'सिर्री': डॉ. लता अग्रवाल की समीक्षा

कहानी संग्रह: सिर्री
लेखक – अबीर आनन्दसमीक्षक – डॉ लता अग्रवाल
कथित सभ्यता के दौर में जीवन की परिभाषा भी बदल गई है। यही कारण है कि हम हर धडकते दिल को जिन्दा मान बैठे हैं। हमारी शिक्षा, सभ्यता कितनी भोथरी हो गई है कि हम चेहरों की इन लकीरों को पढने में असमर्थ हैं। हम ही क्यों? हमारा समाज, मीडिया, कानून-व्यवस्था, रिश्ते सभी तो उथले होकर रह गये हैं। अगर कोई इस आवरण के भीतर जाना भी चाहे तो लोग उसे ‘सिर्री’ (सनकी ) की संज्ञा देते हैं। किन्तु ये सिर्री एक समाज को बचाए रखने के लिए कितने उपयोगी हैं यह चिन्तन का विषय है।
अबीर आनन्द जी द्वारा रचित कहानी संग्रह ‘सिर्री’ ऐसी ही परतों को अनावृत कर समाज को हकीकत से रूबरू कराता है इससे पहले कि यह समाज पूर्णत: जड़ हो जाये। ग्यारह कहानियों का यह संग्रह मुझे अन्य कहानी संग्रहों से हटकर लगा। पहले, संग्रह को पढकर महसूस हुआ आज परिवार से लेकर कार्पोरेट जगत, समाज हर जगह परिस्थितियों से जूझते हुए व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गया है और यही अस्वस्थता उसके व्यवहार में परिलक्षित हो रही है। यही है सिर्री। दूसरे, यह संग्रह आम संग्रह से कुछ भिन्नता लिए है जैसे न किसी प्रभावी व्यक्तित्व द्वारा भूमिका, न लेखक का लम्बा चौड़ा परिचय, केवल विषय पर बात। हमारी जीवन शैली, रिश्ते, सुविधाएँ जुटाने की जद्दोजहद, जो मिला उसकी उपेक्षा कर जो नहीं मिला उसके पीछे भागम-भाग यह हमारा सिर्रीपन नहीं तो क्या है ?
कार्पोरेट जगत की दुनिया बहुत चुंधिया देने वाली है विशेषकर हमारी युवा पीढ़ी आज पूरी तरह से इसकी गिरफ्त में आ चुकी है , एक बार इस चक्रव्यूह में फंसने के बाद यहाँ से निकलना उनके लिए नामुमकिन हो जाता है और साँस लेना दूभर। परिणाम इस घुटन भरे वातावरण में रह कर वे मानसिक रूप से बीमार हो रहे हैं। 'रिंगटोन’ तो माध्यम है जीवन को प्रतिबिम्बित करने का, कहना न होगा जीवन और मोबाईल की रिंगटोन में सामंजस्य बना बात को खूबसूरती से प्रस्तुत किया है। मैं परेशा ...परेशा ...यह मानस के मोबाईल की ही ट्यून नहीं है उसके जीवन की भी ट्यून बन गई है। मल्टी-कम्पनियों में जीवन कितना जटिल है, यहाँ केवल व्यवसाय की भाषा बोली और समझी जाती हैं इन्हें कर्मचारियों के व्यक्तिगत जीवन से कोई सरोकार नहीं। उच्च अधिकारियों की तानाशाही अधीनस्थ कर्मचारियों के जीवन में खौफ पैदा करती है। इसका प्रतीक है, 'सावंत की चीखती आवाज के आभास भर से मानस के मस्तिष्क के बांध ढीले पड रहे थे।' अधिकारी अपनी असफलता का ठीकरा अधीनस्थों पर फोड़ता है, कौए कोयल पर राज कर रहे हैं। यही कलयुग की निशानी है और आज की ज्वलंत समस्या भी। चाटुकारों ने इमानदारों का जीवन दुश्वार कर रखा है। दूसरे शब्दों में बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर रही है।
'बिना गलती डाँट खाना भी मानस जैसों की ड्यूटी का एक अंग बन चुका है।' इसका प्रभाव सीधे प्रमोशन पर ...प्रमोशन का न होना आत्मविश्वास का खंड-खंड होना, मानसिक कुंठा का उत्पन्न होना ...मल्टी-कम्पनियों की व्यवस्था एवं विसंगतियों को दर्शाती है। जहाँ कर्मचारी को भी मल्टीस्किल मान उसका चहुँ ओर शोषण होता है। उस पर बॉस का निरंकुश व्यवहार, 'सावंत की चीखती हुई आवाज के आभास भर से मानस के मस्तिष्क के बांध ढीले पड़ रहे थे।' 'भाप में वह तपिश कहाँ, जो सावंत के उबलते रुआब में थी?' इस तरह अधिकारी का खौंफ हावी होने से कर्मचारियों की कार्यक्षमता भी प्रभावी होती है। अबीर जी ने कम्पनी की कार्य प्रणाली को जिस तरह प्रस्तुत किया है लगता है वे तकनीकी विशेषज्ञ हैं; यह विषय के प्रति उनकी समझ को प्रदर्शित करता है। 'यदि ब्लैडर जल्दी बदले, समय नष्ट होने का खतरा, समय पर नहीं बदला तो स्क्रेप होने का खतरा।'
ऐसी ही कार्पोरेट की आभासी दुनिया में उलझी कहानी ‘गुटखा तेंदुलकर’ के राहुल और आशीष की। शहरी परिवेश में अपनी चादर से अधिक पैर पसारने की लालसा मुंबई की ओर रुख कर देती है जहाँ मालिक और नौकर के बीच सिर्फ व्यापार का रिश्ता होता है, प्रतियोगिताओं वाली इन कम्पनियों में पिसता है बेचारा कर्मचारी। 'व्यावसायिक सत्यनिष्ठा, सदाचार से कम्पनियों का मीलों तक कोई सम्बन्ध नहीं उन्हें बस अपने लाभार्जन से मतलब है लागत पूंजी का रिटर्न और लाभ यही उनकी शर्त है। जो कर्मचारी उन्हें लाभ देगा, बिजनेस देगा उसका ही जयकारा गूंजेगा; जो कर्मचारी दिन रात एक कर इस बिजनेस को कार्यान्वित करते हैं वे सदैव नेपथ्य में रहते हैं।' अपना माल बेचने के लिए वे जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने से भी नहीं हिचकते, विज्ञापन का हकीकत से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं। चाहे मदिरा हो गुटखा या तम्बाखू। सरकार भी जानती है ये हानिकारक उत्पाद है मगर धडल्ले से व्यापार हो रहा है सुरक्षा के नाम पर कहीं कोने में बारीक़ अक्षरों में लिख दिया जायगा , 'दिखाया गया उत्पाद मात्र सृजनात्मक चित्रं है।' हकीकत में यहाँ तरक्की का एक ही सूत्र है, 'मिलाना, पिलाना, सुलाना' (पृ ३५),यही नैतिकता रह गई है। मीडिया भी हरे कागजों पर बिछी पड़ी है। ‘अपना काम बनता भाड़ में जाय जनता', युवाओं की कहीं मज़बूरी कह लीजिये कहीं लक्ज़री लाइफ स्टाइल की चाहत उन्हें इस और धकेल देती है। परिणाम सिजोफ्रेनिया का शिकार, कहानी में राहुल और आशीष दोनों ही सिजोफ्रेनिया के शिकार हैं, एक व्यवसाय से सामंजस्य न बैठा पाने के कारण इसका शिकार हुआ दूसरे ने मित्र की मुक्ति का हल उसके जीवन की मुक्ति से निकाला। लेखक ने मुंबई की भीड़ में सिमटी जिन्दगी का जीवंत चित्र प्रस्तुत किया है। आज की मल्टी नेशनल कम्पनियों में मालिक- नौकर के तनावपूर्ण रिश्ते , परिणाम कई मानसिक बीमारियाँ। अतिश्योक्ति न होगी कहें तो कि ऊपर से महंगे सूट बूट से सजा तन, भीतर बीमार मन आज हर घर की कहानी है। यद्यपि आशीष का मारा जाना खलता है। संग्रह की शीर्ष कहानी है ‘सिर्री’,जिसमें पति- पत्नी के बीच के तालमेल और जीवन शैली को लेखक ने खूबसूरत अंदाज में व्यक्त किया है। 'उर्मिला के तवे के साथ पति के कमीज के बटनों की बरसों से चली आ रही बंदिश बटन का खुलना उधर तवे पर रोटियों का फुदकना।' इतनी प्यारी बंदिश के बाद आखिर इन्सान क्यों सिर्री हो जाता है? क्यों टूट जाती है यह बंदिश? कहानी का नायक सुनील समाज के ऐसे कई पुरुषों का प्रतिनिधित्व करता है जो परिवार के लिए सुविधा जुटाने हेतु प्रायोजित योजनाओं का आश्रय लेते हैं। सुनील ने भी अपनी छत का सपना देखा और बैंक की नीतियों के जाल में उलझ गया। बैंक या ऐसी योजना वाली कम्पनियां जो कि लोन लेते समय ग्राहक को सब्जबाग दिखा फ़ांस लेते हैं बाद में वसूली के नाम पर उनका जो व्यवहार होता है वह अच्छे भले इन्सान को मानसिक रूप से बीमार बना देता है। सुनील भी बैंक के इस रवैय्ये से भीतर ही भीतर टूट रहा था, टूट रहे थे पत्नी उर्मिला से उसके रिश्ते, बिखर रहा था उसका हँसते खेलते परिवार का सपना। ग्राहक, बिल्डर और बैंक के त्रिकोण को लेकर बुनी यह कहानी आम जीवन के बेहद निकट है। अपना टारगेट पूरा करने बैंक/ कम्पनियां ग्राहकों को बिल्डर के माध्यम से फंसाती है। 'कितने बैंक अधिकारियों ने रिश्वत लेकर कार्पोरेट जगत की बड़ी मछलियों के अवैध लोन पास किये फिर दोनों चैन की बंसी बजाते रहे और एक मध्यम वर्गीय ग्राहक को गिरवी लोन के लिए एक पूरी जिहाद लड़नी पड रही है...द भोकाल बैंकिंग'। (पृ .११५ ) सुनील जिस बीबी बच्चों के सुख के लिए यह सब कर रहा है तनाव उसे उन्हीं से दूर कर रहा है बेटे की मासूम गलती पर उसका क्रोध जब बच्चे पर फूट पड़ता है, 'जिन्दगी नर्क बनाकर रख दी है हरामखोर ने... कहीं मर खप क्यों नहीं जाता तू?' उसे भी एहसास है कि घर जिसका सपना हर इन्सान देखना चाहता है। मगर आज जिन्दगी की जद्दोजहद ने इस सपने को इतना दुरूह बना दिया है कि 'इस दुनिया में घर का सपना देखना गुनाह नहीं बल्कि ऐसा गुनाह है जिसकी कोई माफ़ी नहीं।” अपनी भावनाओं की कुर्बानी देकर सुनील यह जंग तो जीत जाता है मगर बिना भावनाओं, संवेदनाओं के स्वयं को मुर्दा महसूस करता है ठीक वैसे ही जैसे जठराग्नि के राख होने तक कोई भोजन का इंतजार करे और जब अग्नि राख बन जाय तब उसे भोजन मिले वही मनोदशा होती है सुनील की जब लोन का फीड बैक लेने कम्पनी फोन करती है तब प्रतिक्रिया ठीक ऐसी होती है, 'आप एक मुर्दे से बात कर रहे हैं और मुर्दे फीडबैक नहीं दिया करते' (पृ १२३)त्रासद है जिनसे हम जीवन को सुविधा सम्पन्न और सुखद बनाने की उम्मीद रखते हैं वही हमारे जीवन को नारकीय बना दे।कहानी का उद्देश्य मनोरंजन के साथ समाज के कई गंभीर प्रश्नों को उठाना है। जो लेखक जितने चुनौती भरे प्रश्न कहानी के माध्यम से उठायेगा कहानी उतनी ही कालजयी होगी। इस दृष्टि से मानवीयता, कानून और मीडिया को कटघरे में खड़ी करती कहानी'हेंडओव्हर' बहुत दमदार कहानी है। समाज के प्रभावशाली व्यक्तित्व द्वारा किया गुनाह और चक्की में पिसते कई निरीह जन। आँखों में कई सपने लेकर गाँव से शहर आया झम्मन, मुंबई की भीड़ में खो गया। फुटपाथ पर पनाह मिलना भी बुरा संयोग हुआ कि एक अमीर के गुनाह का चश्मदीद गवाह बन गया। जिसने टूटे दिल के गम का कहर मासूमों पर ढाया और अपनी स्कार्पियो के पहिये तले निर्दोषों को कुचल दिया। कहानी समाज से कई अनुत्तरीय प्रश्नों के उत्तर मांगती है। क्या सत्य का साथ देना कितना मुश्किल है? कानून रसिकलाल के लिए इतना कठोर है तो भाई के लिए क्यों नहीं? रातों रात ख़बरों का बदलना, मीडिया को सवालों के घेरे में खड़ा करता है? बारह सालों में आधा दर्जन दरोगाओं का हेंड ओव्हर कर चले जाना? सुरक्षा विभाग से जवाब मांगता है। 'जो मुंबई ब्लास्ट में एक्यूज्ड हैं हम उनको परदे पर पुलिस इन्स्पेक्टर बना के सर पर ताज पहनाते हैं? सड़ा हुआ तंत्र है हमारा, दो लोगों का कत्ल करके चैन से बैठा है अपने घर में हमारे और तुम्हारे बच्चों के लिए हीरो है।' (पृ २१२) सीधे-सीधे जनता की राष्ट्र धर्मिता पर सवाल। '....फिर अमीर मुजरिम भले ही नागा कर ले, गरीब गवाह का नागा अदालत का समय व्यर्थ कर देता क्यों?' मुजरिम अदालत में पेश होने के बजाय शूटिंग में व्यस्त, हीरोइन से इश्क लडाता है? भय और तनाव में मुजरिम के चेहरे की रंगत उडनी चाहिए जबकि यहाँ भय और पुलिस के खौंफ से गवाहों की रंगत उडी हुई है? सबसे बड़ा सवाल 'बेबी डोल का फोटो रंगीन पेज में देश की सीमा पर शहीद जवानों की तस्वीर ब्लेक एंड व्हाइट में क्यों' ?(पृ २११) अपराधी खुले विचरण करते हैं और गवाहों को मिलती है पुलिस की प्रताड़ना। 'एक महिना तड़ीपार... फोन वोन कुछ नहीं ले जाना ...एक महिना पूरा होने के बाद पहले इधर थाने में सम्पर्क करना समझे ...!' (पृ २२४)आज देश में चाहे विजय माल्या हो या व्यापम जैसा कोई घोटाला सभी में मुजरिम अपने अनुसार शतरंज की बिछात बिछाकर कानून की गोटियों को अपने अनुसार फिट करते हैं। बालीवुड का बादशाह एक पात्र है ,जिसे भी लेखक ने निष्पक्षता के साथ प्रस्तुत किया है | यही है लेखकीय दायित्व। 'पचास का होने को है , अभी तक शादी नहीं हुआ है , बाडी तो देखो अप्सरा पानी मांगे है।' (पृ २१२)अपराध में सारे गवाह, आर टी ओ का मुकर जाना, बोस्को द्वारा गाड़ी ड्राइव करना, स्वीकारना असहाय वर्ग पर दबाव नहीं तो क्या है? वहीँ न्याय व्यवस्था में राजनीति का दखल अपराध को बढ़ावा देता है, इसका प्रतीक है राजनेता की बेटी की शादी में मुजरिम की लोकप्रियता का लाभ उठाना। झम्मन प्रतीक है उन लोगों का जो बिना अपराध सजा पा जाते हैं , उनके समक्ष बड़ा प्रश्न चिन्ह है कि वे किस अदालत में जाएँ न्याय हेतु ..? अपराधी खुला घूम रहा है, वकीलों की चाँदी हो गई बस मुसीबत में हैं गवाह। बालीवुड का बादशाह तो फिर भी शादी कर देर सबेर घर बसा लेगा मगर झम्मन घर बसाने की आस लिए संसार से विदा हो गया। वैसे ही शिक्षा में भी सत्ता का हस्तक्षेप विद्यालय को रणस्थल बना रहे हैं। सत्ताधारी पार्टी के पक्षधर व्यक्ति को यूनिवर्सिटी का उपकुलपति बनाया जाता है। (पृ २१५ ) 'पुलिस का शराबी दौर , गवाहों की फजीहत' ने आम आदमी की नजर में कानून के प्रति असम्मान पैदा कर दिया है।
संग्रह में दो प्रेमकथायें हैं, दोनों अलग-अलग कलेवर में नारी के दो रूपों से परिचय कराती है। एक और है ‘फेसबुक २०५०’ प्राचीन प्रेम को खोज निकालती तकनीकी पर आधारित खूबसूरत कथानक है, जहाँ फेसबुक के कई दोष गिनाये जाते हैं वहीँ फेसबुक ने पुराने बिछडे रिश्तों की डोर को पुन: जोड़ दिया। सुरेन्द्र और नेहा का प्रेम आया तो जवानी की दहलीज पर ही था किन्तु परिवार के बेरीकेड को पार नहीं कर सका, एक दूसरे को भुला भी न सका। वे उम्र के कई पडाव पार कर अचानक फेसबुक के जरिये बुढ़ापे में मिले। उम्र ने उनकी सोच में भी परिपक्वता ला दी तभी तो एक दूसरे को अफ़सोस न हो इसलिए दोनों ही उस आहत मन को झूठी ख़ुशी की चादर से ढकते रहे। आज तक अविवाहित रहकर भी झूठी कहानी रचते रहे। "मैं मिलना चाहता हूँ तुमसे तुम्हें देखना चाहता हूँ।" बूढ़े ने कहा।'“मेरे पति को मेरा किसी गैर मर्द से मिलना अच्छा नहीं लगता।” (पृ.१७८)“तुम्हारी शादी कब हुई?”बुढिया ने उल्टा सवाल दागा ,”तुमसे टूटने के चार साल बाद ।”अबीर जी ने कहानी में कई स्थानों में कविता के माध्यम से भी अपनी भावनाओं को व्यकत किया है। “लफ्ज मिटटी के मचलते हैं बरसने को, तेरे पत्थर के आंगन में, कोई समझाये मेरे दिल को कि अफसाने कभी ऐसे नहीं बनते।” (पृ . १७९) मगर अफ़सोस यह प्रेम एक दर्द भरी दास्ता बनकर रह गया। जिसके तक़दीर में सिर्फ जुदाई ही लिखी थी। कहीं परिवार की खोखली मान्यता तो कहीं कुचक्र की भेंट आज भी कई प्रेम कहानियां चढ़ती हैं। ऐसे ही प्रेम के एक अलग अंदाज की कहानी है ‘मैत्रयी’। जब से माता पिता ने बच्चों को उनका सपनों का संसार उनकी शर्तों पर मुहय्या कराया है तब से उनके सदाचार की दीवार ढह गई है। बिन बाप की बेटी मैत्रयी को माँ के प्यार ने, जिद्दी और बदमिजाज बना दिया। हेमंत को हासिल करना उसका एक मात्र लक्ष्य बन गया। सितारों की चाल को चुनौती दे कर अपनी जिद पूरी कर लेती है। इतना ही नहीं इसके लिए वह हेमंत के माता पिता के साथ अपमानजनक व्यवहार करती है। “देखती हूँ किसकी दम है जो डोली लेकर आये यहाँ।”(पृ१९५) तसल्ली की बात यह है कि उसकी कुचालों में माँ उसके साथ नहीं है। लेखक ने माँ की गरिमा को बरकरार रखा। मैत्रयी की माता की समझाइश, “जीवन में सबकुछ अपनी शर्तों पर नहीं मिलता" इस बात को प्रमाणित करता है कि माँ तो सदैव बच्चों को अच्छे संस्कार हो देती है मगर बच्चों ने जो आभासी दुनिया अपने आस पास रची है उसके आगे उनके भी घुटने टिक जाते हैं।
कहानी एक ओर ज्योतिष को सच ठहराकर प्राचीन मान्यता या कुछ पाठक की दृष्टि में अन्धविश्वास को बढ़ावा देती है। किन्तु इसका दूसरा पक्ष है एक स्त्री की अतिशय स्वच्छंदता, हठ एक हँसते खेलते परिवार को कैसे मातम में बदल देती है, फिर वही लड़की जो ज्योतिष के सारे दावों को झुठलाकर अपने प्यार का दावा करती है वही हेमंत की मौत को कितनी आसानी से भुलाकर अपनी रह निकल जाती है इतना ही गर्भ में पल रही हेमंत की निशानी को उसके मारा पिता की अनुनय – विनय के बावजूद नष्ट कर कोई और जीवन साथी तलाश लेती है। “मैंने नहीं कराया कोई कारगिल युध्द, मैंने उसे नहीं कहा आर्मी में जाने के लिए, उसने अपना रास्ता खुद चुना, उसका अपना दुर्भाग्य था।” मुझे कहते कतई संकोच नहीं कि समाज में नारी का यह पक्ष भी प्रबल है। किन्तु कहते हैं न इन्सान जब कोई अपराध करता है तो देर सबेर मन की अदालत में वह स्वयं को मुजरिम करार पाता है।
आत्मीय रिश्तों में पगी मासूम सी किन्तु परिवार और समाज की कई स्याह परतों को खोलतो कहानी है ‘नानी’। नानी को हम बाल मनोविज्ञान से जुडी रिश्तों की अनूठी कहानी कह सकते हैं, (यद्यपि अब गाँव भी तकनीकी से काफी समृध्द हो चुके हैं, बैल गाड़ी के स्थान पर बसें, निजी वाहन, टूटी कच्ची सड़कों के स्थान पर पक्की तारकोल की सड़कें, खपरैल के मकान के स्थान पर पक्के मकान) फिर भी गाँव की प्राचीन झलक इस कहानी में देखने को मिलती है। ननिहाल बच्चे के जीवन का अहम हिस्सा होता है, वहां बिताये पलों की तुलना जीवन के किसी सुख से नहीं की जा सकती। ऐसे में गाँव में ननिहाल हो तो खेतों की मिटटी की सोंधी खुशबू, लहराती फसलें, मोबाईल और टेलिविजन की दुनिया से दूर उन्मुक्त वातावरण में विचरण करना, छप छप कर नहाना, पेड़ों पर चढ़कर आम अमरुद तोड़कर खाना, इतना ही नहीं घर के पालतू जानवरों से भी वहां आत्मीय सम्बन्ध होता था, शहरों में जहाँ इन्सान इन्सान की भाषा नहीं समझ पा रहा वहां जानवर इन्सान की और इन्सान जानवरों की भाषा बखूबी समझते हैं।खुले में चारपाई पर जो नींद आती है उसकी तुलना बंद ए.सी. के कमरों से भला कहाँ। किन्तु इसी गाँव में जब इंसानी स्वार्थ अपना डेरा डाल देता है तो परिवार का बिखराब बाल मन को बहुत सालता है। विधवा नानी-मामी का विवाद, परिवार की अंतर्कलह को उजागर करता है। नानी का घर से रूठकर अपने ही रिश्ते के देवर के यहाँ बैठ जाना (यद्यपि बच्चा नहीं जानता बैठ जाना से क्या आशय है) उसके लिए तो नानी का दूर जाना उनके प्यार से वंचित हो जाना है। यहाँ नानी का अपने देवर के साथ बैठ जाना एक ओर उस दौर की समाज व्यवस्था को दर्शाता है दूसरी और इस उम्र में नानी का दूसरे पुरुष के साथ रहना बताता है देह से उपर भी सम्बन्ध होते हैं, इन्सान को आत्मिक संबल की चाह सदैव बनी रहती है। स्त्री स्वतंत्रता का उस समय भी समाज विरोधी था आज भी है। नानी के प्रति देवरानी की प्रतिक्रिया, “कितनी उम्र रह गई अब ? इतना निकला तो कुछ साल और निभा लेती।”(पृ १३३) चाची का यह कथन, दर्शाता है नारी स्वयं अपने भीतर की नारी से मुक्त नहीं हो पाई। इन सबसे परे संजू अपनी परी लोक की सफेद फक्क पंखों वाली परी (नानी) को खोज रहा है। नानी-धेपते का परस्पर प्रेम ही है जो उसे घर में नानी की उपस्थिति का आभास करा रही है। इसे विज्ञान ने भी टेलीपेथी का नाम दे स्वीकार किया है।
पारिवारिक पृष्ठभूमि से उठाई एक और प्रासंगिक बल्कि कहूँगी जवलन्त विषयों पर आधारित कहानी है. ‘चिता’। दो पीढ़ियों के बीच कम होता कम्युनिकेशन, संबंधों के बीच तनाव की रस्सी तान देता है। आज यह कहना कि युवा वर्ग ही दोषी है एक तरफा आक्षेप होगा। अपनी निजी जीवन शैली के आदी बुजुर्ग वर्ग भी अपने जीवन में खलल पसंद नहीं करते। सबकी अपनी-अपनी अभिलाषा है जबकि एक छत में रहने के लिए आपसी तालमेल तो प्रथम शर्त है। चिंता एक बेटे की अपने पिता को लेकर है। आशुतोष जी स्वयं को बेटे के परिवार में एडजस्ट नहीं कर पाते, कारण दो हैं एक तो वे सदैव अपने नियमों के अनुसार जिए हैं दूसरा बड़ा कारण है बेटे द्वारा अंतरजातीय विवाह, विधर्मी बहू की फांस उनके हृदय में अभी भी अटकी हुई है। उस पर अर्धांगिनी का बीच सफर में साथ छोड़ जाना उन्हें बेटे की शरण में जाने को विवश तो कर देता है मगर परिवार में रहकर भी स्वयं को तनहा, समेटे रखने वाले आशुतोष जी का व्यवहार बेटे के जीवन में व्यवधान उत्पन्न कर देता है। वह अव्यक्त कुंठा से घिरा रहता है। वह सफल उद्यमी आसानी से हो सकता है अपने कर्मचारियों के बीच तालमेल में कोई दिक्कत नहीं किन्तु घर और रिश्ते में ....वह भरसक प्रयास करता है, इस रिश्ते के तार आने वाली पीढ़ियों से जोड़े रखने किन्तु “जिन्दगी के सवालों के जवाब भौतिकी और गणित की तरह आसन क्यों नहीं होते?” (पृ १०३ )बड़ा सवाल लेखक ने इन पंक्तियों में उठाया है गणित और भौतिकी के तो पूर्व निर्धारित फार्मूले होते हैं जिनके माध्यम से उन्हें हल किया जा सकता है किन्तु जिन्दगी में हर पल नये सवाल उठते है जिनके फार्मूले हमें स्वयं निर्मित करने होते हैं यही कारण है जो इस फार्मूले को इजाद कर लेता है उसके लिए जिन्दगी जन्नत बन जाती है जो नहीं कर पाते उनके लिए जहन्नुम। अंततः बेटा इस फार्मूले को इजाद कर ही लेता है। मैं समझती हूँ इस सूत्र में लेखक ने जीवन का जो सन्देश दिया है उस पर यदि सच्चे मन से निबाह किया जाय तो कई परिवारों के बीच का बिखराव समाप्त हो सकता है। “बेटा बड़ा हो जाय जब, कमाने लगे और पिता रिटायर हो जाय तो भूमिकाएं बदल लेनी चाहिए। बूढ़े पिता को बेटा बन जाना चाहिए, बेटे को पिता, तब नेहा आपके लिए बहू नहीं रह जाएगी।”(पृ १०६) परिवार हो या समाज आज सारी जद्दोजहद अपनी भूमिकाओं पर अड़े रहने की है। लेखक को इस फार्मूले पर बहुत -बहुत साधुवाद देती हूँ। कम से कम मैं तो जीवन में इसे धारण कर चुकी हूँ।
‘प्रवासन’ व्यवस्था का भ्रष्टाचार से टकराव, केवल जनता या समाज ही इसके शिकार नहीं वरन सुरक्षा विभाग भी रसूखदारों के दबाव को सहते हैं। प्रतिबंधित स्थान पर एक उच्च अधिकारी की बेटी का पार्टी करना, वहीँ सुरक्षा विभाग द्वारा रोकने पर अभद्रता से पेश आना (यह विडम्बना है की कानून के रहनुमाओं की नाक के नीचे ही कानून की बखिया उधेडी जा रही है)सुरक्षा कर्मी को आहत कर जाता है। उसके अपने ईमानदार होने पर प्रश्न चिन्ह अंकित करता है। भूखे पेट दिन रात खड़े रहकर वे अपना धर्म निभा रहे हैं किन्तु परिणाम में उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार। उसमें बदले की भावना जाग्रत होना स्वाभाविक है आखिर वह भी इन्सान है। “मैगी नहीं एक बटर चिकन, दो नान, एक फुल प्लेट ग्रीन सलाद, अंदर की व्ही.आई.पी. लाउंज में आर्डर कर दीजिये, आज के बाद हम खाना वहीँ खायेंगे भारत सरकार के खर्चे पर।” यह महज उस कर्मचारी की विडम्बना नहीं है देश के ऐसे कई नागरिक हैं जो स्वयं को संकट में डालकर राष्ट्र भक्ति में समर्पित हैं किन्तु जब देखते हैं उन्हें बदले में सिर्फ तिरस्कार ...और जो खुले आम देश को लूट रहे हैं घोटाले कर रहे हैं उन्हें पूजा जा रहा है तो आहत मन बगावत कर उठता है। कहानी प्रवासन एक कटाक्ष है ऐसे वर्ग पर अफ़सोस समाज में ऐसे वर्गों की बहुतायत है।
‘वीडियो‘ कहानी पढ़कर पंच परमेशवर याद आई। दो मित्रों के बीच जब हरीश के भाई के फेल होने पर आरोपी अजय के पिता साबित होते हैं। दोनों मित्रों की दोस्ती को ग्रहण लग जाता है। वहीँ अजय का वीडियो गायब होने पर हरीश की बस्ती वालों पर आरोप लगता देख हरीश स्वयं तफ्तीश में जुट जाता है और इल्जाम सही साबित होने पर अजय को उसका वीडियो दिलाने में मदद भी करता है। दो बच्चों द्वारा समाज के वर्गवाद का सन्देश देती सुंदर कहानी। वीडियो को केंद्र में रखकर बुनी कथा हरीश और अजय दो बच्चों के माध्यम से समाज के दो वर्गों के बीच की दीवार को अभिभावकों द्वारा बनने और बच्चों द्वारा ढहने की मर्मस्पर्शी कहानी है। निम्न मध्यम वर्गीय बच्चे के जीवन में सदैव अभाव भी हैं, पिता का कठोर अनुशासन भी। दूसरी और सुविधाएँ, पिता का अपार स्नेह व लचीला अनुशासन भी। ऐसे में बाल बुध्दि वीडियो न देखने देने पर सुविधाओं के आधार पर पिता की तुलना कर बैठती है, वस्तुतः यह आज का यथार्थ है। “तुम्हारे पापा कितने अच्छे हैं अजय , काश! मेरे पापा भी ऐसे होते।”(पृ १४७) वहीँ बालमन की सहजता देखिये, ”एकदिन जब हम बड़े हो जायेंगे, इस टंकी पर बैठकर हमारे पैर लटका नहीं करेंगे...वे जमीन को छूकर ठहर जायेंगे।” काश! हमारी आज की वो समस्त पीढ़ी जो अपने अस्तित्व की तलाश में निकली और अपनी ही जमीं को भूलकर भटक गई है उनमें में यह जज्बात पैदा हो जाएँ। ”(पृ.१५५ ) समाज में जो पीढ़ी दर पीढ़ी वर्गवाद की अमरबेल चली आ रही है उससे मुक्ति का दर्द है लेखक की इन पंक्तियों में। “झाड़ू लगाने के कारण, प्रांगण में उठा धूल का बवंडर एक बार फिर उठा और प्रांगण में लगे पौधों की स्वस्छ पत्तियों पर पसर गया।” (पृ.१५५ )
‘मुक्ति’ मर्म को भेदती गहन चिंतन को लेकर रची गई कहानी है, जो अलग दृष्टिकोणों से मुक्ति का प्रयास है। एक ओर परिवारों में विरासतों को लेकर हुए संघर्ष है, दूसरी और वृध्दों की उपेक्षा, देश में बढ़ते वृध्दाश्रम। किन्तु कहानी इन दोनों समस्याओं के लेकर चलने के बावजूद एक अलग कलेवर रचती है जिसमें एक इन्सान की अपने अतीत के कर्मों से मुक्ति की तडप है तो दूसरे इन्सान द्वारा उसे मुक्त न होने देने की जद्दोजहद। यह कहानी आदमी को उसके मन की अदालत के कटघरे में खड़े करती है। यही जीवन दर्शन है जिसे लेखक ने लोक – परलोक के कटघरे से निकल कर यथार्थ के धरातल पर ला रखा है। 'दरअसल गीता में कुछ लिखा ही नहीं है। बस एक बैंक का वर्णन है और मुझे उस बैंक में अगाध आस्था है।' (पृ ५९ ) यदि हर व्यक्ति इसमें आस्था रखे तो संसार में सर्वत्र शांति हो जाय। सम्पत्ति के लालच में ताऊ द्वारा अपने पिता को उपर से नीचे तक आरा मशीन में चीर देने की हृदय विदारक घटना के बाद सुयोग की आँखों में क्रोध की ज्वाला भडकना स्वाभाविक है। एक जख्म जो वह लम्बे समय से पाले था। सुयोग का वृध्दाश्रम के प्रति संवेदनशील होना अकारण नहीं। “मन पर एक बोझ है बहुत पुराना है और बहुत भारी भी।” (पृ ५८) वही ताऊ आज सम्पत्ति विहीन, देह से लाचार हो वृध्दाश्रम में अपने उस दुष्कृत्य से मुक्ति की प्रार्थना कर रहा है, सुयोग उनकी सेवा कर उनकी जिन्दगी के दिन बढ़ाने, उन्हें मुक्त न होने देने की। “सब करनी का गणित है जो किया है वह तो भरना ही पड़ेगा।” ( पृ ५६) वहीँ सुयोग का तर्क मानवता की कसौटी पर खरा है, ” इस दुनिया के परे कोई दुनिया नहीं है, बस यही है स्वर्ग नरक।” ( पृ ५६) जीवन में कर्मों के बल मुक्ति का सन्देश देती प्रभावपूर्ण कहानी है।
अबीर जी की सभी कहानियों को पढकर एक बात महसूस की या कि इसे मैं उनकी खूबी कहूँगी। प्रथमतः वे एक बड़ा परिदृश्य सामने रखते हैं उसमें अपने विषय को चिन्हित करते हैं। संग्रह की सभी कहानी मानवता एवं समाज पर प्रश्नचिन्ह उठाती है। भाषा के क्षेत्र में उनका कौशल बेजोड़ है, कथा तत्व के अनुरूप गढ़ी शब्दावली उनकी सिध्द्ता स्पष्ट करती है जो स्वयं में सूत्र वाक्य रच देती हैं। यथा "खुद से जूझना एक ज्वलनशील गैस के रिसाव की तरह था" (पृ १९४ ) “हर पेड़ को अपनी जड़ें खुद मजबूत करनी होती है, जीवन के तूफान से जूझने के लिए।” “गर्माहट रिश्तों में थी पुआल की आंच में नहीं।” “सेक्टर कोई भी हो तीन नुस्खे हर जगह काम आते हैं, मिलाना, पिलाना, सुलाना।”कहानी के समस्त कथानक जीवन से जुड़े तथा यथार्थ के बेहद करीब हैं जिससे हर इंसान गुजर रहा है। इससे कहानियां पाठक को बांधे रखने में सफल रही है। कथा आरम्भ होते ही पाठक उसमें खो जाता है उसे पात्र का दुःख अपना दुःख लगने लगता है उससे मुक्ति की छटपटाहट में वह लेखक की ऊँगली थामे शब्दों की वीथियों में यात्रा पर निकल पड़ता है। इसका प्रमुख कारण है लेखक ने समस्या हकीकत की दुनिया से उठाई है तो पात्र भी सजीव बन पड़े हैं। यह संग्रह मेरी दृष्टि में प्रेमचंद के समस्यामूलक संग्रह की तरह ही है जिसमें लेखक ने गहन विषयों पर अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है।लेखक समाज का वह संवेदनशील प्राणी है जो अव्यवस्था और विसंगतियों के बिरुध्द सदैव चिंतनशील रहता है। जब यह चिन्तन, तनाव मानस को उद्वेलित करने लगता है तो वह उसे कागज पर उतर हल्का हो लेता है। इसलिए लेखक सिर्री होने से बच जाता है। किन्तु आम इन्सान इस तनाव को कभी स्वयं पर, परिवार तो कभी समाज पर निकालता है। फिर चाहे वह आशीष, हरीश, सुयोग, अनोखे, मैत्रयी, संजू, मानस, आशुतोष जी, सुरेन्द्र, नेहा, झम्मन या फिर लौकिक समाज का कोई भी पात्र हो सिजोफ्रेनिया का शिकार होगा ही। अत: शीर्षक की कसौटी पर पूर्णत: खरा उतरता यह संग्रह जनमानस को चिन्तन हेतु बाध्य करेगा |ऐसे चिन्तन प्रधान कहानी संग्रह हेतु अबीर आनन्द जी को अनेकानेक शुभकामना प्रेषित करती हूँ तथा साहित्य में उनका लेखन उतरोत्तर समृध्दि प्राप्त करे एसी मंगलकामना करती हूँ।
Published on July 08, 2017 00:59
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