फॉल इन: माल है तो ताल है
पहाङी बच्चों और मैदानी बच्चों की रूपरेखा जितनी अलग थी, उतनी सोची नहीं थी।निरंजन मर्तोलिया और सुनील कुमार एक ही जीरोक्स मशीन से निकलीं अलग-अलग कॉपी थे। एक गहरे शेड का, दूसरा हल्के शेड का। बहुत हल्के शेड की जीरोक्स में कागज का रंग उजला रहता है पर उसकी लिखावट समझ नहीं आती, अक्षर धुँधले हो जाते हैं। गहरे शेड की जीरोक्स में कागज जरूर करिया हो जाता है पर शब्दों की लिखाई उभर कर आती है। मर्तोलिया के चेहरे का रंग हल्के जीरोक्स के कागज की तरह उजला था पर उसके शब्द, नाक, कान और आँखें - धुँधले शब्दों की तरह थे, बिल्कुल दिखाई नहीं देते थे। एकदम सपाट। सुनील कुमार का रंग जरूर गहरे जीरोक्स की तरह था पर उसके नाक, कान सब समझ में आते थे। गाँव की कमजोर नजर वाली बहुत बूढ़ी औरतें जो छोटे बच्चों का परिचय चेहरा टटोल कर मुकम्मल करती हैं, पता नहीं मर्तोलिया का परिचय कैसे पढ़ पाती होंगी। जीरोक्स का एक तीसरा टाइप भी था - राहुल प्रधान। वह उन अजूबे संयोगों में से एक था जिसका जीरोक्स गहरे शेड का था पर शब्द फिर भी पढ़ने में नहीं आते थे।विंग के आखिर में, बाथरूम की तरफ वाले कमरे में दो अपॉइंटमेंट रह रहे थे – सतोष वर्मा सर और एम के सिंह सर। एम के सिंह सर का कद बहुत लम्बा था और संतोष वर्मा सर का बहुत छोटा। दोनों ही बहुत शांत रहने वाले थे, अपनी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहने वाले। उन्हें ज्यादा परवाह नहीं रहती थी कि विंग में कौन क्या कर रहा है; लोग पीटी में जा रहे हैं कि नहीं; कौन मकड़ा है और कौन गऊ। कभी-कभी लगता है कि जब वे रात को पूरा विंग क्रॉस कर के अपने कमरे में जाते थे तो उन्हें चौबीस लोगों की नज़रों के सामने से गुजरते समय दबाव महसूस होता था। कुछ लोग इतने कलाकार थे कि उन्हें अपने दाँत चियारने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं होती थी। वे यूँ ही किसी पर भी, कहीं भी दाँत चियार सकते थे। कई बार वे जान-बूझ कर, जब एम के सिंह सर या फिर संतोष वर्मा सर विंग पार कर के अपने कमरे के सामने पहुँच चुके होते थे तो कोई अकारण हँसने लगते। मेरा बिस्तर उनके कमरे वाले छोर की तरफ ही था। अपने बिस्तर में बैठे हुए मुझे ये अहसास होता था कि वह निर्दयी हँसी जरूर सर ने सुन ली होगी। वे इसे जान-बूझ कर नज़रंदाज़ करते। एक बार संतोष वर्मा सर ने आवाज सुन ली, हँसते हुए वापस विंग में लौटे और पूछा कि क्या बात है. ‘तुम सब लोग इतना हँस क्यों रहे हो?’ अब इसका कोई उत्तर होता तब न दिया जाता। खैर वे चले गए। इस घटना के बाद लोगों की हँसी और भी रौद्र हो गई, उन्हें मज़ा आने लगा। और भी कई लोग इस ठिठोली का हिस्सा बन गए। मैं भी। अब वे जैसे ही अपने कमरे के सामने पहुँचते, हम लोग दहाड़ें मार कर हँसते। मुझे महसूस होता कि हम लोग सीधे-सादे अपॉइंटमेंट्स की सज्जनता का नाजायज़ फायदा उठा रहे हैं। एक दिन आखिर घड़ा भर गया और वही हुआ जिसका डर था। उस विंग में पहली बार ‘फॉल इन’ सुनाई दिया। संतोष वर्मा सर ने कड़ी चेतावनी देते हुए छोड़ दिया। पर लोग कुछ दिन ही शांत बैठे। फिर उनका वही सिलसिला। अंततः दोनों ने पूरी तरह से नज़रंदाज़ करना ही ठीक समझा। ये हमारी क्लास की थेथरई की शुरुआत थी। रात को सोते समय अगर आपने पाजामा पहना हो और किसी की नज़र आपके पाजामे के नाड़े पर हो, तो यह आपके लिए निश्चित रूप से खतरे की घंटी है। कुश हाउस में सीखी हुई बहुत सारी बातें मोहनजोदाड़ो की सभ्यता की तरह किशोरावस्था के बहाव में बह गई थीं। अब उनके खंडहर मात्र शेष रह गए थे। कुश हाउस में जहाँ नाईट सूट और गाउन पहनना अनिवार्य था, यहाँ नहीं था। जिसे जो मिलता था पहन कर सो जाता था। आज़ादी थी...और इस आज़ादी का लाभ अक्सर लोग थोड़ी और नींद जमा करने के लिए लिया करते थे। चूँकि सुबह उठकर पीटी किट पहनने में समय नष्ट होता था, लोग रात को ही पीटी किट पहन कर सोते थे। इससे साबुन-पानी का खर्च भी बच जाता था। नाईट सूट फैशन में था जरूर पर उसका चलन धीरे-धीरे कम हो गया था। बहुत कम लोग थे जिन्होंने नाईट सूट का दूसरा जोड़ा सिलवाया था। सीनियर हाउस में आने का एक और फायदा ये था कि रात के सोने के समय पर अब कोई पाबंदी नहीं थी। आप साढ़े नौ बजे का धारावाहिक देख कर सो सकते थे और मन करे तो रात के बारह बजे तक पढ़ाई कर सकते थे। हाँ, धमाचौकड़ी मचाने और आतंकवाद फैलाने का ‘ऑफीसियल’ समय साढ़े दस बजे का था। प्रांशु हमारी ही क्लास में था पर वह विंग 2 में रहता था। विंग 1 लव हाउस के लुटेरे गिरोह के कुछ सदस्य आ गए थे और अपना वर्चस्व जमाने में लगे हुए थे। छिट-पुट वारदातें कर चुके थे पर अभी इतना बड़ा हाथ नहीं मारा था कि राष्ट्रीय समाचार पत्र के मुखपृष्ठ पर जगह बना पाते। उसी क्लास में हमने अंग्रेजी समाचार पत्र पढ़ने का श्रीगणेश किया था। गुरुजन अक्सर कहते रहते थे कि कोई भी एक राष्ट्रीय समाचार पत्र रोज पढ़ना चाहिए। उनके ‘रोज’ का मतलब ‘रोजाना’ हो सकता है पर हमारे ‘रोज’ का अर्थ ‘सप्ताह में एक दिन’ ही होता था। वह भी शुक्रवार। क्योंकि शुक्रवार के दिन ही नई फिल्मों के पोस्टर राष्ट्रीय समाचार पत्र में छपते थे। रात के ग्यारह बजे थे। प्रांशु ने अपने बिस्तर में एक करवट ली तो उसके नाड़े का छोर गिरोह के सरगना मोगली की नज़र में आ गया। विंग के एक कोने में ट्यूबलाइट पतंगों के साथ आँख-मिचौली खेल रही थी। कभी पतंगे जल उठते थे तो कभी ट्यूब-लाइट बुझ जाती थी। कम रोशनी में, नींद से जागकर किसी टोही बाँह को देख पाना प्रांशु की आँखों के बस की बात नहीं थी। मोगली ने आहिस्ता से नाड़े का छोर पकड़ा और उसे बड़ी सावधानी से खींचने का प्रयास किया। नाड़े ने थोड़ा प्रतिरोध जरूर दिखाया था पर ज्योंही मोगली ने खींचने में ज़रा सी और शक्ति लगाई, नाड़ा खुलकर बाहर आ गया। मोगली नाड़े की लम्बाई देखकर निराश हो गया। नाड़े की लम्बाई में सिर्फ नाड़ा था और कुछ नहीं। बिस्तर की दूसरी ओर तोमर अपनी निगाहें जमाए हुए था। उसे वहाँ भी कुछ दिखाई न दिया। दोनों दम साधकर प्रांशु की अगली करवट की प्रतीक्षा करने लगे। धैर्यवान लुटेरा जैसे सही अवसर देखकर हमला करता है, वैसे ही दोनों लुटेरे अगले अवसर की तलाश में खड़े रहे। करीब पाँच मिनट बाद जब किसी के खाँसने की आवाज आई तो प्रांशु ने अगली करवट बदली। पीछे की ओर, नाड़े के खुले हुए हिस्से में तोमर को एक चाबी फँसी हुई नज़र आई। उसके चेहरे पर मुस्कान खिल गई। उसकी मुस्कान देखकर मोगली झटपट उसकी ओर आ गया। मोगली बिस्तर के पास ही बैठ गया और अपने हाथ की सफाई दिखाने लगा। इकलौती चाबी एक छोटे से छल्ले में पिरोई गई थी और उस छल्ले को नाड़े में फँसा लिया गया था। अगले दो-चार मिनट में, मोगली ने बड़ी होशियारी से उस छल्ले को घुमाकर वह चाबी पाजामे के नाड़े से बाहर निकाली। चाबी लेकर दोनों बॉक्स-रूम में घुसे और ‘प्रांशु श्रीवास्तव’ नाम का बक्सा ढूँढ़ने लगे। मिठाइयाँ, मेवे और चिवड़ा जो शायद प्रांशु की माँ ने उसके लिए रखवाए थे, ये सोचकर कि मेस का खाना अच्छा न लगे तो उनका बेटा ये सब चीजें खा सके, पल भर में लूट लिए गए। लुटेरों का अपना ईमान था। वे रॉबिन हुड के वंशज थे। खाने का माल उन सब लोगों में भी बाँटा गया जो उस समय जाग रहे थे। यह भी एक रिवाज़ था कि ईमानदारी से जितनी पेट में जगह है उतना ही खाओ। मुफ्त का माल समझ कर इतना न ठूँसो कि सुबह होने से पहले ही औंक दो। जो बच गया उसे अगले दिन के लिए रख लिया। अगले दिन, प्रांशु के सोने के पहले मोगली बचा हुआ चिवड़ा विंग 2 में बाँटने लगा। प्रांशु ने भी अपने हाथ में लिया और अपने नाड़े में फँसी बक्से की चाबी को इतराते हुए सहलाया और ‘धन्यवाद’ कहते हुए चिवड़ा खाने लगा। इस चिवड़े का स्वाद ठीक वैसा ही था जो उसकी माँ ने उसके लिए रखवाया था। ‘चिवड़े के स्वाद में ज्यादा फर्क नहीं होता’, उसने सोचा और चुभलाने लगा। पोहा बनाने वाले चावल में हल्दी, मिर्च, मूँगफली और कुछ अन्य चीजें मिलाकर बनने वाला चिवड़ा पूर्वी उत्तरप्रदेश का राष्ट्रीय आहार है। दक्षिण भारतीय उतनी इडली नहीं खाते जितना कि ये लोग चिवड़ा और सत्तू खाते हैं। प्रांशु बहुत ही नेक लड़का था। मोगली को वह बहुत धूर्त समझता था। उसे लगा जैसे किसी ने उसके यूँ ही कान भर दिए थे। मोगली कितना दयालु था। ‘मैंने इसे कभी अपनी कोई चीज खाने को नहीं दी और ये मुझे चिवड़ा खिला रहा है।‘ सोचकर वह ग्लानि से भर गया। “और है?” उसने मोगली से पूछा। “हाँ, है न। ये ले....और आराम से खा.....ड्राई फ्रूट्स भी थे पर ख़त्म हो गए। नहीं तो तुझे जरूर खिलाता।“ ड्राई फ्रूट्स? मोगली? उफ़! ये उसे क्या हो रहा है? ग्लानि के बोझ तले कहीं वह रो तो नहीं पड़ेगा।“तुम लोग तो बहुत अच्छे हो यार। मैं तो बेकार ही तुम्हें........चालू समझता था।“ वह ‘चालू’ नहीं कहना चाहता था पर तब तक लोगों ने अपने भावों से बेईमानी करना नहीं सीखा था। “हम लोग यारों के यार हैं।“ फ़िल्मी डायलॉग। “मेरे पास भी चिवड़ा है...”“ड्राई फ्रूट्स भी हैं क्या? या फिर मिठाई भी चलेगी।“ “हाँ..हाँ...है न। ड्राई फ्रूट्स भी हैं और मिठाई भी। तुम लोग दो मिनट रुको मैं अभी लेकर आता हूँ।“ प्रांशु एक झटके में अपने बेड से बाहर निकला और लगभग दौड़ता हुए विंग 1 के बॉक्स-रूम में पहुँचा। उसके बक्से की इकलौती चाबी उसके पाजामे के नाड़े में बँधी थी। पाँच मिनट बाद वह वापस आया तो देखा कि उसके विंग की सारी बत्तियाँ बुझी हुई थीं। पतंगे से आँख-मिचौली खेलती हुई ट्यूबलाइट भी दम तोड़ चुकी थी। वह बहुत गुस्से में था। विंग को उसने अँधेरे में डूबा हुआ पाया तो दरवाजे पर खड़ा होकर जोर से चीखा, ‘मोगली.....साले।‘वे पल, वे घटनाएँ और वे बातें याद रहती हैं जो जुदा करती हैं....जो द्वेष फैलाती हैं। अक्सर हम उन घटनाओं को भूल जाते हैं जो हमें जोड़ती हैं। संजीव से मेरा झगड़ा मुझे याद रहा पर वह बात, वह वजह मुझे बिलकुल याद नहीं जब हमने पहली बार एक दूसरे से मुस्कुरा कर बात की थी। वह बहुत हँसमुख था...बहुत बिंदास और बहुत बहादुर भी। छठी क्लास में उसने इंटर हाउस कल्चरल कम्पटीशन में एक नाटक किया था, एक भूमिका भी निभाई थी। मैंने वह नाटक नहीं देखा था पर देखने वाले बताते हैं कि एक ब्राह्मण की भूमिका में, मंच से नीचे उतरकर उसने हेडमास्टर से दक्षिणा रखवा ली थी। बेशक हेडमास्टर मेजर पीसी शर्मा ने बुरा नहीं माना होगा पर एक छठी क्लास के बालक ने? वह भी अपने से छः क्लास सीनियर लोगों के सामने? उसका कलेजा सचमुच बहुत बड़ा रहा होगा। कहते हैं वह दृश्य उस नाटक का हिस्सा भी नहीं था। वह क्षणिक था। न सिर्फ एक कलाकार की प्रतिभा की दृष्टि से, बल्कि एक जूनियर विद्यार्थी की दृष्टि से भी यह एक बहादुर कृत्य था। वह मिर्ज़ापुर का रहने वाला था और अपेक्षाकृत संपन्न पृष्ठभूमि से था। सुबह-उठने और पीटी के लिए जाने में वह भी उतना ही आलसी था जितना कि मैं था। ऐसे ही किसी आलस की अगुआई करते हुए हम दोनों में बात-चीत शुरू हुई होगी। सचमुच, पर मुझे ठीक से याद नहीं। फर्स्ट टर्म परीक्षाएँ आ चुकी थीं। रणविजय सातवीं में फेल हो गया था और उसे सातवीं में ही रुकना पड़ा। उसकी तरह कुछ और लोग भी सातवीं में अंग्रेजी का शिकार हो गए। बावजूद इसके, हमारी क्लास में बच्चों की संख्या कम नहीं हुई थी और आखिरकार तीन सेक्शन बनाने ही पड़े। अब पूरे स्कूल में सिर्फ हमारी क्लास के तीन सेक्शन थे। कई मायनों में यह बात अच्छी भी थी और बुरी भी। हमारी ताकत को अक्सर सीनियर्स एक चुनौती की तरह लेते थे और हमारी सामान्य सी गलती की भी अक्सर हमें बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती थी। अब जाना कि परीक्षाएँ क्यों होती हैं.....रात को देर तक पढ़ाई करने का सबब सिर्फ ज्ञान हासिल कर लेना नहीं होता। परीक्षाएँ, कठिन समय, और देर रात तक सवालों के हल करने का मकसद ज्यादा से ज्यादा देर तक समय के साथ वार्तालाप स्थापित करना होता है। जब हम अपनी किताबों में मग्न पढ़ाई कर रहे होते थे तो परिप्रेक्ष्य में एक वार्तालाप चल रहा होता है। आपके साथ जो सहपाठी अपने अलग सवालों से जूझ रहा होता है, तब आप सोच रहे होते हो कि जिस सवाल पर आप अटके हो क्या उसी सवाल पर वह भी अटका होगा। जब आप सो जाते हो तब वह वार्तालाप धीमी आँच पर पक रहा होता है। वह आपके मन में आपके सहपाठी की इमेज रच रहा होता है।कुछ आदतें चाहकर भी साथ नहीं छोड़तीं। सोने की आदत उनमें से एक है जो सचमुच सोने की बनी है......कम से कम आज चालीस साल की उम्र में तो ये परम सत्य है। कैसी आदत है? बुरा कहो तो छूटती नहीं और अच्छी जानो तो घेरती नहीं। शमशेर अली का भी नींद से छत्तीस का आँकड़ा था। ये आँकड़ा डिनर के बाद और गहरा हो जाता था। चित्रहार और धारावाहिक देखने के बाद शमशेर भाई जैसे ही कपड़े बदलते थे, नींद हमला बोल देती थी। ऐसा जादू चलता था कि अच्छा, बुरा, अपना, पराया, फेल, पास....कुछ नहीं सूझता था। सम्मोहन और वशीकरण मन्त्रों में कहाँ वह दम होगा जो साढ़े नौ बजे की नींद के एक तिनके भर झोंके में था। नींद एक चतुर नर्तकी की तरह कैबरे डांस करती और बंदा अपना सब कुछ हारता चला जाता। एक बीन बजती थी और बिस्तर पर बैठा हुआ शरीर झूमने लगता था। वह एक स्कोलर लड़का था....क्लास में उसकी रैंक आती थी। इसलिए, जहाँ दूसरे लोग धारावाहिक देखने के बाद मस्त लम्बे होकर बिस्तर में सो जाते थे, वह देर तक पढ़ाई करता रहता था। नींद के डर से उसने बिस्तर में घुस कर पढ़ना छोड़ दिया था। करीने से बिछे हुए और बेडशीट के नीचे अनुशासित ढंग से दबाए गए बिस्तर के ऊपर बैठकर वह पढ़ता पर नींद उस हालत में भी उसका पीछा न छोड़ती। जागे हुए लोगों ने उसका अच्छा-खासा तमाशा बना दिया था। उसके लहराते हुए बदन और उसकी साँसों की खरखराहट से जब लोग जान जाते कि वह सो रहा है तो उन्हें शरारत सूझती। वे उसकी अलमारी खोलते और उसका पूरा सामान – कपड़े, बेडशीट, तौलिया, टूथ-ब्रश, पेस्ट, शू-पॉलिश, कंघी, ब्रासो.....सब कुछ उसके सामने बिस्तर पर सजाकर रख देते थे। नींद का झोंका जब उसके बदन को लहराते हुए तीक्ष्ण कोण बनाता तो उसका गुरुत्व केंद्र (सेंटर ऑफ़ ग्रेविटी) उसके आपे से बाहर चला जाता। एक झटके के साथ उसकी नींद खुलती। अपने सामान को बिस्तर पर पसरा देख वह बौखला जाता। सब उसे देख कर मन ही मन हँसते। शरारत करने वाला तब तक छिप जाता या चुपचाप, जैसे कुछ हुआ ही न हो, अपने बिस्तर पर जाकर पढ़ने लगता। शमशेर उस अदृश्य बन्दे को गालियाँ देता और वापस अपना सामान अलमारी में सजाने लगता। उस शाम भी वह कपड़े बदलकर, पालती मारे बैठा था और दूर से देखने वालों को यही लग रहा था कि वह पढ़ाई कर रहा है। तभी विंग में हॉस्टल सुपरिन्टेन्डेन्ट जोशी जी घुसे। जोशी जी का पारंपरिक घोड़ाखाली नाम ‘फक्कड़’ था। यह कारस्तानी भी सीनियर्स की है इसलिए कहानी भी उन्हीं को मालूम होगी। “हुर्रा बेटा! पढ़ाई कर रहा है न? शाबास....पढ़ाई करो।“वह तेज़ कदमों से दाखिल हुए और लगा कि जैसे पलटन का निरीक्षण करने आए हैं। कुछ लोग सो चुके थे जिन्हें जगाना उन्होंने ठीक नहीं समझा। विंग के बीच में पहुँच कर वह कुछ धीमे हो गए। “देख शमशेर बेटा....सुबह तुमने बोला था न ट्यूबलाइट नहीं जल रही है.....देख मैंने ठीक करा दी। खूब नाम करो...जम के पढ़ाई करो...हुर्रा! शमशेर बेटा....और कोई समस्या हो तो बताना।“पूरा विंग पार करके वे बाथरूम की ओर चले गए। तब तक उन्हें यह एहसास ही नहीं हुआ कि उनका ‘हुर्रा बेटा’ नींद की बीन के सामने लहरा रहा है और उसके सामने एक छोटी सी दुकान सजाई जा चुकी है। शमशेर का बिस्तर एकदम कोने में था और बिस्तर के सामने लटके हुए कपड़ों की आड़ में उन्होंने शायद ध्यान न दिया हो कि उनके हाउस में मोची की दुकान खुल चुकी है। “ठीक है बेटा....कुछ हो तो कल बताना। पर कल सब लोग टाइम पे पीटी के लिए तैयार हो जाना।“बाईं ओर किनारे पर शमशेर की साँसों की खरखराहट उनके कानों में पड़ी। “ये क्या है शमशेर? ऐसा बिस्तर पे रख के जूता कौन पॉलिश करता है?” लहराते हुए शमशेर के ठीक सामने उसके जूते, जिनमें उसके बदबूदार मोज़े फँसे पड़े थे, और पॉलिश की डिबिया और ब्रश रखे हुए थे। इस बार शरारत करने वाले ने थोड़ा दिमाग लगाया था और कम परिश्रम में बड़ी खुरापात कर डाली थी। शमशेर ने फक्कड़ सर की आवाज तो सुन ली थी पर निंदिया रानी का कैबरे अभी भी बंद नहीं हुआ था। फक्कड़ सर को थोड़ा अजीब लगा....वह झेंप गए कि मैं बिना देखे ही ‘हुर्रा बेटा...खूब पढ़ो...आगे बढ़ो’ गाए जा रहा हूँ। दाहिनी तरफ जवानी भोया का बिस्तर था। वे बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे थे। फक्कड़ सर ने उसे मुस्कुराते हुए पकड़ लिया।“क्या हुआ इसे? ये पॉलिश करते-करते सो गया क्या?” “नहीं सर। वो ऐसे ही सोता है।“ भोया ने मौका देख कर बल्ला घुमाया। “ऐसे मतलब?”“वो ऐसे ही सोता है सर...रोज। जब तक पॉलिश नहीं सूँघ लेता न उसको नींद नहीं आती।“दूसरे कोने से भविष्यवाणी की तरह गूँजती आवाज आई। “भड़ाम....” हाथी के जन्मदिन का गुब्बारा जो विंग के दूसरे छोर पर बहुत देर से लटका-लटका सुलग रहा था, फट गया।
Published on April 25, 2018 06:26
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