फॉल इन: वन्स अ सिंही ऑलवेज अ सिंही
दो साल तक घाट-घाट का पानी पीने के बाद आठवीं क्लास में बहू का गौना कर दिया गया। बहू को तो नहीं पर उन बक्सों को जरूर राहत मिली थी, जिनके साँचे में ढले हुए तन को एक हाउस से दूसरे हाउस शिफ्ट करने की कवायद में लहूलुहान कर दिया गया था। कुश हाउस से अभिमन्यु हाउस की शिफ्टिंग बड़ी मुश्किल थी। कवर्ड पैसेज की सीढ़ियों पर बक्से ले जाते हुए, पक्के से पक्के दोस्तों के हाथ से वह छूट ही जाता था। कभी-कभी बहू की पूरी गृहस्थी बीच राह में बिखर जाती थी। फिर अचानक हड़बड़ाकर शुरू होता था गंदे कच्छों और बनियानों में अपनी आबरू समेटने का सिलसिला। मुस्कुराहटें अक्सर पूरक होती थीं। अगर मेरी आबरू ज़ार-ज़ार हुई है तो होगी तेरी भी, सब्र कर.... गोलू देवता के घर में देर है अंधेर नहीं। हमसे भी ज्यादा पस्त तो केसरी हाउस वाले हुए थे क्योंकि कुश हाउस से केसरी हाउस तक की दूरी कुश हाउस से सिंह हाउस तक की दूरी की दोगुनी थी। उस पर खुला आकाश। हमारी आबरू जाती भी थी तो कवर्ड पैसेज की छत के नीचे, उनकी तो खुले आसमान के नीचे लोट-पोट हो जाती थी।
बहरहाल शिफ्टिंग हो गई थी और बक्सों को उनके अंतिम स्थान पर जगह मिल गई थी। सिंह हाउस विंग 1 की हालत खराब थी। अब हम कोई सरकारी दामाद तो थे नहीं कि नए घर में शिफ्ट करने से पहले घर को झाड़-बुहार कर रखा जाए। न कोई गृह प्रवेश और न टीका आरती। गंदे मोज़े, तकिओं के खोल, टूटे हुए जूते, पॉलिश की खाली डिब्बियाँ, फटेहाल जाँघिए, ब्रास्सो, ब्लैंको और तेल की खाली शीशियाँ, कुचले हुए कंघे, फटी हुई बेरेट, जंग लगे हैकल और न जाने क्या-क्या। सब कुछ जाना-पहचाना था। ज़ुर्राबों से निकलती बदबू ने जब नाक में दम कर दिया तब अहसास हुआ कि हम भी पिछले हाउस में बहुत कुछ इसी स्वरूप का छोड़ आए थे। लोहे के बिस्तरों पर खाकी कवर वाले जूट के गद्दे पड़े हुए थे। गद्दे इतने पुराने थे कि बिस्तर के ढाँचे की जंग ने कपड़े और जूट पर अतिक्रमण कर लिया था। ढाँचे के पूरे चौखाने गद्दे के कवर पर यूँ छप गए थे जैसे मेरे गाल पर मोहन चन्द्र पाण्डे सर के थप्पड़। खटमलों के बारे में यह अफवाह ज्यादा राहत देती थी कि यह पहाड़ी क्षेत्र है, यहाँ मच्छर और खटमल नहीं होते। और सचमुच, वहाँ मच्छरों का नामोनिशान नहीं था। मच्छरों के सच को खटमलों की अफवाह का प्रमाण मान लिया गया था। फिर भी एक डर लगा रहता था। कुश हाउस में पहली बार ठन्डे पानी का ताप चढ़ा तो मैं कई दिन तक नहीं नहाया। जब कच्छे और बनियान बदबू देने लगते थे तो पानी पर दया कर, एकाध बार शाम को गरम पानी से स्नान हो जाता था। यह स्नान काफी नहीं था और अंततः मुझे खुजली ने ऐसा दबोचा कि जाड़े की पूरी छुट्टियों में डॉक्टर के चक्कर लगाने पड़े। उस खुजली से एक सबक जरूर मिला कि चाहे कुछ भी हो जाए दिन में एक बार बदन पर पानी जरूर डाल लेना चाहिए। खुजली का कोई भरोसा नहीं होता – न जाने कौन सा अंग चुने। जाड़ों में पहनी जाने वाली ऊनी पैंट की जेबें इसलिए नहीं फट जाती थीं कि उनका अस्तर वाला कपड़ा कमज़ोर होता था। यह खुजली और उँगली का मिला-जुला प्रताप था कि ज्यादातर लोगों की जेबें उस काम के लायक नहीं रह गई थीं जिसके लिए वे बनी थीं। इसलिए, खटमलों का डर और उनकी उपस्थिति के प्रति सचेत होना लाजिमी था। स्थिति उतनी बुरी नहीं थी जितनी आप सोच रहे हैं। एक बार जीवन चक्र शुरू हुआ तो सब कुछ अपने आप साफ़ होता चला जाता था। खटमल किसी और घर की तलाश में निकल पड़ते थे और बिस्तर की जंग आहिस्ता-आहिस्ता कवर का पिण्ड छोड़ने लगती थी। उस पर नई बेड शीट, नया पिलो कवर, गद्दे और रजाई के भी नए कवर....सब कुछ छोड़ा भी नहीं जा सकता था। आखिर, अपनी ही बू में जब तक एक टुकड़ा अतीत का शामिल न हो जाए तक मैं, मैं सा नहीं रह जाता। चार ही दिन में घर ने बहू को अपना लिया। घर और बहू की तो जमने लगी पर बहुओं की आपस में जमनी अभी बाकी थी। कुश हाउस के ज्ञानेश्वर यहाँ आकर ‘जवानी भोया’ हो गए थे। देवरिया के रहने वाले जवानी भोया जब छठी में आए थे तो सचमुच संत ज्ञानेश्वर ही थे। पिछले दो सालों में स्कूल ने यदि किसी के व्यक्तित्व का भरपूर चहुमुखी विकास किया था तो वे भोया ही थे। हर बात पर ‘क्या है बे?’ बोलने वाले भोया के बारे में मैं अक्सर सोचा करता था कि क्या वे अध्यापकों से भी ऐसे ही बात करते हैं। वह मेरे सेक्शन में नहीं थे। संजीव ने बताया था कि वह क्लास में किसी अध्यापक से बात ही नहीं करते। अगर कोई अध्यापक गलती से भी उनसे सवाल करता तो लड़के खुद ही अध्यापक को बता देते कि भोया का मौन व्रत चल रहा है। राकेश रंजन ‘हाथी’ हो गया था। उसका शरीर कोई बहुत भारी नहीं था पर नजाकत इतनी थी कि जैसे दस हाथियों का वजन ढो रहा हो। बोली में ख़ास तरह की बिहारी मिठास और आदर भाव। वह फुटबाल खेलता था और अच्छा खेलता था। एक दिन अचानक खेलना छोड़ दिया। 1994 का फुटबाल विश्व कप फाइनल देखा तो समझ में आया कि उसने फुटबाल क्यों छोड़ दिया होगा। हमारे यहाँ ऐसी भारी-भरकम नजाकत वाले खिलाड़ियों को पीछे डिफेन्स के लिए रखा जाता था – फुल बैक। जूनियर टीम की फुटबाल पूरे मैच में अक्सर मैदान के बीच में ही उछलती रहती थी इसलिए इन बेचारों को पूरे मैच में एक या दो किक मारने को मिलती थी। छी – ये भी कोई खेल हुआ। मनीष ‘पतलू’ हो गया था। पटसन की डंडी की तरह एकायामी – सिंगल पीस बोला तो अब्सल्यूटली सिंगल। फिजिक्स के त्रिआयामी वेक्टर की तर्ज़ पर उसे अगर परिभाषित करना हो तो उसका पूरा शरीर – जबकि वह हाथ पैर सब कुछ फैला कर खड़ा हो – एक ही एक्सिस में समा सकता है। उसे ‘वाई’ और ‘जेड’ एक्सिस की कतई जरूरत नहीं थी। भोया की तरह उसने भी एकाएक तरक्की की और नौवीं क्लास में जाड़े की छुट्टियों से लौटा तो पूरा बदल गया था। दोनों गाल लीची के गुच्छों की तरह लद गए थे। वजन बढ़ गया था और ‘वाई’ एक्सिस पर थोड़ा-बहुत झूलने लगा था। दीपक प्रसाद कलाकार आदमी थे। छठी क्लास में ही न जाने कौन सी तस्वीर बना दी कि नूर मोहम्मद साहब के चहेते हो गए। कद-काठी छोटी और छरहरी थी पर हरकतें बड़ी उजड्ड थीं। बजते बहुत थे इसलिए नाम ‘ढोलक’ हो गया था। कभी-कभी जब वह चिढ़ने लगता तो लोग उसके छद्म नाम ‘ढोलकी’ का भी इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आते थे। अब सारे नाम के सारे वैरिएंट्स पर तो उसे पेटेंट मिलने से रहा। अध्यापक हों या केमिस्ट्री लैब के लैब असिस्टेंट – किसी को भी अपना साल भर का कोटा पूरा करना हो तो वह दीपक प्रसाद को पकड़ लेता था। उनकी हरकत छेक लेता था और खूब मगन होकर बजाता था। कलाकारी में पर कोई तोड़ नहीं – कहते हैं कि प्रेरणा नहीं मिली वरना स्कूल से निकलने वाले पहले माइकल एंजेलो वही होते। सिंह हाउस के टॉप पर टीवी रूम की तरफ जो ‘शेर’ का मुँह बना है वह इन्हीं की देन है। लोग चाहें तो मज़ाक में ले सकते हैं पर सच यही है कि देश के बौध्दिक-वैचारिक पिछड़ेपन के लिए ‘प्रेरणा’ की कमी सबसे बड़ा कारण है। ओलम्पिक में मैडल नहीं – पुरुस्कारों में नोबेल नहीं, क्यों? क्योंकि प्रेरणा नहीं। अंकुर ‘मोगली’ हो गया था। पढ़ने-लिखने में क्लास को राह दिखाने वाले यही थे। वैसे तो स्पोर्ट्स में भी अच्छे थे पर पढ़ाई-लिखाई में बड़ा नाम था। लिखावट शानदार थी। उनकी लिखावट से प्रेरणा लेकर मैंने अपने बनाए हुए अंग्रेजी के ‘फॉण्ट’ दफना दिए और उसके ‘फॉण्ट’ अपना लिए। यहाँ भी हम भारतीय अपना योगदान देने से चूक गए। यदि कंप्यूटर में हमारा योगदान उस समय में होता तो निश्चय ही मोगली का फॉण्ट ‘टाइम्स न्यू रोमन’ का सबसे नज़दीकी प्रतिद्वंद्वी होता। परफेक्शन देने के प्रयास में उनकी लिखावट में बहुत सारे झाड़ू शुमार होने लगे। एक अक्षर दूसरे अक्सर से झाड़ू लगाते हुए जुड़ता था। इस प्रयास में उनकी लिखाई इतनी कचरा हो गई कि बोर्ड वाले समझ ही नहीं पाए। नौवीं में क्लास के टॉपर रहे मोगली को टॉप दस में भी जगह नहीं मिली। उनकी लिखावट एक बहाना भी हो सकती है – क्योंकि स्कूल के इतिहास में ऐसा बहुत कम हुआ था कि पारंपरिक स्कूल टॉपर बोर्ड का भी टॉपर हो। वह मोगली गैंग का मुखिया और लुटेरे समूह का ख़ास सदस्य था। नीरज ‘लड़की’ हो गया था। मेरा अच्छा दोस्त था – मूड स्विंग्स बहुत तेज़ी से होते थे और अक्सर किसी बात पर हँसते-हँसते झगड़ा भी हो जाता था। झगड़ा हालांकि बहुत देर तक नहीं रहता था। गोरा सफाचट चेहरा – ऐसा लगता ही नहीं था कि कभी उसकी दाढ़ी भी उगेगी। गज़ब का जुझारू लड़का था - पर उसे जूझने के लिए सनक चाहिए होती थी। मैंने उसे बहुत ज्यादा टीटी खेलते हुए नहीं देखा था पर ग्यारहवीं क्लास में न जाने क्या हुआ कि उसे सनक ने घेर लिया। बंदा टीटी टेबल से चिपक कर जीने लगा। उसका गेम कोई बहुत अच्छा नहीं था बस अपनी सनक के दम पर वह सीनियर्स के फाइनल तक पहुँचा था। फाइनल मैच भी मैंने देखा था – मुझे लगा कि ये वो लड़का है ही नहीं। सिर्फ डिफेन्स – कोई जल्दबाजी नहीं, कोई गुस्सा नहीं। फाइनल वह हार गया था पर हारने से पहले उसने ये सिखा दिया था कि सनकी होना हँसी खेल नहीं है। उसने अप्रत्याशित टक्कर दी थी। दिलीप जैसवाल ‘दरगिड़ बाबू‘ हो गए थे। इस नाम के लिए खोजकर्ता को इक्यावन तोपों की सलामी। हुआ ये कि उन्हें अपना नैसर्गिक निकनेम पसंद नहीं आता था। निकनेम हालांकि किसी को पसंद नहीं आते थे पर दिलीप कुमार का निकनेम थोड़ा ‘रेसियल’ अर्थात ‘रंगभेदी’ हो जाता था, इसलिए उन्होंने दूसरे निकनेम की दरख्वास्त की। दूसरा निकनेम तो मिल गया पर एक बार जरूर दरगिड़ बाबू को लगा था कि वही ‘रंगभेदी’ नाम ज्यादा अच्छा था। ड्रेसिंग सेंस बहुत अच्छा था। मिथुन चक्रवर्ती के फैन वे इसलिए थे क्योंकि किसी ने उन्हें बता दिया था कि मिथुन दा का रंग भी कुछ-कुछ उन्हीं की तरह दबा हुआ है। वह मेरी केटेगरी का था – न पढ़ाई में बहुत अच्छा न स्पोर्ट्स में। पिताजी का पुश्तैनी बिजनेस था। पहनने का बहुत शौक था। कहते हैं बम्बई का फैशन सबसे पहले उनके गाँव रामपुर कारखाना में आता था और वह भी सिर्फ उनके टेलर के पास। लेट-लतीफी उनकी आदत में शुमार थी पर इस बात का कोई भोकाल नहीं पालते थे। डिनर के लिए लेट पहुँचे तो बिना किसी प्रतिरोध के मुर्गा बन जाते थे। शेखर ‘खरी’ हो गया था। ये बिहार के महाराजा थे। विरासत में इन्हें पेट्रोल पम्प और ज्वेलरी का बिजनेस मिलना ही था – समझ नहीं आता था कि पढ़ाई-लिखाई क्यों करना चाहते हैं। उनके एक भाई राकेश भाईसाब हमारे सीनियर थे इसलिए वह हमारे बैच के दबंग लोगों में से एक था। क्रिया-कलाप में एक दम सीधा था। कोई शौक नहीं – समय पर पीटी, नाश्ता, क्लास, होमवर्क....कभी कोई शिकायत नहीं। उनकी दबंगई आत्मरक्षा की दबंगई थी, अगर कभी जरूरत पड़ी तो। किसी को सताने के लिए नहीं। खेलने का शौक था और सिंह हाउस की टीटी टेबल पर दम साधे जमे रहते थे। अपना बैट अपनी बॉल तब बड़ी बात होती थी। वे हमारे बैच में ‘वॉकमेन’ के जनक थे। यूँ तो रेडियो अपने पास भी था और ‘जहाँ काम आबे सुई कहा करे तलवार’....मालूम था कि वॉकमेन कमेंटरी नहीं सुना सकता, फिर भी ‘संगीत श्रवण’ की गैंग में दबदबा उन्हीं का था। दो-चार चेले चपाटे उनके बिस्तर पर अक्सर रेनोल्ड्स की पेन में कैसेट डालकर घुमाते हुए देखे जा सकते थे। रेनोल्ड्स की पाँच रुपये की पेन का सारे भारत में छा जाने का यह सबसे बड़ा कारण था – उसकी बॉडी कैसेट के व्हील में एकदम फिट बैठती थी। अभिषेक दुबे ‘चौबे’ हो गया था – दुबला-पतला आदमी था और उसके माँ-बाप को पतलू मनीष की मम्मी की तरह वह नुस्खा नहीं मिला जिससे बेटे के गाल फुलाए जाते हैं। खुदा का नेक बंदा – सीधी सच्ची राह पर चलने वाला। होम वर्क हुआ तो ठीक – नहीं हुआ तो रब राखा। दुनिया में ऐसा कोई कारण नहीं है जिसके लिए टेंशन ली जाए। मनीष गुप्ता ‘मुंडिश’ हो गया था। पढ़ - लिख कर कोई राजा नहीं बनता, इस सूत्रवाक्य की उत्पत्ति इन्हीं के मुख से हुई होगी। छठी क्लास के बाद हम कभी भी एक सेक्शन में नहीं रहे फिर भी वह मेरा अच्छा दोस्त था। वह स्पोर्ट्स और एथलेटिक्स में अच्छा था जबकि मेरा इनसे दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं था। हमारी दोस्ती जरूर किसी पाप की भागीदारी में हुई होगी इसीलिए ज्यादा चली। जबान का थोड़ा लूज था – मतलब गन्दा नहीं बोलता था पर उसके शब्द बहुत जल्दी उसके नियंत्रण से बाहर हो जाते थे। बोलते समय मुँह और मस्तिष्क का समन्वय बहुत जल्दी टूट जाता था। बहुत कम अवसरों पर मैंने उसे संजीदा होते देखा था। कविंदर ‘बन्दर’ हो गया था। मास्टर स्ट्रेटेजिस्ट – म्यान में पड़ी हुई वह जंग खाई तलवार जो कभी भी खतरनाक होना नहीं भूलती। दल के बड़े कक्का कह सकते हैं। उन बुजुर्गों की तरह जो पूरी तैयारी हो जाने पर भी ‘सावधानियाँ’ और ‘नसीहतें’ देना नहीं भूलते। समझ-बूझ और मशवरे की बातें लोग इन्हीं से करते थे हालांकि कभी अमल में नहीं लाते थे। विंग के ‘यूनिवर्सल डोनर’ यानी ‘वैश्विक दाता’ थे। कोई माँग कर लेता था तो कोई बिना माँगे अधिकारवश ले लेता। कुढ़ते जरूर थे और मन ही मन सबक सिखाने का ख़याल सुलगाए रहते थे पर कभी लड़ते नहीं थे। अजीत ‘झाड़ू’ हो गया था। स्कूल में मेरा पहला परिचय अजीत से हुआ था। वह बुलंदशहर का था जो अलीगढ़ के नज़दीक है। सिंह हाउस में आने के बाद भी उसका ग्रुप थोड़ा अलग था। अक्सर केसरी हाउस वालों से उसकी ज्यादा दोस्ती रहती थी। विंग 3 में जरूर वह मोगली गैंग के साथ कभी-कभी घुन की तरह पिस जाता था। बैकग्राउंड संपन्न था – वह सम्पन्नता खाने और पहनने में जरूर झलकती थी पर कोई अतिरिक्त शौक जैसे कि वॉकमेन सुनना इत्यादि नहीं थे। रेडियो और वॉकमेन सुनना बिलकुल मना था। जिनके पास भी रेडियो और वॉकमेन थे वे आये दिन जब्त होते रहते थे – हालांकि बाद में उन्हें घर भेजने की चेतावनी देकर लौटा दिए जाते थे। अजय ‘ख़रगोश’ हो गया था। मेरा अच्छा दोस्त था। आठवीं तक हम दोनों ने घर के लड्डू शेयर किये थे। अक्सर वह ही खिलाता था। बहुत सीधा और सज्जन लड़का था। मेरे दोस्त अक्सर सीधे और सज्जन ही रहे। पढ़ाई-लिखाई में मध्यम और स्पोर्ट्स वगैरह में सक्रिय। हाउस एथलेटिक्स टीम का सदस्य था और स्कूल हॉकी टीम में भी था। दोस्त क्यों बनते हैं और क्यों टूट जाते हैं – उस उम्र ने हमें थोड़ा बहुत सिखा दिया था। अजय से किसी बात पर झगड़ा हुआ था – शायद निकनेम को लेकर। वह झगड़ा कभी नहीं सुलझा। स्कूल से निकलने के बाद एक बार हम लखनऊ में मिले थे। कितनी बचकानी सी बात के लिए हम काँटे उगाए घूमते रहे। ऐसा नहीं है कि हम जिए नहीं। जिए और खुलकर जिए। वह नहीं था तो कोई और बन गया। ऐसा हो ही जाता है। स्टेटस कुओ (जस का तस) बनाए रखना आसान होता है क्योंकि उसमें कोई लागत नहीं आती। उसे तोड़ना बहुत मुश्किल नहीं होता फिर भी हम हौसला नहीं कर पाते क्योंकि हमें ये एहसास नहीं होता कि हमने क्या खोया। रिश्ते प्राइस टैग लेकर घूमते तो हम जरूर उसे तोड़ने की कोशिश करते। वह ईगो नहीं था – बस नासमझी थी। अगर ईगो होता तो हम बाद में भी कभी बात न करते। मैं ‘सोतू’ का ‘सोतू’ ही रहा – थोड़ा सा सहमा हुआ – ये चाहने वाला कि मुझे मैथ्स का सर्टिफिकेट मिल जाए – ये चाहने वाला कि मुझे बैडमिंटन टीम में सेलेक्ट कर लिया जाए – कि मैं जिस भी चीज में हिस्सा लूँ उसमें फर्स्ट आऊँ – और ये कि मैं हर चीज में हिस्सा लूँ। ऑलराउंडर बनना हर किसी का ख्वाब था। और भी लोग थे जो सिंह हाउस की धरती पर अवतरित तो हो चुके थे पर अभी तक उनका नामकरण संस्कार नहीं हुआ था।जिस तरह नई बहू के कदम रखते ही सत्ताधीन बहुएँ उसे चूल्हे-चौके में भेजने को आतुर रहती हैं उसी तरह मनिंदर भाईसाब ने पहले ही दिन से सारी की सारी नई बहुओं के हाथों में खुरपियाँ और कुदालें थमा दीं। सुना था कि सीनियर्स बड़े दिल वाले लोग होते हैं....पीटी में धकेलने के लिए झिक-झिक नहीं करते और लोग सुबह तब तक सो सकते हैं जब तक कि पीटी का साइरन न बज जाए। मनिंदर सर ने हमारे सब अरमानों पर पानी फेर दिया जब उन्होंने पहले ही दिन पीटी का साइरन बजने से पहले ही हमें गार्डनिंग के लिए ‘हाईजैक’ कर लिया। मनिंदर सर ग्यारहवीं में आए थे और पूरी जुगाड़ में थे कि अपनी सेवा से हाउस मास्टर श्री जे एन शर्मा को खुश करके बारहवीं में अपॉइंटमेंट बन जाएँ। सीनियर हाउस के अपॉइंटमेंट को शेयरिंग कमरा मिला करता था। विंग 1 और विंग 3 से संलग्न दो कमरों में चार लोगों के समाने की जगह थी जबकि फर्स्ट फ्लोर पर सीढ़ियों के पास वाले कमरे में दो और अपॉइंटमेंट को समा सकते थे। सर और भाईसाब के संबोधन का रिवाज़ ये था कि दो साल तक सीनियर लोगों को भाईसाब कहा जाता था जबकि तीन साल और उसके ऊपर सीनियर लोगों को सर कहा जाता था। संजीव मिश्रा का सबसे बड़ा परिचय यह है कि उन्हें कोई पारंपरिक घोड़ाखाली नाम नहीं मिला था। वह सबके लिए ‘संजीव’, ‘मिश्रा’ या ‘मिसर जी’ ही रहे। उस दिन वह मेरे बिस्तर से सटे हुए खाली बिस्तर पर अपना सामान रख रहे थे। विंग की गन्दगी काफी हद तक साफ़ हो गई थी फिर भी....झाड़ू लगाने के बाद घर को भी साफ़ दिखने में थोड़ा समय लगता है। मेरे बेड के नीचे रखे जूते ने उनके होने वाले बेड के नीचे वाले क्षेत्र में अतिक्रमण कर लिया था। वह उन्हें खटक रहा था। उन्होंने मुझसे उसे हटाने के लिए कहा तो मैंने टाल दिया। ‘हटा लो भई।‘ उन्होंने जोर देते हुए कहा तो मुझे बुरा लगा। अरे पहले सब सामान लगा लो....थोड़ा सुस्ता लो...मेरा जूता कहाँ चला जाएगा....जब पहनूँगा तो हटा लूँगा। मैंने मन ही मन सोचा और बस इतना ही कहा कि ‘हटा लूँगा भई...कहीं भाग नहीं जाऊँगा।‘दरअसल उस उम्र तक फिल्में हमारे लिए महज मनोरंजन का साधन नहीं रह गई थीं। वे हमें प्रभावित कर रही थीं। जीतेन्द्र, मिथुन चक्रवर्ती और अमिताभ यूँ ही हमारे ‘आइकन’ नहीं थे; हम उनकी तरह चलना चाहते थे, बोलना चाहते थे और लड़ना चाहते थे। मैंने देखा कि संजीव कुछ नाराज़ हो गया था; हो न हो, उसके अन्दर भी कोई फ़िल्मी हीरो अँगड़ाई ले रहा था। संजय और एक दो लोग और उसके साथ थे। संजय का चेहरा इसलिए याद है क्योंकि वह छठी क्लास में हमारी क्लास का टॉपर था। पूरे ग्रुप की उपस्थिति ने मुझे थोड़ा व्यग्र कर दिया था। वे सब पढ़ने में अच्छे थे और मैं सातवीं क्लास में बड़ी मुश्किल से पास हुआ था। छठी क्लास में ठीक-ठाक नंबर लाने के बाद जब सातवीं में अच्छे नंबर न आएँ तो थोड़ा कुंठित हो जाना समझ आता है। मेरी नज़रों में वे अच्छे घरों के सभ्य और पढ़ाकू लड़के थे जिनसे मेरा कोई मुकाबला नहीं था....और निकट भविष्य में कभी होने के आसार भी नहीं थे। मैंने जिद में उनको जान-बूझ कर अनसुना किया तो संजय ने भी कुछ कहा। उसकी आवाज में भी रौब था। कुछ ही पलों में बात बढ़ते-बढ़ते झगड़े तक पहुँच गई। हाथा-पाई हुई नहीं थी पर उनकी सम्मिलित शक्ति देखकर अगर मैं डर न गया होता तो शायद हो ही जाती। यह संजीव से मेरा पहला सक्रिय परिचय था जो बिलकुल शुभ नहीं था। दूसरी ओर, मेरी अलमारी में शेयरिंग करने वाला मेरा लॉकर पार्टनर रतन था। ‘दामिनी’ के चड्ढा की स्टाइल में उसके आगे की ओर कढ़े हुए बल खाते बाल थे। वे तेल में उसी तरह डूबे रहते थे जैसे जलेबी चाशनी में डूबी रहती है। कद अच्छा था...करीब छः फिट...या फिर उससे एक-आध अंगुल कम और शरीर हृष्ट-पुष्ट था। वह अपने चेहरे के रंग और दाएँ गाल पर उभरे हुए मस्से से मात खा गया वरना आठवीं क्लास में ही मिस्टर इंडिया का फॉर्म भर सकता था। उसका पारंपरिक नाम था ‘मुंगेरी लाल’। यह नाम और इसके पीछे की कहानी इस कुनबे के इतिहास की शायद सबसे रोमांचक कहानी है। रतन का एडमिशन मेरे एडमिशन के बाईस दिन बाद हुआ था। मेरे कस्बे के स्कूली दोस्त राजीव उपाध्याय का एडमिशन भी उसी के साथ हुआ था, इसलिए रतन से थोड़ी बहुत जान-पहचान हो गई थी। दूसरे, वह कई चीजों में हमसे बिलकुल मिलता-जुलता था। अपने बैकग्राउंड में, पढ़ाई-लिखाई में, अक्खड़पने में....उसका बर्ताव, उसका बातें करने का ढंग सब कुछ इस तरह से ‘कॉमिक’ था कि उसके साथ कोई बोर नहीं हो सकता था। इन सब चीज़ों का एक बड़ा हिस्सा उसके भोलेपन से आया था। इसका एक कतरा हम सब के भीतर भी रहता था पर अक्सर हम उसे एक लिबास में लपेटने का प्रयास करते थे....मैं भी। वह जो उसकी कच्ची निर्मलता के बीज से अंकुरित बेल नए समाज की ‘चतुर’ ठूँठों के सहारे चढ़कर आकाश पर छा जाना चाहती थी, उसी निर्मलता ने उसे जनप्रिय चरित्र बनाया था। समय के साथ जैसे-जैसे छत पर छा जाने का दबाव बढ़ता गया, वह निर्मलता भी चतुराई में विलीन होती गयी। एडमिशन के बाद वह लव हाउस में रहने लगा। एक रात की बात है.....गहरी नींद से उसकी आँखें खुलीं। वह टॉयलेट जाने के लिए उठा और विंग से बाहर निकलकर दाएँ मुड़ गया। टॉयलेट करने के बाद वह बाहर निकला और बाएँ की जगह दाएँ मुड़ गया। लव हाउस और कुश हाउस का विन्यास एक दूसरे की हू-ब-हू नकल था। दोनों में एक ही अंतर था। लव हाउस के विंग में जाने के लिए छः सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं जबकि कुश हाउस में कोई सीढ़ी नहीं थी। अगली सुबह लव हाउस वालों ने पाया कि रतन अपने बिस्तर से गायब है; और कुश हाउस वालों ने पाया कि जीतेन्द्र सिंह भाईसाब जो चार दिन बाद छुट्टी से आने वाले थे, अचानक वापस आकर अपने बिस्तर पर मुँह ढक कर सोए हुए थे। जीतेन्द्र सिंह चूँकि अपॉइंटमेंट थे उन्हें किसी ने नहीं जगाया। उधर लव हाउस में यह सोचकर रतन को नहीं ढूँढ़ा गया कि यहीं-कहीं होगा...आ जाएगा। पीटी का साइरन बजने को हुआ तो बोनाल भाईसाब ने अभय से कहा कि वह जीतेन्द्र सिंह को जगा दे। अभय जूनियर था इसलिए डरते-डरते जीतेन्द्र सिंह भाईसाब को हिलाने लगा। रतन उठा और उसने चारों ओर देखा। अभय ने रतन को देखा तो उसे झटका लगा – ‘ये लोमड़ी की खाल में शेर यहाँ क्या कर रहा है?’ उसने सोचा और सबको बता दिया। रतन को तब तक सब कुछ समझ में आ गया था। इससे पहले कि बोनाल भाईसाब पूछ-ताछ चालूँ करें वह समझ गया कि चुपके से निकल लेने में ही भलाई है। इस कहानी को ‘पब्लिक’ होने में दस मिनट भी नहीं लगे थे। रतन सबकी आँखों का तारा बन चुका था। पीठ पीछे लोग उसे मुंगेरी लाल ही कहते थे पर सामने से किसी की हिम्मत नहीं थी कि उससे पंगा मोल ले। डराने के लिए उसे हाथ-पैर नहीं उठाने पड़ते थे। उसका जोर से चिल्लाना ही काफी था। मैं अपने दोनों ओर शक्तिशाली लोगों से घिरा हुआ था। संजीव का लॉकर पार्टनर शमशेर था। उसका पारंपरिक नाम ‘भेलू’ पड़ा जरूर था पर वह उतना ‘फेमस’ नहीं हो पाया था। रतन के पारंपरिक नाम की तरह हर नाम के पीछे एक कहानी है पर हर कहानी के पीछे मैं नहीं हूँ। हर कहानी का एक अलग सूत्रधार है। प्रांशु का नाम ‘पामेला’ क्यों पड़ा, ये मैं नहीं जानता। उसके इस नाम के पीछे जरूर प्रांशु की अपनी कहानी होगी और जिसने भी उसे यह नाम दिया, जरूर उसकी भी एक कहानी होगी। मित्रों के साथ बिताई हुई आनंद-विभोर घटनाओं से जन्मी ये कहानियाँ उनकी उतनी ही नितांत पहचान हैं जितने कि उनके माँ-बाप द्वारा रखे हुए नाम। मेरी क्लास में, मेरे स्कूल में और मेरे स्कूल की तरह दुनिया के लाखों स्कूलों में ऐसी कहानियाँ आए दिन जन्म लेती हैं। ऐसी चुलबुलाती कहानियाँ जो अक्सर पन्नों पर नहीं आ पातीं। अगर आ पातीं तो इस दुनिया में न जाने कितनी कहानियाँ होतीं और न जाने कितने कहानीकार। काश! कि वे आ पातीं। लोग शायद तब उतने अकेले नहीं रह जाते जितने कि अब हैं। हो सकता है इन कहानियों का यूँ सरेआम खुलासा मेरे मित्रों को पसंद न आए। वे मुझ पर गुस्सा करें। पर मैं जानता हूँ कि वे ज्यादा दिन ऐसा नहीं कर पाएँगे। संभव है वे एक सप्ताह तक रूठे रहें। एक सप्ताह बाद वे जरूर सोचेंगे कि सच ही तो लिखा है। एक महीने बाद शायद वे इस खुलासे को भूलकर मुझे माफ़ कर दें। कुछ सालों बाद सब कुछ वापस वैसा ही हो जाए जैसा इन कहानियों के लिखे जाने के पहले था। वे जरूर समझ जाएँगे कि यह अध्याय उनके जीवन के रंग-मंच पर एक दृश्य मात्र है, ‘जस्ट अ सीन’। वे एक कलाकार की तरह उस दृश्य का किरदार निभा रहे थे। दृश्य बदला होगा और वे अपने किरदार से बाहर निकल गए होंगे, उन्हें एक नया किरदार मिल गया होगा। कई सालों बाद, या शायद मरते समय वे मुझे धन्यवाद भी कहना चाहें कि अच्छा हुआ मैंने उनकी कहानी लिखी। उन्हें अकेले नहीं मरना होगा।
Published on April 25, 2018 06:25
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