फैन फिक्शन - सृजनशीलता की अभिव्यक्ति या फरेबी फैंटेसियों का ठिकाना?
कुछ दिनों पहले फैन फिक्शन पर बातें हुई थीं. बातें असरदार रही थीं. कई लोगों ने फैन फिक्शन लिखने में रुचि दिखाई थी. रत्नाकर मिश्रा ने तो डार्क नाइट पर पाँच-छह फैन फिक्शन कहानियाँ लिख भी दीं. मगर फिर वह असर थम गया. फैन फिक्शन पर बातें भी कम होते हुए रुक ही गईं.
जो लोग यहाँ नए हैं, या फैन फिक्शन के बारे में नहीं जानते उनके लिए बता दूँ कि फैन फिक्शन का अर्थ होता है किसी और की लिखी रचना की पृष्ठभूमि और उसके किरदारों को लेकर लिखी गई कोई नई या अलग रचना. यह विशेष रूप से मूल रचना या रचनाकार के फैन्स द्वारा लिखी जाती हैं. इसलिए इन्हें फैन फिक्शन कहते हैं. हम सभी के भीतर एक लेखक होता है. भले ही हमारे पास बहुत गंभीर या परिपक्कव विचार न हों. भले ही हमे भाषा या शिल्प का बहुत अधिक ज्ञान न हो. मगर कल्पनाशीलता हम सभी में होती है. कहानियाँ हम बना ही लेते हैं. बहुत से गैरलेखक अनुभवी लेखकों से बेहतर कहानियाँ बना लेते हैं. ऐसे कई गैरलेखक पाठकों में लिखने की तीव्र इच्छा भी होती है. मगर कथाशिल्प के अभाव में उन्हें पृष्ठभूमि बनाने और पात्र विकसित करने में दिक्कत होती है. ऐसे में यदि बनी बनाई पृष्ठभूमि और विकसित पात्र मिल जाएँ तो वे उन्हें अपनी कल्पनाओं के परों पर बैठा बहुत ऊँची उड़ान दे सकते हैं. उन्हें कई सतरंगी इन्द्रधनुषों में सजा सकते हैं.
इन दिनों इन्टरनेट में फैन फिक्शन का सैलाब सा आया हुआ है. पश्चिमी देशों में तो यह लम्बे समय से चल रहा है मगर अब भारत में भी फैन फिक्शन के रचयिता बढ़ते जा रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि भारत में लिखा जा रहा अधिकांश फैन फिक्शन साहित्य पर नहीं बल्कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों पर लिखा जा रहा है. कभी न समाप्त होने वाले टीवी धारावाहिकों के कहीं न ख़त्म होने वाले फैन फिक्शनों की लड़ियाँ बनती जा रही हैं. इन लड़ियों में नित नए फैन फिक्शन लेखक नई कड़ियाँ भी जोड़ते जा रहे हैं. एक अन्य दुर्भाग्य यह भी है कि हिंदी फिल्मों और हिंदी के टीवी सीरियलों पर लिखे जा रहे ये सभी फैन फिक्शन अंग्रेज़ी में ही लिखे जा रहे हैं. गलत-सलत और टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में ही सही मगर ये लेखक लिख अंग्रेज़ी में ही रहे हैं. शायद वे भी इसी मानसिकता के मारे हैं कि पहचान तो तभी मिलेगी जब अंग्रेज़ी में लिखें. वरना मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों और हिंदी धारावाहिकों के दर्शक होने के नाते वे हिंदी में बेहतर लिख सकते हैं.
फैन फिक्शन की कई उपयोगिताएँ हैं. कल्पनाशीलता और सृजनशीलता को मूर्तरूप देना तो खैर है ही फैन फिक्शन के ज़रिये लेखक मूल और प्रचिलित लेखन के समानांतर अपनी एक नई शैली भी गढ़ सकते हैं और कोई नई विधा या श्रेणी भी बना सकते हैं. आज जिस तरह फिल्मों और टीवी धारावाहिकों के दृश्य और चरित्र बहुत ही कृत्रिम और अस्वभाविक से लगते हैं, फैन फिक्शन लेखक उन दृश्यों और चरित्रों का स्वभाविक चित्रण कर फिल्म और टीवी धारावाहिक के लेखकों के सामने उचित उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकते हैं. ठीक ऐसा ही साहित्य के फैन फिक्शन के साथ भी किया जा सकता है. जहाँ कहीं पाठकों को लगता है कि किसी चरित्र के साथ न्याय नहीं हुआ, या कोई चरित्र खुलकर सामने नहीं आया, या किसी कहानी का अंत उचित नहीं हुआ, या कोई कहानी सही सन्देश नहीं दे रही है, तो पुस्तक की आलोचना के साथ ही फैन फिक्शन के ज़रिये सही उदाहरण भी पेश कर सकते हैं. आलोचना करना आसान है, और इसीलिए अधिकांश लेखक कोरी आलोचनाओं को पसंद भी नहीं करते. मगर यदि उदाहरणों सहित उनके सामने यह पेश किया जाए कि कहाँ क्या कमियाँ रह गईं तो वे उसे अधिक सकारात्मक रूप से लेंगे. इस तरह फैन फिक्शन लेखक साहित्य की समृद्धि में भी अपना योगदान दे सकते हैं.
मगर फैन फिक्शन के अपने दोष भी हैं जिन्हें समझना और उनके प्रति जागरूक रहना भी ज़रूरी है. आज अधिकांश फैन फिक्शन, विशेष रूप से किशोरों और युवाओं द्वारा लिखे जाने वाले फैन फिक्शन फैंटेसी के कृत्रिम आकाश में तने एक फरेबी इंद्रजाल से होते हैं जिनमें ये किशोर और युवा लेखक अपनी इरोटिक फैंटेसियों के रूपहले रंग भरते हैं. समस्या न तो फैंटेसी से है और न ही इरोटिका से. मगर जो बात समझने वाली है वह यह कि फैंटेसियों में फरेब ही अधिक होता है और यथार्थ बहुत कम. जब तक फैंटेसियाँ जीवन के कटु यथार्थ से राहत की कुछ संभावनाएँ दिखाती हैं तब तक तो वे ठीक हैं मगर जब वे एक ऐसे फरेबी मायाजाल का रूप ले लें जिसमें लेखक और पाठक यथार्थ से कटकर सिर्फ उलझते ही जाएँ तो ऐसी उलझन से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. फैन फिक्शन लिखें मगर अपनी सृजनशीलता को अभिव्यक्ति देने के लिए, न कि अपनी इरोटिक फैंटेसियों को ठौर-ठिकाना देने के लिए.
जो लोग यहाँ नए हैं, या फैन फिक्शन के बारे में नहीं जानते उनके लिए बता दूँ कि फैन फिक्शन का अर्थ होता है किसी और की लिखी रचना की पृष्ठभूमि और उसके किरदारों को लेकर लिखी गई कोई नई या अलग रचना. यह विशेष रूप से मूल रचना या रचनाकार के फैन्स द्वारा लिखी जाती हैं. इसलिए इन्हें फैन फिक्शन कहते हैं. हम सभी के भीतर एक लेखक होता है. भले ही हमारे पास बहुत गंभीर या परिपक्कव विचार न हों. भले ही हमे भाषा या शिल्प का बहुत अधिक ज्ञान न हो. मगर कल्पनाशीलता हम सभी में होती है. कहानियाँ हम बना ही लेते हैं. बहुत से गैरलेखक अनुभवी लेखकों से बेहतर कहानियाँ बना लेते हैं. ऐसे कई गैरलेखक पाठकों में लिखने की तीव्र इच्छा भी होती है. मगर कथाशिल्प के अभाव में उन्हें पृष्ठभूमि बनाने और पात्र विकसित करने में दिक्कत होती है. ऐसे में यदि बनी बनाई पृष्ठभूमि और विकसित पात्र मिल जाएँ तो वे उन्हें अपनी कल्पनाओं के परों पर बैठा बहुत ऊँची उड़ान दे सकते हैं. उन्हें कई सतरंगी इन्द्रधनुषों में सजा सकते हैं.
इन दिनों इन्टरनेट में फैन फिक्शन का सैलाब सा आया हुआ है. पश्चिमी देशों में तो यह लम्बे समय से चल रहा है मगर अब भारत में भी फैन फिक्शन के रचयिता बढ़ते जा रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि भारत में लिखा जा रहा अधिकांश फैन फिक्शन साहित्य पर नहीं बल्कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों पर लिखा जा रहा है. कभी न समाप्त होने वाले टीवी धारावाहिकों के कहीं न ख़त्म होने वाले फैन फिक्शनों की लड़ियाँ बनती जा रही हैं. इन लड़ियों में नित नए फैन फिक्शन लेखक नई कड़ियाँ भी जोड़ते जा रहे हैं. एक अन्य दुर्भाग्य यह भी है कि हिंदी फिल्मों और हिंदी के टीवी सीरियलों पर लिखे जा रहे ये सभी फैन फिक्शन अंग्रेज़ी में ही लिखे जा रहे हैं. गलत-सलत और टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में ही सही मगर ये लेखक लिख अंग्रेज़ी में ही रहे हैं. शायद वे भी इसी मानसिकता के मारे हैं कि पहचान तो तभी मिलेगी जब अंग्रेज़ी में लिखें. वरना मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों और हिंदी धारावाहिकों के दर्शक होने के नाते वे हिंदी में बेहतर लिख सकते हैं.
फैन फिक्शन की कई उपयोगिताएँ हैं. कल्पनाशीलता और सृजनशीलता को मूर्तरूप देना तो खैर है ही फैन फिक्शन के ज़रिये लेखक मूल और प्रचिलित लेखन के समानांतर अपनी एक नई शैली भी गढ़ सकते हैं और कोई नई विधा या श्रेणी भी बना सकते हैं. आज जिस तरह फिल्मों और टीवी धारावाहिकों के दृश्य और चरित्र बहुत ही कृत्रिम और अस्वभाविक से लगते हैं, फैन फिक्शन लेखक उन दृश्यों और चरित्रों का स्वभाविक चित्रण कर फिल्म और टीवी धारावाहिक के लेखकों के सामने उचित उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकते हैं. ठीक ऐसा ही साहित्य के फैन फिक्शन के साथ भी किया जा सकता है. जहाँ कहीं पाठकों को लगता है कि किसी चरित्र के साथ न्याय नहीं हुआ, या कोई चरित्र खुलकर सामने नहीं आया, या किसी कहानी का अंत उचित नहीं हुआ, या कोई कहानी सही सन्देश नहीं दे रही है, तो पुस्तक की आलोचना के साथ ही फैन फिक्शन के ज़रिये सही उदाहरण भी पेश कर सकते हैं. आलोचना करना आसान है, और इसीलिए अधिकांश लेखक कोरी आलोचनाओं को पसंद भी नहीं करते. मगर यदि उदाहरणों सहित उनके सामने यह पेश किया जाए कि कहाँ क्या कमियाँ रह गईं तो वे उसे अधिक सकारात्मक रूप से लेंगे. इस तरह फैन फिक्शन लेखक साहित्य की समृद्धि में भी अपना योगदान दे सकते हैं.
मगर फैन फिक्शन के अपने दोष भी हैं जिन्हें समझना और उनके प्रति जागरूक रहना भी ज़रूरी है. आज अधिकांश फैन फिक्शन, विशेष रूप से किशोरों और युवाओं द्वारा लिखे जाने वाले फैन फिक्शन फैंटेसी के कृत्रिम आकाश में तने एक फरेबी इंद्रजाल से होते हैं जिनमें ये किशोर और युवा लेखक अपनी इरोटिक फैंटेसियों के रूपहले रंग भरते हैं. समस्या न तो फैंटेसी से है और न ही इरोटिका से. मगर जो बात समझने वाली है वह यह कि फैंटेसियों में फरेब ही अधिक होता है और यथार्थ बहुत कम. जब तक फैंटेसियाँ जीवन के कटु यथार्थ से राहत की कुछ संभावनाएँ दिखाती हैं तब तक तो वे ठीक हैं मगर जब वे एक ऐसे फरेबी मायाजाल का रूप ले लें जिसमें लेखक और पाठक यथार्थ से कटकर सिर्फ उलझते ही जाएँ तो ऐसी उलझन से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है. फैन फिक्शन लिखें मगर अपनी सृजनशीलता को अभिव्यक्ति देने के लिए, न कि अपनी इरोटिक फैंटेसियों को ठौर-ठिकाना देने के लिए.
Published on July 01, 2018 13:37
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Tags:
dark-night, fan-fiction
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