हर उम्र की अपनी जरूरतें होती हैं और उन जरूरतों का अपना महत्त्व पर इस किशोर उम्र में, जब होर्मोन्स व्यक्तित्व को थोड़ा सजग कर देते हैं, किशोर ऊर्जा को दिशा मिलना बेहद जरूरी हो जाता है। जवानी भोया अब अपने नाम से इस हद तक चिढ़ जाते थे कि चिढ़ाने वाले को दौड़ा-दौड़ा कर मारना चाहते थे। अब मन आसानी से खुद को बुद्धू नहीं मानता था। मेल-ईगो इसी उम्र में अपना सिर उठाता है। दूसरी ओर, यह उम्र अपनी उन्मुक्तता के साथ प्रयोग भी करना चाहती है। वह बहादुर दिखना चाहती है – न सिर्फ ब्यूटीफुल बल्कि बोल्ड भी। आजकल के वीडियो गेम्स की तरह शरारतों के ‘लेवल’ होते थे। अच्छा! उसने भवाली भागकर दो फिल्में देखीं? हम लोग तीन देखेंगे। उसने क्लास में सर का निकनेम लिया? लो, हम परीक्षा में लिख के आएँगे। एक से बढ़कर एक होशियारी दिखाना मनोविज्ञान बन चुका था। पुराने सीनियर्स के कारनामे सुनकर प्रेरणा मिलती थी। ये जाने बगैर कि वे सब किंवदंतियाँ सच थीं या झूठ, हम बराबरी की होड़ में दौड़ रहे थे। सौभाग्य से, इन बदलावों को ज्यादातर टीचर्स समझते थे और अपने तौर-तरीकों में यथोचित बदलाव भी करते थे। नौवीं और नौवीं से बड़े बच्चों पर अध्यापकों ने हाथ उठाना बंद कर दिया था। ये भी ज़रूरी था कि अध्यापकों का डर बना रहे वरना बच्चे जोश में क्या कुछ नहीं कर गुजरना चाहते।एक मुस्कान से बोदी सर ने सबका स्वागत किया। हालांकि बात थोड़ी पुरानी हो गई थी फिर भी ये सवाल सर ने खुद ही पूछ लिया। “मालूम चला कि कीचड़ को संस्कृत में क्या कहते हैं?“पहले पंकज के सिर्फ कान खड़े थे, अब वह पूरा का पूरा अपनी सीट पर खड़ा हो गया। “सर, वह किसी को पता नहीं था और किसी ने पता करने की कोशिश भी नहीं की।“पंकज को खड़ा देख बोदी सर भी रंग में आ गए। “आपको तो बताया था हमने, आपने फिर भी नहीं लिखा।““हाँ, बताया तो था पर उस समय हमको लगा कि अपना नाम ‘कीचड़’ रखने से अच्छा है कि हम फेल हो जाएँ।““कमल कीचड़ में खिलता है और इसीलिए उसे पंकज कहा जाता है। ‘पंक’ का अर्थ होता है कीचड़ और ‘ज’ का अर्थ होता है ‘जन्म’।“क्लास उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी। पंकज समझ गया कि उसकी किरकिरी हो रही है। उसने जवाबी हमले की तैयारी शुरू कर दी । “एक बात बताइये सर? क्या ये क़ानून है कि हर नाम का कुछ मतलब हो?”क्लास के बाकी बच्चे बड़ी तन्मयता के साथ शेर और मेमने का वार्तालाप सुन रहे थे। वे जानते थे कि अंत में मेमने को ही शेर के मुँह में जाना है। हर बार...तकरीबन हर बार कुतूहल सिर्फ इस बात का होता था कि इस बार के वार्तालाप में शेर कौन बनता है और मेमना कौन। इस लिहाज से ‘बोदी’ सर के लिए यह नूरा-कुश्ती इतनी भी आसान न थी। “बिलकुल है।““अगर न हुआ तो....? अच्छा बताइये कि माइकल एंजेलो के नाम का क्या मतलब है।”पंकज की गुगली से बोदी सर बेक फ़ुट पर। “कोई न कोई अर्थ ज़रूर होगा...। मैं कल तक आपको सही-सही उत्तर बता पाऊँगा।““अच्छा तो ये बताइए कि नाना पाटेकर में ‘पाटेकर’ का क्या अर्थ है....”“और कुलभूषण खरबंदा में ‘खरबंदा’ का क्या अर्थ है..... बताइये।सारी क्लास के बच्चे मुँह पर हाथ धरे हँस रहे थे। पंकज दुबे ने बोदी सर को चित करके पहला राउंड जीत लिया था। “धत...पाजी कहीं का।“ इतना कहते हुए सर ने आत्म समर्पण कर दिया। सर अपनी उम्र के अनुसार ही सज्जन थे। कहते हैं कि एक समय में वे थोड़ा बहुत हूल दे भी देते थे। बच्चों के सिर और गर्दन में पीछे की तरफ जो जगह होती है, वे अक्सर वहाँ टपली दे दिया करते थे। इधर कुछ दिनों से संभवतः अपने स्वास्थ्य के चलते, उनके बहुत सारे फंक्शन स्थगित थे। बोदी सर और पंकज के बीच शास्त्रार्थ उस दिन से पूरी क्लास का प्रिय शगल बन गया। हालांकि ऐसे अवसर कम ही आते थे पर जब भी आते थे उन दोनों के बीच की जुगलबंदी देखते ही बनती थी। ऐसे ही एक दिन सर जब क्लास में घुसे तो पंकज सुरेश मिश्र के पीछे दौड़ रहा था। मेज-कुर्सियों की तीन पंक्तियाँ थीं। दो दीवार के किनारे और एक बीच में। बीच वाली पंक्ति के चारों ओर पंकज सुर्री का पीछा कर रहा था। “ये क्या हो रहा है, भई?”“सर ये क्रॉस-कंट्री की प्रैक्टिस हो रही है।“ किसी ने दबे मुँह से उत्तर दिया। “सर मुझे इसने घुमा के थप्पड़ मारा?” वे दोनों दौड़ना छोड़कर अपनी सीट पर बैठ गए थे। “क्यों भई? तुमने इसे क्यों थप्पड़ मारा?”“सर मेरा पेन नीचे गिर गया था। मैंने इसे उठाने के लिए कहा तो इसने जान-बूझ कर कुर्सी का पाया पेन के ऊपर रख दिया। मेरा नया रेनौल्ड का पेन तोड़ दिया सर।““कहा न? जरूर तुमने कोई शैतानी की होगी। एक हाथ से ताली नहीं बजती।““सर ये झूठ बोल रहा है। इसका पेन मैंने नहीं तोड़ा। ठीक से कसने के चक्कर में इसने खुद ही तोड़ लिया था। और किसने कहा कि एक हाथ से ताली नहीं बजती?”“पंकज, मैं बुद्धू लोगों से बहस नहीं करता। एक हाथ से कभी ताली बजते हुए देखी है तुमने?”“अगर बज गई तो?”“नहीं बजती....” वह थोड़ा अधीर होते हुए बोले।“अगर बजी तो?”“दिखाओ! तुम बजाकर दिखा सकते हो?”तड़.. तड़.. तड़.. तड़.. तड़.. तड़.. तड़.. तड़पूरा क्लासरूम ताली की आवाज से गूँज उठा। उसने एक असंभव कार्य कर दिखाया था और हिन्दी के सदियों पुराने मुहावरे को एक पल में ध्वस्त कर दिया था। उसका दाहिना हाथ इतना लचीला था कि वह घुमाकर अपनी हथेली को अपनी भुजा पर पटक सकता था। हथेली और भुजा के इस कृत्रिम संगम की ध्वनि भी करतल ध्वनि की तरह ही थी। बच्चे हँस रहे थे और बोदी सर मन ही मन पंकज की कलाकारियों से खीझ रहे थे। “’अभीष्ट’ का मतलब समझते हो?”यह अकरम वाला बाउंसर था। क्लास में किसी को नहीं पता था यह कौन सी प्रजाति है। “गणित में पढ़ा होगा? भागफल...इच्छित उत्तर....वह ‘अभीष्ट’ होता है। मैं यूँ ही सोच रहा था कि इसका विलोम क्या होता होगा?““’भीष्ट’ सर!” सुरेश मिश्र ने तड़ से उत्तर दिया। “हाँ पर ‘भीष्ट’ शब्द की उत्पत्ति अभी हुई नहीं है। जानते हो क्यों? क्योंकि तुम्हारे जैसा ‘भीष्ट’ अजूबा नहीं मिला था। अब मिल गया है।” उस दिन से पंकज ‘भीष्ट’ हो गया और उसका ‘लंगोटिया यार’ सुरेश ‘अभीष्ट’ हो गया।
Published on April 25, 2018 06:28
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